खबर लहरिया अखबार स्थानीय भाषा में प्रकाशित होता है। इस लेख को खबर लहरिया की एक पत्रकार ने लिखा है। पहली बार बांदा आयी हूं। दोस्तों, परिचितों, गूगल ने एक लंबी लिस्ट दिया था- ‘‘देखो बांदा जा रही हो तो कालिंजर फोर्ट जरूर देखना, जामा मस्जिद भी देख लेना और हां अगर समय मिले तो केन नदी भी देख आना।
‘‘गंगा किनारे रहने वाली और नदी नाले से प्यार करने वाली लड़की होने के नाते मैं भी कहां अपना प्यार छुपा पाती। मैं रेलवे लाइन क्रॉस करके एक छोटे से मोहल्ले से होते हुए केन किनारे पहुंच गयी। किनारे पर पहुंचते ही मानो आखों ने विद्रोह करना शुरु कर दिया- ‘‘नहीं ये केन नहीं हो सकती है“।
दरअसल मेरे लिए केन केदारनाथ अग्रवाल की वह कविता थी जिसमें ‘‘केन किनारे पालथी मारे पत्थर बैठा…“ है। लेकिन यहां कोई किनारा नहीं था। नदी किनारे खेती तो गंगा में भी देखा है, लेकिन फावड़े से बालू निकाल, नदी में जगह-जगह बालू का पहाड़ केन में ही देख रही हूं। मेरी नजर एक आदमी पर गयी, जो अपने फावड़े से केन के कलेजे को खखोड़ रहा है। मैं उससे बात करने की कोशिश करती हूँ, लेकिन वो इतना डरा हुआ है कि कुछ भी बताने से इंकार कर देता है। बस पानी टैंक की ओर इशारा करते हुए कहता है, ‘‘ये बालू हम इसलिए निकाल रहे हैं ताकि टैंक में बालू न जाये‘‘। जबकि सच्चाई है कि टैंक का पाइप दूसरी तरफ लगाया गया है। उसका इस बालू खुदाई से कोई तालमेल नहीं है। यह पूछने पर कि कितना पैसा मिल जाता है। वह बताता है 300 रुपये। इसी बीच एक औरत आती है और उसे कहती है, ‘‘झूठ क्यों बोलते हो 250 रूपये ही तो मिलता है‘‘। मैं सोचने लगती हूँ आखिर कौन है जो इन्हें पैसे देता है? जिसका नाम ये लोग बताने से डरते हैं? क्या वह डराने वाला आदमी यहां के स्थानीय प्रशासन से अनजान होगा? वो लोग मुझे भी यहां से चले जाने के लिए कहते हैं, क्यों?
क्यों इस पर रिपोर्ट करने के लिए पत्रकार को जान से मारा जाता है? पिछले महीने ही आंबेडकर नगर के रहने वाले एक पत्रकार को जान से मार दिया गया। बस उसकी जुर्म इतनी थी कि उसने बालू माफियाओं के खिलाफ आवाज उठाई।
केन नदी नहीं माफिया का अड्डा बना
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