बड़े-बड़े महलों में रहने वाले अमीर लोग, जमीन पर रहने वाले गरीब मजदूरों को कीड़े-मकोड़े से ज्यादा कुछ नही समझते। अमीर लोग अपनी दौलत के नशे में भूल जाते हैं कि यही गरीब मजदूर उनके लिए आलिशान महल भी बनाते हैं।
इस आलीशान महल की नींव होती है एक ईंट। इस ईंट को बनाने में कई लोगों का हाथ होता है, कई लोगों की मेहनत होती है। आज इस लेख के द्वारा मैं आप सभी से अपना अनुभव सांझा कर रही हूं।
16 फरवरी 2016, शायद यह दिन मेरे लिए मुझे मेरे अतीत से मिलाने के लिए ही आया था। उस रोज मैं ददुआ पर रिपोर्ट करने फतेहपुर आई हुई थी कि बीच रास्ते में मुझे ईंट के भट्टों पर काम करती महिलाएं नजर आयीं। कुछ सोच कर और फिर ठहर कर मैं वहां पहुंची।
उस दिन हल्की बारिश के बीच ठंडी हवाएं चल रही थीं। जैसे ही मैं भट्टे पर पहुंची, मिट्टी की सोंधी-सोंधी महक ने मुझे मेरे पुराने दिन याद दिला दिए। उस वक्त वहां 6 साल के छोटे बच्चों से लेकर बड़ी उम्र के लोग ईंट काटने में जुटे हुए थे। वहां हर कोई काम में लगा हुआ था, कोई मिट्टी ढो रहा था तो कोई बालू ला रहा था, कोई जमीन को चिकना करने में लगा था तो कोई ईंटे पलट रहा था।
यह सब देख मुझे वह अपना 2001 का सफर याद आने लगा, जब मैं पंजाब के भट्ठों में काम करती थी। मुझे याद है कि पंजाब जाने के बाद मुझे वहां कोई काम नहीं मिला और हार कर मुझे मुजफ्फरपुर के काले भट्ठे में ईंट बनाने का काम करना पड़ा।
देखने में यह जितना सरल काम लगता था उतना था नही। यह काम सीखने में मुझे 3 महीनें लग गये। यहां काम करने के घंटे तय नहीं होते, जितना काम करो उतनी मजदूरी पाओ। आमतौर पर यहां सभी 15 से 20 घंटे काम करते थे।
ईंट बनाना बड़ा ही दिलचस्प होता है। सबसे पहले सूखी मिट्टी को खोद कर उसे पानी में भिगोना पड़ता है। कुछ समय के लिए इसे पानी के साथ फूलने के लिए छोड़ देते हैं। फिर इस मिट्टी को अच्छे से सान कर ईंट बनाने के लिए तैयार कर लेते हैं। अंत में जहां ईंट बनायीं जाती है वहां की जमीन को चिकना कर उस पर रेत डाल दी जाती है और गीली मिट्टी को ईंट बनाने के सांचे में भर कर चिकनी, रेत वाली जमीन पर पलट दिया जाता है। ईंट सूखने के बाद उसे इकठ्ठा कर चिमनी में पकने के लिए लगाया जाता हैं. इतने लम्बे काम के बाद हमें 1000 ईंट बनाने पर हमें 2001 में 250 रुपए मिला करते थे। अब इतने सालों बाद शायद मजदूरी भी बढ़ गई होगी!
जब यह काम शुरू किया था तब बहुत थक जाती थी। कभी-कभी तो वही ईंट काटते हुए सो जाया करती थी। जब तक कोई धक्के दे कर नहीं उठाता था तब तक मैं उठती भी नहीं थी। जैसे-तैसे कर के साल भर में दस हजार रुपए कमाए और वापस आ कर अपने कर्जे उतार दिए। इसके बाद शुरू हुई खबर लहरिया में रिपोर्टर के रूप में मेरी नई पारी शुरू हुई।
आज वापस भट्टों में आ कर देख रही हूं कि यहां कोई बदलाव नहीं आया है। यहां आज भी छोटे बच्चे काम करते हैं। जो मजदूर यहां काम करते हुए चोटिल हो जाते हैं या बीमार हो जाते हैं उन्हें सरकार और मालिकों की तरफ से कोई सुविधा नहीं दी जाती। लाख मुश्किलों और असुविधाओं के बाद भी गरीब मजदूर यहां अपना पसीना बहा कर दूसरों के सपनों को पूरा करते हैं।
‘ईंट-भट्टों का सफर’ याद आता है मुझे गुजरा जमाना, जैसे वो आज तक मुझे भूला न हो
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