खबर लहरिया औरतें काम पर दलित इतिहास में दर्ज नाम चित्रकूट की इन तीन औरतों का

दलित इतिहास में दर्ज नाम चित्रकूट की इन तीन औरतों का

देश की आधी आबादी का एक हिस्सा दलित महिलाएं भी हैं जिनका जीवन अन्य समुदाय की महिलाओं से कहीं ज्यादा संघर्षों से भरा होता है। दलित होना ही हमारे देश और समाज में एक दोष है, ऐसे में दलित महिला होना उससे भी बड़ा दोष हो जाता है। दलित महिलाओं से जुड़ी कुछ ऐसी चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई हैं जो हमें यह सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि इन विशेष समुदाय की महिलाएं जटिल जीवन जीते हुए भी हर दिन कड़े से कड़े संघर्षों से गुजर कर लोगों के लिए मिसाल बनती हैं।

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, दलित औरतें औसतन अपना चालीसवां जन्मदिन मानने के लिए जिन्दा नहीं रहती। वहीँ, राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अनुसार, हर दिन में तीन महिलाओं के साथ बलात्कार और यौनाचार जैसे कृत्य होते हैं। यही नहीं, दलित महिलाओं के पिछड़े होने की सबसे बड़ी वजह है उनका अनपढ़ होना और उपेक्षित समझा जाना। रिपोर्ट कहती हैं कि आज मात्र 57% दलित महिलाएं साक्षर हैं। इस आधार पर समझा जा सकता  है कि घोर असुविधाओं के बाद भी यदि दलित महिलाएं पढ़ रही हैं आगे बढ़ रही हैं तो यह उनका हौसला है और हिम्मत है ,जीने की।

ऐसी ही तीन महिलाओं से खबर लहरिया आपको रूबरू करा रहा है। इन तीन महिलाओं ने समाज की बनाई जाति व्यवस्था को चुनौती दी और बड़ी उम्र में पढ़ना-लिखना सीख कर अपनी जिंदगी बदली।

मिलिए, चमेला से जो पहली हैंडपंप मैकेनिक है। चमेला कोइलिहाई गाँव में रहती है। एक औरत हो कर मैकेनिक? ये कैसे हो पाया? इस बारे में चमेला कहती हैं, पहले मैंने कभी पढ़ाई के बारे में नहीं सोचा था लेकिन अब जब हैंडपंप का काम करने लगी तब मुझे लगा कि पढ़ना चाहिये। मेरे काम के बारे में सुन कर मेरे पति ने कहा था कि आदमी भारी काम कर लेते हैं, तुम औरत हो कर कैसे कर पाओगी। तब मैंने सोचा कि जब मैं खेत से 12-12 बंडल और करीब 75 किलोग्राम उठा लेती हूँ तो क्या बाकी नहीं उठा पाऊँगी। तब मैंने देखा कि हमारे यहाँ पानी की समस्या हमेशा बनी रहती हैं और हैंडपंप हमेशा ख़राब रहते हैं क्यों न मैं इनको ठीक करना सीख लूँ, कम से कम हमें पानी का तो आराम मिलेगा। नहीं तो, हमें पानी के लिए कोसों दूर जाना पड़ता है।

इसके बाद चमेला ने पढ़ना-लिखना भी शुरू किया और उससे उनकी जिंदगी में बहुत कुछ बदला। चमेला कहती हैं, मुझे अब पता लगता है कि कब क्या समय हो रहा है, मैंने ये भी जाना कि कैसे पानी भाप बन कर उड़ जाता है और कैसे बारिश बन कर बरसता है। मुझे ये भी पता लगा कि ये सूरज और पृथ्वी घुमती है। पहले हमें लगता था कि ये सूरज घूमता है लेकिन अब पता लगा कि पृथ्वी घुमती थी न कि सूरज ।

जरा सोचिये, जहाँ दलितों का दिया पानी ऊँची जाति के लोग नहीं पीते वहां एक दलित औरत के हैंडपंप मैकेनिक बनने से क्या बदला होगा? चेमला बताती हैं कि लोग कहते थे कि ये छोटी जाति की औरत कैसे हैंडपंप बनाना जानेगी, ये तो गौबर उठाने वाली हैं…तब मैंने भावरी जा कर हैंडपंप बनाया, जहाँ वो पंप प्रधान के घर के पास लगा था जिसकी हालत बेहद खस्ता थी। वहां मल-मूत्र भी इक्कठा किया हुआ था। वहां की ब्राह्मण ने कहा, ए सुनो, तुम हमारा हैंडपंप नहीं छुओगी, तुम कोली चमार हो…वो हैंडपंप चार-पांच से खराब पड़ा था और जब मैंने उस पंप को ठीक कर दिया था, तब ब्राह्मण आई और मैंने कहा- आपके घर आँगन से ज्यादा हमारे घर अधिक साफ-सुधरे रहते हैं… तब उन्होंने देखा कि मैंने हैंडपंप बना दिया है तो वो बोली- अरे, तुम भी पंप बना लेती हो…

बस, जब मैंने उस गाँव में पंप बना दिया, उसके बाद से सारे गाँव वालों को यकीं हो गया कि औरतें भी नल बना लेती हैं। आज हम ही हैं चित्रकूट, मानिकपुर की हैंडपंप बनाने वाली एक मात्र महिला।

