दिल्ली के एक कोर्ट ने अमेरिकी लेखिका की एक किताब पर रोक लगाने का सोचा और किताब के प्रकाशकों ने इसके पहले ही किताब को दुकानों से वापस ले लिया और आगे के लिए इसका प्रकाशन रोक दिया। इस एक बात पर आखिर क्यों कुछ लोग हल्ला मचा रहे हैं? क्या इस किताब में वाकई ऐसा कुछ है जो किसी एक धर्म को मानने वालों की भावनाओं को ठेस पहुंचाता है?
दरअसल सवाल यह है ही नहीं। सवाल तो यह ज़रूरी है कि आज के ज़माने में इस तरह से लोगों के विचारों पर रोक लगाने के आने वाले समय में देश के हर नागरिक के लिए क्या मायने हैं? ‘शिक्षा बचाओ आंदोलन’ जैसे कट्टर हिंदुवादी गुटों की मांगों को कानूनी रूप से स्वीकार करना और प्रकाशक का आसानी से झुक जाना – इसका क्या तात्पर्य है? किस बिनाह पर यह तय क्या जा रहा है कि किसे कब कितनी आज़ादी दी जाएगी और कौन यह तय कर रहा है, अब ये वे सवाल हैं जो हर नागरिक के लिए चिंता का विषय बन जाने चाहिए।
भारत एक लोकतांत्रिक आज़ाद देश है जिसके संविधान में हर नागरिक को कुछ अधिकार दिए जाते हैं। यह मौलिक अधिकार कहलाते हैं और इनमें से एक अहम अधिकार है अपने विचार और अपनी राय रखने का। पर आजकल कट्टरवाद सोच और असहनशीलता कई बातों को तय कर रही हैं और किसी भी लोकतंत्र में यह हर समुदाय और हर नागरिक के लिए चिंताजनक है।
ऐसा नहीं है कि कोई कुछ भी बोल सकता है पर किसी किताब पर इस तरह रोक लगाना किस आज़ाद लोकतांत्रिक देश में जायज़ है?
आज़ादी को लगी ठेस, पाबंदियों का ज़माना
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