अर्चना द्विवेदी दिल्ली स्थित निरंतर संस्था की निदेशक हैं। अर्चना लगभग बीस सालों से जेंडर और शिक्षा के मुद्दों पर काम कर रही हैं।
बाल विवाह और कम उम्र में शादी के मुद्दे पर सैकड़ों साल से चर्चा हो रही है। लेकिन आज भी करीब पचास प्रतिशत शादियां अट्ठारह साल की उम्र से पहले ही हो जाती हैं। हां शादी की न्यूनतम उम्र में फर्क जरूर आया है। जहां पहले नौ से दस साल की उम्र में शादियां हो जाती थीं, वहीं आज यह उम्र बढ़कर सत्रह साल हो गई है। लेकिन आज भी लड़कियों पर ज्यादा मगर लड़कों पर भी जल्दी और मां-बाप की मर्जी से शादी करने का भारी दबाव होता है।
लड़कियों पर मां-बाप की मर्जी से शादी करने, कम उम्र में शादी करने का दबाव ज्यादा होने के पीछे सबसे बड़ा कारण होता है यौनिकता। दरअसल शादी यौनिकता से जुड़ा मसला माना जाता है। आज भी हमारे समाज में शादी को ही यौन संबंध बनाने का लाइसेंस माना जाता है। इस सोच की जड़ें पितृसत्तात्मक सोच से ही जाकर मिलती हैं। लड़कियां किस जाति, किस वंश और किस लड़के से यौन संबंध बनाएंगी यह तय करने का हक लड़कियों को नहीं दिया जाता है।
निरंतर संस्था ने 2013 में एक राष्ट्रीय स्तर का अध्ययन किया। इस अध्ययन के जरिये बाल विवाह और कम उम्र में होने वाली शादियों को जेंडर और यौनिकता के नजरिए से समझने की कोशिश की गई। इस अध्ययन से यह साफ हो गया कि शादी का संबंध लड़कियों की यौनिकता पर पहरेदारी है। इसीलिए यौनिकता से जुड़े फैसले लेने का हक लड़की को नहीं है। शादी सामाजिक परंपरा है। समाज में बनी बनाई धारणा के अनुसार पुरुष ही मुखिया माना जाता है। ऐसे में सामज और वंश को आगे बढ़ाने के मुख्य जरिए शादी या यौनिकता से जुड़े फैसले पुरुषों के पास ही सुरक्षित रखे जाते हैं। दरअसल, बाल विवाह या कम उम्र में शादी करके यौनिकता की हदबंदी की जाती है।