खबर लहरिया Blog ‘दलित हो तो गंदा काम तुम ही करोगे, जैसे तुम्हारे पूर्वज करते आये हैं’ – Human Rights Day 2023

‘दलित हो तो गंदा काम तुम ही करोगे, जैसे तुम्हारे पूर्वज करते आये हैं’ – Human Rights Day 2023

दलित हूँ तो गंदा काम हमसे ही कराया जाता है। गंदे कपड़े धोना, मरे हुए जानवरों को फेंकने का काम, पूरे गांव में झाड़ू लगाना। हमें बार-बार यह याद दिलाया जाता है कि तुम लोग इसी काम के लिए बने हो। इसलिए तुम्हें गांव में रखा जाता है।

you are a Dalit, you will do all the dirty work, like your ancestors have been doing, Human Rights Day 2023

मानवाधिकार, यानी मनुष्यों को मिलने वाले अधिकार जिसे लेकर हर साल 10 दिसंबर को ‘विश्व मानवाधिकार दिवस’ यानी Human Rights Day 2023 मनाया जाता है। इस साल विश्व मानवाधिकार दिवस की थीम “Freedom, Equality and Justice for All”/ सभी के लिए स्वतंत्रता, समानता और न्याय” है।

जब हम भारत में व यहां रहने वाले लोगों को लेकर इन अधिकारों की बात करते हैं तो यह अधिकार व्यक्ति की सामाजिक पहचान, लिंग,जाति,स्थान इत्यादि जगहों पर टकराते हुए दिखते हैं, जहां अंततः इन सब चीज़ों की वजह से समाज एक व्यक्ति को उसके अधिकारों से वंचित कर देता है या ये कहें कि उन्हें उनके अधिकारों के बारे में पता ही नहीं लगने देता। अगर उन्हें पता भी हो, तो समाज यह कहकर उनसे उनके अधिकार छीनता रहता है कि ये अधिकार तुम्हारा नहीं है क्योंकि वे इस विशेष जगह,जाति या पहचान से नहीं आते। तुम्हारा काम वो है जिसे समाज में गंदा कहा जाता है, जिससे तुम पीछे नहीं हट सकते।

यह कहानी, जो एक दलित महिला के इर्द-गिर्द घूमती है और बताती है कि किस तरह से समाज उन्हें उनके अधिकार होने के बावजूद भी स्वतंत्रता, समानता और न्याय के अधिकार से दूर रखता है। इतना ही नहीं उसे प्रताड़ित करता है और बार-बार यह याद दिलाया जाता है कि ‘तुम तो मनुष्य भी नहीं हो’ फिर मानव को मिलने वाले अधिकार तुम्हें कैसे मिल जाए।

‘तुम इसी काम के लिए बने हो’

“दलित हूँ तो गंदा काम हमसे ही कराया जाता है। गंदे कपड़े धोना, मरे हुए जानवरों को फेंकने का काम, पूरे गांव में झाड़ू लगाना। हमें बार-बार यह याद दिलाया जाता है कि तुम लोग इसी काम के लिए बने हो। इसलिए तुम्हें गांव में रखा जाता है।” – छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में रहने वाली बुज़ुर्ग महिला फूलवती (बदला हुआ नाम) कहती हैं। समाज द्वारा दलित समुदाय पर थोपे गए कामों को करते हुए उन्हें 40 से 45 साल बीत चुके हैं।

फूलवती बताती हैं, उनसे पहले उनकी सास गांव में वही सारा काम किया करती थी जो उनके पूर्वज करते थे। नवजात शिशु से लेकर उसकी माँ की मालिश करना, डिलीवरी के 5 से 6 महीने बाद तक गंदे कपड़े धोते रहना इत्यादि।

सास के देहांत के बाद अब वही सारा काम करती आ रही हैं। कहतीं, अगर किसी की डिलीवरी दिन में हो या रात के 12 बजे, लोग उन्हें उठाने के लिए आते हैं और उन्हें जाना भी पड़ता है। वह मना नहीं कर सकतीं। उनसे कहा जाता है,

“तुम्हारे पूर्वजो ने यही काम किया है। तुम्हारे बाद तुम्हारी बेटी-बहु भी यही काम करेंगी। अगर नहीं करतीं तो उस स्थिति में गांव में पंचायत को बुलाया जाएगा और उस वक्त गांव से निकाला भी जा सकता है।”

यही वजह है कि मज़बूरी में उन्हें यह काम करना पड़ता है। उनसे कहा जाता है,

“दलितों को गांव में ऐसे ही कामों के लिए रखा जाता है।”

