पिछले 26 सालों में जैसे-जैसे हमारी आय में बढ़ोत्तरी हो रही हैं, वैसे -वैसे ही भारत में बीमारियों का बोझ बढ़ता जा रहा है। साल 2016 में देश में 61.8 प्रतिशत मौतें गैरसंक्रामक बीमारियां जैसे दिल की बीमारी और पुरानी फेफड़ों की बीमारियों के कारण हुई थी। वहीं 1995 में 53.6 प्रतिशत मौतें संचारी रोग, मातृ, नवजात और पोषण से होने वाले रोगों के कारण हुई थी। ये जानकारी मेडिकल जर्नल लैंसेट के एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार है।
रोग, विकलांगता और असमय मृत्यु की संख्या हमारे 29 राज्यों में एक बड़े देश की जनसंख्या के बराबर है। 1990 से 2016 के बीच 333 संख्या रोग और हताहतों की हैं, तो वहीं 84 संख्या खतरे की हैं, जो भारत के हर राज्यों में है। देश में 1990 में गैरसंचारी रोगों की संख्या 37.9 प्रतिषत थी, जबकि वहीं ये संख्या 23.9 प्रतिशत बढ़कर 2016 में 61.8 प्रतिशत हो गई। ये प्रतिशत उन लोगों का हैं, जिनकी इसके कारण मृत्यु हो गई है।
देश के आठ राज्य मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और बिहार स्वास्थ्य मापदण्डों के हिसाब से अविकसित राज्य हैं। वहीं असम और उत्तर-पूरबी राज्यों में संक्रामक रोग की संख्या अधिक है। वहीं विकसित राज्य केरल, गोवा और तमिलनाडू में गैरसंक्रामक रोग की संख्या अधिक है। तो केरल में महामारी संक्रमण रोग 0.16 हैं, जबकि गोवा में 0.21 और तमिलनाडू में 0.26 गैरसंक्रामक रोग है। बिहार में 0.74 और झारखंड में संक्रामक रोग, मातृ, पोषण संबंधी बीमारियां 0.69 हैं।
2016 में अधिकतर मृत्यों का कारण दिल की बीमारियां था। साथ ही गैरसंक्रामक रोग जिनमें स्ट्रॉक, शुगर और किडनी जैसे रोगों से मरने वालों की संख्या भी ज्यादा है। भारत आर्थिक रफ्तार में भागता हुआ, पड़ोसी देश चीन से प्रगति में बराबरी करता हुआ, लेकिन स्वास्थ्य सुधार में पीछे। यह तस्वीर हमारे नीतिनिर्देशकों के लिए एक चुनौती है कि वे स्वास्थ्य बजट में बदलाव करें। प्रधानसेवक न रेन्द्र मोदी को देश के सकल घरेलू उत्पाद का 2.5 प्रतिषत स्वास्थ्य बजट में आवांटित करना चाहिए, जबकि वैश्विक स्तर पर देखें तो ये प्रतिशत 6 है।
लेख साभार: इंडियास्पेंड