खबर लहरिया ग्रामीण स्वास्थ्य चित्रकूट के अकबरपुर गाँव में हर घर में फैली टी बी की बीमारी।

चित्रकूट के अकबरपुर गाँव में हर घर में फैली टी बी की बीमारी।

जिला चित्रकूट, गांव अकबरपुर, 26 अक्टूबर 2016। अकबरपुर गांव में टीबी की बीमारी रुकने का नाम नहीं ले रही है और यहां हर घर में एक मरीज है। अकबरपुर गांव के रहने वाले चिंतावन, उम्र 42, छह महीने से टीबी की बीमारी से पीड़ित हैं। उन्होंने सरकारी अस्पताल में इलाज भी करवाया पर बीच में ही छोड़ देने के कारण उनकी बीमारी ठीक नहीं हो पाई। आज उनकी हालत ऐसी हो गई है कि उनके सीने की पसलियां दिखने लगी है और उनका शरीर दिन-ब-दिन सूखता जा रहा है। वह कहते हैं, “मुझे बहुत खांसी आती है और कफ भी बहुत ज्यादा बढ रहा है।”

गौरी, उम्र 60, के बेटे कौशल, उम्र 20, को 3 साल से टीबी की बीमारी है, “हमें उसकी बीमारी का पता सोनापुर स्वास्थ्य केन्द्र से लगा। अब कौशल का इलाज जानकीपुर अस्पताल में चल रहा है।” राम मिलन, उम्र 45, आठ महीने का टीबी का इलाज कर चुके है पर अभी फिर से उन्हें 15 -15 दिन में बुखार आता रहता है। वह कहते हैं, “मैंने बहुत दवा खाई थी। पर अब फिर से डॉक्टर को देखने की सोच रहा हूं।”

झुग्गियों में रहने वाले लोग इस बीमारी की चपेट में बुरी तरह से आ गए हैं क्योंकि उनके आस-पास में रहने वाले लोगों से ये संक्रमण दुबारा से इन्हें हो जाता है। बीमारी बार-बार आने का एक कारण है वहां के लोगों का रोजगार यहाँ अधिकतर लोग पत्थर तोड़ने का काम करते हैं और पत्थर तोड़ने की मशीन क्रेशर गांव में ही लगी है। एक और कारण यह है कि लोग इलाज को बीच में ही छोड़ देते हैं और स्वास्थ्य विभाग की इस मुद्दे पर गंभीरता की भी कमी है।

छह महीने पहले टीबी का इलाज पूरा कर चुके गुलजार अब पूरी तरह से ठीक है। वह कहते हैं, “लोग जब ठीक रहते हैं, पत्थर तोड़ने के काम में ही लगे रहते हैं और एक बार टीबी हो जाने पर इस बीमारी के कारण मर जाते हैं।”

टीबी के इलाज के शुरुआती दिनों में चक्कर और उलटी आना जैसी परेशानियों से अधिकतर मरीज दवा को छोड़ देते हैं। इन मरीजों में से एक भैया लाल, उम्र 50, ने कई बार टीबी का इलाज किया पर चक्कर आने से उन्होंने दवा खाना छोड़ दिया। भैया लाल घर में पड़ी दवाओं को दिखाते हैं, जिसमें से अधिकतर दवा तो खाई ही नहीं गई है। पर भूरी जैसे मरीज भी है, जो शुरुआती दिनों के परेशानियों के बावजूद दवा ले रही हैं, “दवा खाकर ऐसा लगता है जैसे मैंने शराब पी रखी हो। पर मैं दवा खाना नहीं छोड़ सकती क्योंकि इससे ही मैं ठीक होऊँगी।”

इस गांव में डॉट्स की दवा देने वाली आशा कार्यकर्ता मन्दा देवी के पास 12 टीबी मरीजों को दवा खिलाने की जिम्मेदारी है। वह कहती हैं, “मैं मरीज को डॉक्टर के पास ले जाती हूं, जहां उनकी बलगम की जांच होती है। जांच में टीबी निकलने पर फिर डॉट्स का इलाज शुरु होता है।” मन्दा इस बीमारी में मरीजों को खाने के परहेज के बारे में भी बताती हैं, “तैलीय और खट्टी चीजे नहीं खानी चाहिए, मैं तो सभी परहेज बताती हूं। अब वो ऐसा नहीं करते हैं तो मेरी क्या गलती है?”

पथरौड़ी की ममता पटेल आशा कार्यकर्ता डॉट्स की दवा के बारे में बताती हैं, “टीबी की बीमारी के दो स्तर होते हैं, पहले स्तर में वे मरीज होते हैं जो टीबी से कम प्रभावित होते हैं जबकि दूसरे स्तर में ज्यादा प्रभावित मरीज आते हैं। हम दवा उस ही हिसाब से देते हैं। दवा में खाने वाली गोली और इंजेशन दोनों होते हैं।”

जिला क्षय रोग अस्पताल चिकित्सालय चित्रकूट के वरिष्ठ उपचार परिवेक्षक शैलेन्द्र निगम कहते हैं, “ज्यादा दवा होने के कारण मरीज दवा से डर जाते हैं, हालांकि हम उन्हें दवा खाने का तरीका भी बताते हैं कि सुबह से शाम तक आपको सारी दवा खानी होती है। पर शुरुआत में दवा मरीज को ज्यादा तकलीफ देती है, जिससे मरीज घबराकर दवा खाना छोड़ देते हैं। भारतपुर और बरगद में भी टीबी की बीमारी बहुत ज्यादा हैं इसलिए हम समय-समय में टीम भेजकर वहां जांच करवाते हैं और अगर कोई नया मरीज मिलता है तो उसका इलाज करवाते है।”

रिपोर्टर- नाजनी रिजवी और मीरा

26/10/2016 को प्रकाशित