मिलिए, लकड़ी काटने वाली डोडामाफ़ी की सबला से जो लकड़ी काटने का काम करती हैं। ये सोचने की बात है कि चित्रकूट के मानिकपुर के जंगलों में सक्रिय डकैतों के बीच कैसे एक महिला लकड़ी काटने के लिए जंगलों में विचरण करती होगी।

सबला कहती हैं, इन डकैतों ने मेरी जमीन हड़प ली, क्या करती डर गई थी। पति परदेस थे और यहाँ मैं और मेरी बेटी…पढ़ी-लिखी भी नहीं थी तब। अब जब मैंने पढ़ना-लिखना सीख लिया तब मैं किसी से नहीं डरती। मैंने अपने बच्चों के साथ थाने में जब रिपोर्ट लिखाना चाही तब पुलिसवाले ने कहा- तुम औरत हो यहाँ कहाँ आ गयी हो, अभी महिला पुलिस को बुला कर तुमको बंद करता हूँ…तब मैंने कहा- ठीक है , चलो बंद करो…क्या तुम ये कहना चाहते हो कि कानून आदमी के लिए है औरत के लिए नहीं…बुला दो जिसको बुलाना है, मैं कानून जानती हूँ और मैं किसी से नहीं डरती। तब दरोगा बोला- क्या तुम पढ़ी-लिखी हो? डरती नहीं हो, दिल्ली की भाषा बोल रही हो…मैंने कहा- दिल्ली की भाषा नहीं, शुद्ध हिंदी बोल रही हूँ, क्या जब नारे लगाउंगी तभी समझोगे कि पढ़ी लिखी हूँ… तब दरोगा ने मेरे कंधे पर हाथों से थपथपाते हुए, शाबासी के लहजे से कहा- अच्छा, तो तुम पढ़ी-लिखी हो… मैंने कहा- पढ़ी-लिखी नहीं हूँ लेकिन हां, कुछ पढ़ी जरुर हूँ।

मिलिए, तीसरी बहादुर महिला संजो से जो गिदुरहा गाँव की पूर्व प्रधान रह चुकी हैं। संजो को एक बार देख कर आप चौंक जायेंगे कि क्या ये महिला है! संजो छोटे बालों में, कुर्ता पजामा पहने, बिल्कुल मर्दों वाले लहजे में जीती हैं। उनका रुतबा, उनकी हिम्मत देख गाँव की बाकी महिलाएं उन्हें अपना आदर्श मानती हैं।

संजो का ज़ज्बा ही है जो उन्होंने कड़े संघर्ष के बीच, बड़ी उम्र में पढ़ाई-लिखाई की।आज वो गाँव के कल्याण में लगी हुई हैं लोग उनसे सलाह-मशवरा करने आते हैं। संजो बाइक चलाती हैं और अपने सफर के बारे में बताते हुए कहती हैं कि हम नहीं जान पाते थे कि हमारा नाम कैसे लिखा जाता है, कैसे हम उसे पहचाने अगर वो कहीं लिखा है, कोई जब पुकारता था, तभी हम समझ पाते थे कि संजो हमारा नाम है। लेकिन अब पढ़ना सीख लेने के बाद, हम अपना नाम खुद लिख लेते हैं, लिखा हुआ पढ़ लेते हैं और दुसरे का नाम भी लिख लेते हैं। मुझे गणित पसंद है, दूकान में काम किया था इसलिए भी मुझे  कोई हिसाब-किताब में मुर्ख नहीं बना सकता।

उन्होंने अपने पहनावे और स्टाइल के बारे में बताते हुए कहा, मैंने चुनाव लड़ा था इसलिए भी कुर्ता-पजामा पहनना शुरू किया था और मुझसे चोटी नहीं होती थी और सबसे बड़ी बात ये थी कि मुझे डर था कि अगर कभी कोई झगड़ा करेगा तो मेरे बालों को पकड़ कर ही मरेगा इसलिए मैंने अपने बाल बिल्कुल छोटे करवा लिए।

वो आगे कहती हैं, मेरे पास कई महिलाएं आती हैं कि उनके पति उनको मारते हैं, उनके साथ बुरा व्यवहार करते हैं। मैंने ये बात लोगों को समझायी और बताया कि महिला हो या पुरुष दोनों की अपनी जिंदगी है और दोनों को ही जीने का हक़ है, ये बात भी सही है कि दोनों गाड़ी के दो पहियों की तरह हैं जिन्हें आपस में समझदारी के साथ चलना चाहिए लेकिन मर्द कभी औरत को अपने से कम न समझे।

मुझे पढ़ने से ये बल मिला कि हम अपने आप खा-कमा सकते हैं, अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं। पढ़ाई भी तो एक तपस्या ही है, अगर मैंने महिला समाख्या में जा कर पढ़ाई लिखाई नहीं की होती तो आज मैं ये सब नहीं कर पाती। लोग अंगूठा छाप को प्रधान नहीं बनाते इसलिए पढ़ना सबसे जरुरी है।

चमेला, सबला और संजो उन दलित महिलाओं में से एक हैं जिन्होंने अपना सफर बड़ी उम्र में शुरू किया। अटक अटक कर पढ़ने से लेकर, अपना नाम लिख और पढ़ पाने तक इन तीनों महिलाओं ने अपनी हिम्मत और ज़ज्बे के कारण आने वाले समय में दलित इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया है।

Published on Apr 30, 2018