बकरीद को इस्लाम में बहुत ही पवित्र त्योहार माना जाता है। इस्लाम में एक वर्ष में दो ईद मनाई जाती है। एक ईद जिसे मीठी ईद कहा जाता है और दूसरी है बकरीद। बकरीद पर अल्लाह को बकरे की कुर्बानी दी जाती है।
ऐसा माना जाता है कि पैगम्बर हजरत को अल्लाह ने हुक्म दिया कि अपनी सबसे प्यारी चीज को मेरे लिए कुर्बान कर दो। पैगम्बर साहब को अपना इकलौता बेटा इस्माइल सबसे अधिक प्रिय था। खुदा के हुक्म के अनुसार, उन्होंने अपने प्रिय इस्माइल को कुर्बान करने का मन बना लिया। बकरीद के दिन जैसे ही कुर्बानी का समय आया तब इस्माइल की जगह एक बकरा कुर्बान हो गया। अल्लाह ने इस्माइल को बचा लिया और पैगम्बर साहब की कुर्बानी कबूल कर ली। तभी से हर साल पैगम्बर साहब द्वारा दी गई कुर्बानी की याद में बकरीद मनाई जाने लगी। बकरीद पर अल्लाह को बकरे की कुर्बानी दी जाती है।
दूसरी ईद अपने कर्तव्य के लिए जागरूक रहने का सबक सिखाती है। राष्ट्र और समाज के हित के लिए खुद या खुद की सबसे प्यारी चीज को कुर्बान करने का संदेश देती है।
इस दिन कुर्बानी के सामान के तीन हिस्से किए जाते हैं। इन तीनों हिस्सों में से एक हिस्सा खुद के लिए और शेष दो हिस्से समाज के गरीब और जरूरतमंद लोगों का बांटा दिया जाता है।
बाँदा के आयूब खान कहते हैं, यहां तीस हजार मुसलमानों की बस्ती है। यहां के बाजार का हिसाब-किताब भी मैं देखता हूं। व्यापारी लोग यहाँ दूर-दूर से बकरा, भैंसा और पड़वा बेचने आते हैं। जिसमें 10 हजार से लेकर 60 हजार तक के बकरे रहते होते हैं।
मंजूर अली कहते हैं कि कुर्बानी के लिए खूबसूरत बकरा होना चाहिए इसलिए मैंने 55 हजार का बकरा खरीदा हैंै।
यह भी कहा जाता है कि इसमें वह बकरा या जानवर कुर्बान नहीं किया जा सकता जिसमें कोई शारीरिक बीमारी या भैंगापन हो, सींग या कान का अधिकतर भाग टूटा हो या जो शारीरिक तौर से बिल्कुल दुबला-पतला हो। बहुत छोटे पशु की भी बलि नहीं दी जा सकती। कम-से-कम उसे दो दांत (एक साल) या चार दांत (डेढ़ साल) का होना चाहिए।