मई में चुनी गई नई सरकार ने कई पुरानी योजनाओं को बदला। इनमें से एक योजना जिसमें बदलाव की संभावना है, वह है मनरेगा। मनरेगा पर सालों से काम करने वाले कार्यकर्ता इन बदलावों से चिंतित हैं। 2005 में मनरेगा को एक ऐतिहासिक कानून के रूप में पास किया गया। कुछ सालों के बाद योजना में भ्रष्टाचार के चलते कई गांवों के लोग इसमें काम करने से कतराने लगे। लेकिन इस दौरान सरकार ने बदलते समय के साथ योजना में बदलाव नहीं किए।
महोबा जिले में पहाड़ पर जोखिम भरा काम करने वाले मज़दूरों को चार सौ रुपए एक दिन की मज़दूरी मिलती है। चित्रकूट और बांदा में आज की तारीख में बेलदारी और रेजा में मज़दूरों को साढ़े तीन सौ रुपए तक मिलता है। 2014 में मनरेगा में दिहाड़ी सिर्फ एक सौ बासठ रुपए है। अकसर मज़दूर बताते हैं कि मनरेगा में काम करने के बाद भी उन्हें महीनों तक मज़दूरी नहीं मिलती जबकि योजना में नियम पंद्रह दिन में भुगतान करने का है। ऊपर से अब बात हो रही है कि सरकार मनरेगा के काम में इक्यावन प्रतिषत सामग्री पर और सिर्फ उन्चास प्रतिषत मज़दूरी पर खर्चा करेगी। इससे मनरेगा के बजट में ज़्यादा हिस्सा सामग्री बेचने वालों का होगा।
इन ज़मीनी सच्चाइयों को बदलने की जगह केंद्र ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी का कहना है कि योजना को अब सिर्फ पिछड़े जिलों में लागू करने के बारे में सोचना चाहिए। मनरेगा कार्यकर्ताओं की प्रधानमंत्री से लगाई गुहार में दम है। योजना को हटा देना कोई समाधान नहीं है। बढ़ती महंगाई और चुनौतियों के साथ यह सरकार की जि़म्मेदारी है कि मनरेगा जैसी योजना भी बदले।
क्या योजना हटाना है समाधान
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