अन्न भरा भण्डारों में, भूखी जनता गांवों में। या बात तब सही साबित होई जात हवै जबै बांदा रेलवे स्टेश न मा उतरै वाला पांच हजार नौ मीट्रिक टन गेहूं देखा गा। सवाल या उठत है कि अनाज कहां जात हवै? काहे से कि या अनाज सिर्फ राशन कार्ड मा दीन जात हवै। कोटेदार भी या समस्या बखान करत हवैं कि उनका हर महीना गोदाम से ही अनाज नहीं मिलत आय।
दूसर बात या भी हवै कि राशन कार्ड भी बहुत ही कम लोगन के बने हवैं। हर पांच साल मा राशन कार्ड बनाये जात हवैं। या समय भी राशन कार्ड बनैं का काम चलत हवै। अगर अनाज हवै राशन कार्ड भी हवै तौ कोटेदार कइती से या समस्या काहे का सुनैं का मिलत हवै कि हर महीना अनाज नहीं मिलत आय। सरकारी भण्डार तौ भरे हवैं कि उनमा अनाज धरैं के जघा निहाय। गांव के गरीब जनता एक-एक दाना खातिर खून पसीना एक करे हवै तबै भी उनके खाय का एक निवाला मोहताज हवै।
सरकार या सोच के साथ यतना अनाज भेज के जनता के ऊपर एहसान देत हवै कि वा अनाज जनता के ही खातिर आय। या बात कहे भूल जात हवै कि वा अनाज तौ सिर्फ राशन कार्ड मा ही मिली। राश न कार्ड भी उंई लोगन के ही ज्यादातर बने हवैं जउन खुद अपने खाय के व्यवस्था कई सकत हवैं। जेहिका सच मा या अनाज के जरूरत हवै उंई लोग तौ पीछे ही रहि जात हवैं।
कउन काम के अनाज से भरे भण्डार
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