मनचाहा पैसा या वो भी नहीं

फूलवती कहतीं, काम के बदले लोग अपनी मर्ज़ी से मनचाहा रुपया चावल देते थे। काम करने वाली की कोई मर्ज़ी नहीं चलती थी। अभी कुछ साल हुए हैं, अब उन्हें एक हफ्ते में 150 रूपये दिए जाने लगे हैं। कई घर आज भी सिर्फ 50 से 60 रूपये ही देते हैं। ऐसे में यह काम वह कितनी मज़बूरी में कर रही हैं, यह वही जानती हैं।

डिलीवरी के काम में 5 से 6 महीने के बाद उन्हें 500 रूपये दिए जाते हैं जबकि काम ऐसे लिया जाता है मानों एक दिन के 1000 रूपये देते हो। इस दौरान उन्हें सिर्फ कपड़े ही नहीं बल्कि बर्तन भी धोना पड़ता था। कहतीं, अभी इतनी मज़दूरी में कोई ऐसा काम नहीं करना चाहेगा।

“दलित समाज वाले लोग इसे अपना धर्म मानकर पीढ़ियों से करते आ रहे हैं।”

गांव में झाड़ू लगाने के बदले में उन्हें बासी खाना दे दिया जाता था, जिसे लोग पुराने बर्तनों में दूर से ही रख दिया करते थे।

समाज की वजह से है मज़बूरी

फूलवती बताती हैं, जब वह शादी होकर पहली बार आई थीं तो उसके 15 दिन बाद ही उन्हें डिलीवरी का काम करना पड़ा था। फिर रोज़ सुबह गांव में झाड़ू लगाने का काम मिल गया। उनको पता था कि उन्हें यह काम करना पड़ेगा पर यह नहीं पता था कि इतनी जल्दी करना पड़ेगा। वह गांव के साथ-साथ बाज़ार में भी झाड़ू लगाने का काम करतीं जिसका उन्हें सरकार या पंचायत से कोई मज़दूरी नहीं मिलती।

बाज़ार वाले एक-दो सब्ज़ी या 5 रूपये ही देते। उन्हें यह काम करते हुए लगभग 40-45 साल हो गए हैं लेकिन आज तक उनकी मज़दूरी नहीं बढ़ी है। न गांव में इज़्ज़त है। उनके नहाने का घाट भी लोगों से अलग है। पीने का पानी लाने की जगह भी अलग है। इतने सालों में न उनका काम बदला और न दाम बदला। आज तक सिर्फ समाज के डर की वजह से वह इस काम को बिना झिझक व बिना शर्म के करती आई हैं। इसके बदले में लोग उन्हें घृणा भरी नज़रों से देखते हैं।

डिलीवरी के लिए बुलाये जाने पर जब उनकी तबियत खराब होती है तो उनकी जगह उनकी बहु को ज़बरदस्ती बुलाया जाता है। उनकी बहुएं यह काम नहीं करना चाहती। वह भी अपनी बहुओं से ये काम नहीं करवाना चाहतीं इसलिए वह खुद काम पर जाती हैं। उनकी बहुओं का ये काम न करना समाज को चुभता है। आये दिन लोग उनकी बहुओं को ताना देते हुए कहतें हैं,

“तुम सबको यही काम करना पड़ेगा। दलितों को यह काम विरासत में मिला है जिसे वह चाह कर भी नकार नहीं सकतें।”

समाज की यह जाति आधारित प्रताड़ना व व्यक्ति को मनुष्य भी न समझना, उसके द्वारा बनाये गए जाति के सीढ़ीनुमा पैमाने हैं जहां दलित समुदाय को सबसे आखिरी स्थान पर रखा गया है, तिरस्कार की तरह जिसे जब चाहें तब वह बहिष्कृत करते हैं। वहीं जब काम हो तो काम लेने के बाद छुआछूत भी करते हैं। समाज की यह दोहरी अवधारणा हमेशा उसके पक्ष में ही रही है। फूलवती की कहानी और उनके साथ समाज द्वारा की जा रही प्रताड़नाएं पीढ़ियों से चली आ रही है। जो सच्चाई कल की थी, वही सच्चाई आज भी है। अधिकार आज भी बस सामाजिक पहचान के साथ मिलने वाली वह सुलभ चीज़ें हैं जो कभी उन्हें नहीं मिली जो सामान्य तौर पर सबके लिए है।

इस खबर की रिपोर्टिंग गायत्री द्वारा की गई है। 

इलस्ट्रेशन – ज्योत्स्ना सिंह 

 

‘यदि आप हमको सपोर्ट करना चाहते है तो हमारी ग्रामीण नारीवादी स्वतंत्र पत्रकारिता का समर्थन करें और हमारे प्रोडक्ट KL हटके का सब्सक्रिप्शन लें’

If you want to support  our rural fearless feminist Journalism, subscribe to our  premium product KL Hatke