खबर लहरिया ताजा खबरें चर्चाएं, नई नज़र से – प्रौढ़ों की शिक्षा को लेकर उदासीनता क्यों?

चर्चाएं, नई नज़र से – प्रौढ़ों की शिक्षा को लेकर उदासीनता क्यों?

आठ  सितम्बर को अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस है इस मौके पर प्रौढ़ शिक्षा के कार्यक्रमों की जमीनी हक़ीक़त और सरकारी रवैये को लेकर निरंतर संस्था की सदस्य पूर्णिमा ने लेख लिखा। पूर्णिमा पिछले अठ्ठारह सालों से जेंडर और शिक्षा को लेकर काम कर रहीं है। महिला साक्षरता पर उन्होंने गहराई से काम किया।

   साक्षरता दर किसी भी देश के विकसित या विकासशील होने के सूचकों में से एक है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में चैहत्तर प्रतिशत लोग साक्षर हैं। इसमें छियासठ प्रतिशत औरतें और बयासी प्रतिशत पुरुष हैं। 2009 में राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के तहत साक्षर भारत कार्यक्रम शुरू हुआ। लेकिन यह कागजों तक ही सीमित रह गया।

उत्तर प्रदेश के ललितपुर जि़ले में 2013 में जब खबर लहरिया ने साक्षर भारत कार्यक्रम की पड़ताल की तो जि़ला स्तर पर कार्यक्रम शुरू ही नहीं हुआ था, मगर परीक्षाएं ली जा रही थीं। यह परीक्षाएं बस कागजों में ही हो रही थीं, छात्र-छात्राएं केंद्रों में थे ही नहीं। जब काॅपियों पर लिखे नाम के लोगों से मुलाकात की गई तो उन्हें एक भी सवाल का जवाब पता नहीं था। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आंकड़े केवल खानापूर्ति के लिए बनाए जाते हैं।

तेज़ी से बदलते तकनीकी युग में बिना साक्षरता बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करना कठिन हो रहा है। सरकार भविष्य पर मेहनत और पैसा खर्च करना चाहती है, यानी बच्चों को पढ़ाओ, प्रौढ़ों को पढ़ाकर क्या मिलेगा? प्रौढ़ शिक्षा सरकारी एजेंडे में अलग-थलग ही पड़ी हुई है। यह भी मान लिया जाता है कि प्रौढ़ों को पढ़ने में रुचि नहीं है। लेकिन कई उदाहरण हैं जहां महिलाओं ने यह साबित किया है कि पढ़ने-लिखने में उन्हें रुचि है। नब्बे के दशक में आंध्र प्रदेश के नेल्लोर जि़ले में महिलाओं ने अपनी साक्षरता का इस्तेमाल कर शराब बंदी अभियान को आगे बढ़ाया। सरकार को मजबूरन शराब के ठेके बंद करने पड़े।

दिक्कत ये है कि आज तक जो भी साक्षरता कार्यक्रम चलाए गए वे योजनाबद्ध तरीके से नहीं चलाए गए। साक्षरता बनी रहे, मज़बूत रहे इसके लिए ज़रूरी है कि लगातार अभ्यास हो। एक कार्यक्रम के बाद दूसरे कार्यक्रम के बीच इतना लंबा समय रहता है कि प्रौढ़ जो सीखते हैं वह भूल जाते हैं। साक्षरता केंद्र में महिलाएं, गरीब, मज़दूर, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों के संदर्भ को ध्यान में रखकर कार्यक्रम बनाए जाने चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया गया तो हम हमेशा यही कहते रहेंगे कि इन्हें पढ़ने में रुचि नहीं है।