नई दिल्ली। इंटरनेट न्यूट्रेलिटी यानी इंटरनेट पर ‘बराबरी के हक’ को लेकर संसद से लेकर सड़क तक बहस हो रही है। आज भारत में तीस करोड़ लोग इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में इंटरनेट से जुड़े किसी बदलाव या नई बहस को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। राहुल गांधी ने भी लोकसभा में यह मुद्दा उठाया और इंटरनेट पर बराबरी के हक की मांग की।
भारती एयरटेल ने 2014 में आखिर में स्काईप और वाइबर यानी इंटरनेट पर बातचीत करने के मंच के उपयोग के लिए अलग से फीस तय कर दी थी। विरोध के बाद इसे वापस लेना पड़ा था।
इस मुद्दे पर एक समिति बनाई गई है। जो मई के दूसरे सप्ताह में अपनी रिपोर्ट सौपेगी। केंद्रीय संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने 20 अप्रैल को कहा कि इस रिपोर्ट के बाद ही हम कुछ फैसला लेंगे। मार्च 2015 में भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने देश में सबसे ज़्यादा इस्तेमाल होने वाली सेवाओं को नियमित करने के तरीके पर उपयोगकताओं और कंपनियों से राय मांगी है। जिसे भेजने की आखिरी तारीख 24 अप्रैल है।
आखिर यह है क्या?
मान लीजिए आप अपने फोन या कंप्यूटर पर इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। उसके लिए आप हर महीने सेवा देने वाली कंपनी को (उदाहरण के लिए) सात सौ रुपया चुकाते हैं। सात सौ रुपए चुकाने के बाद आप चाहें किसी न्यूज की वेबसाइट खोलें या फिर इंटरनेट पर होने वाली दुकानदारी की वेबसाइट खोलें। यह आपकी मर्जी है।
इंटरनेट पर उपलब्ध हर सेवा उन्हीं सात सौ रुपए में मिल जाएगी। मगर अचानक आपको पता चले कि आपने जिस कंपनी का इंटरनेट लिया है। उस कंपनी ने इंटरनेट पर मौजूद कुछ बाजार जिसमें किताबों की दुकान, कपड़ों की दुकान, घर के सामान की दुकान या फिर न्यूज की वेबसाइट में से कुछ के साथ साझेदारी कर ली।
मान लीजिए आपको ‘आज तक’ की वेबसाइट इंटरनेट पर पढ़नी अच्छी लगती है। मगर यह क्या हुआ आपको इंटरनेट देने वाली कंपनी ने तो ‘इंडिया टी.वी.’ के साथ साझेदारी की है। अब अगर इंडिया टी.वी. की वेबसाइट खोलेंगे तो यह फटाफट रफ्तार के साथ खुलेगी। पैसा भी कम चुकाना होगा। मगर ‘आज तक’ की चाल सुस्त कर दी जाएगी। इसका पैसा भी ज़्यादा होगा। मतलब अब आप हर वेबसाइट पर बराबरी का हक नहीं रखते। कौन सी वेबसाइट आप पढ़े। यह निर्भर करेगा, वेबसाइट और इंटरनेट देने वाली कंपनी की कारोबारी साझेदारी पर।