इन गरीब परिवारों की हालत सुधारने के लिए योजनाएं तो हज़ारों बनी लेकिन साल दर साल इन बेसहारा लोगों की स्थिति और बिगड़ती ही जा रही है।
जहाँ एक तरफ भारत को विश्व भर में अपनी परंपराओं, रीति-रिवाज़ों के लिए माना जाता है, वहीँ दूसरी ओर हमारा देश गरीबी, भुखमरी और बेरोज़गारी के लिए भी मशहूर है। जब नेता विश्व भ्रमण पर निकल कर भारत की बढ़ाई कर रहे होते हैं, तब देश की 19 करोड़ आबादी भूखे पेट बैठी होती है। इन गरीब परिवारों की हालत सुधारने के लिए योजनाएं तो हज़ारों बनी लेकिन साल दर साल इन बेसहारा लोगों की स्थिति और बिगड़ती ही जा रही है।
साल 2020 में जब कोरोना महामारी के चलते विश्व भर में लॉकडाउन लगा तो सोशल मीडिया पर हमने देखा कि कैसे विदेशी अपने घरों में सुकून से बैठे हैं और अपने परिवार के साथ समय बिता रहे हैं। लेकिन वहीँ भारत में दृश्य कुछ अलग थे। यहाँ रोज़ाना हृदय को झंझोड़ देने वाली कुछ ऐसी तस्वीरें वायरल हो रही थीं जिसने सरकार और प्रशासन को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया। जब मीलों का सफर पैदल तय कर रहे श्रमिक मज़दूरों का लंबा काफिला दिल्ली, मुंबई, गुजरात से अपने गावों की तरफ वापस लौट रहा था तब उनके चहरे पर मौजूद बेचैनी, आँखों की नमी, प्यास से तड़प रहे बच्चों की चीखें आज भी हमें यह सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि 75 सालों पहले मिली आज़ादी के बाद भी हमारा देश आज तक क्यों गरीबी मिटा नहीं पाया? सवाल तो कई थे लेकिन जवाब एक का भी नहीं।
इन श्रमिक मज़दूरों की गरीबी और बेरोज़गारी का संघर्ष गाँव लौटने के बाद भी ख़तम नहीं हुआ। पिछले डेढ़ सालों में जब-जब बढ़ते कोरोना संक्रमण के चलते सरकार ने आपातकालीन और अनिश्चित काल तक के लिए लॉकडाउन लगाया तब-तब ये मज़दूर वापस से असहाय और लाचार दिखे। हमने उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ ग्रामीण इलाकों में जाकर कुछ ऐसे ही गरीब मज़दूरों से बात करी, जो रोज़गार की तलाश में दर-दर भटक रहे हैं। और इनकी परेशानियों के सामने सरकारी योजनाएं भी साफ़-साफ़ ध्वस्त होती नज़र आ रही हैं।
रोज़ाना बस अड्डे पर जाकर बैठते हैं, लेकिन नहीं मिलता काम-
जिला चित्रकूट के ब्लॉक कर्वी में रहने वाले लोगों का कहना है कि जब से लॉकडाउन लगा है तब से उन्हें कोई भी मज़दूरी नहीं मिली है। जो कि उनकी परेशानी का कारण है। रोज़गार की तलाश में लगभग 500 मज़दूर रोज़ाना बस अड्डे के पास जाकर बैठते हैं। फिर भी लोगों को मज़दूरी नहीं मिल पाती और वह निराश होकर घर वापस लौट जाते हैं। लोगों का कहना है कि रोज़गार ना होने की वजह से बच्चों की पढ़ाई पर भी असर होता है। खान-पान में कमी होती है। वहीं घर में अगर कोई व्यक्ति बीमार है तो वह लोग उसका इलाज भी नहीं करवा पाते हैं। उनके पास कोई भी सरकारी सुविधा नहीं है।
लोग कहते हैं कि यूँ तो सरकार कहती है कि पंजीकरण करने से लाभ मिलेगा। उनके यहां तकरीबन 100 मज़दूरों ने पंजीकरण भी कराया है फिर भी उन्हें कोई फायदा नहीं हुआ है। वह आगे कहते हैं कि जिन कंपनियों में वह पहले काम करते थे, उन्हें वहां से भी निकाल दिया गया। घर वापस आये तो उनके पास खेती के लिए पैसे नहीं थे। ठेकेदारों के यहां काम करते हैं तो वह 500 रूपये की मज़दूरी की जगह सिर्फ 300 रूपये ही देते हैं। जबकि 50 रूपये तो आने-जाने का किराया ही लग जाता है।
जब हमने इस मामले में सुमन सिंह सहायक श्रम आयुक्त अधिकारी से बात की तो वो कहते है कि लोगों को जन सेवा केंद्र में जाकर अपना पंजीकरण कराना चाहिए। उन्हें सरकार की तरफ से लाभ ज़रूर मिलेगा। उन्होंने यह भी बताया कि बाकी कई नयी योजनाएं भी शुरू की गई हैं, जिसकी मदद से जल्द ही सभी मज़दूरों को इसका लाभ मिलेगा।
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जब वापस पलायन करने का सोचा, तब महामारी के खतरे ने घर बैठा दिया-
उधर मध्य प्रदेश में भी 2021 के फ़रवरी महीने में कोरोना का खतरा तो कम हुआ था लेकिन मज़दूरों की परेशानियां नहीं। टीकमगढ़ ज़िले के ब्लॉक जमनी खेड़ा के गाँव बड़ा गाँव के ज़्यादातर मज़दूर परिवारों ने फरवरी, मार्च का महीना मटर, गेहूं, मसूर की कटाई करके निकाला। इन लोगों का कहना था कि गाँव में कोई और दूसरा व्यवसाय नहीं बचा है, इससे पहले ये लोग बाहर काम करते थे। दिल्ली जैसे बड़े शहरों में ये सभी लोग चिनाई का काम करते थे और वहां पर इन्हें 300 रूपए प्रतिदिन मिलते थे। यह लोग हर महीने 8-9 हज़ार रूपए के करीब तो कमा ही लेते थे। लेकिन पिछले साल लगे लॉकडाउन के बाद ये लोग घर लौटने को मजबूर हो गए और अब हाल यह कि इनके मालिक ने इन्हें वापस लौटने से भी मना कर दिया है।
आर्थिक तंगी से जूझ रहे इन परिवारों के पास न ही खेती है न ज़मीनें हैं, ये लोग करें भी तो क्या करें। या तो मज़दूरी करें या धान कुटाई करें। इनके बच्चे भी गरीबी होने के कारण पढ़ लिख नहीं पा रहे हैं। और क्यूंकि इन्हें एक जगह से दूसरी जगह पलायन करते रहना पड़ता है, इसलिए इनके बच्चों का भविष्य भी दांव पर लगा हुआ है। मार्च भर इन मज़दूरों ने खेतों की कुटाई की और थोड़ा बहुत कमा कर जब इन लोगों ने वापस बड़े शहरों की और पलायन करने का सोचा तब कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने देश भर में आतंक मचा दिया। इन परिवारों की मानें तो अगर कोरोना से नहीं तो ये लोग भुखमरी से दम तोड़ देंगे।
बंधुआ मज़दूरी ने तोड़ दिया कुछ भी करने का हौसला-
7 महीने पहले मज़दूरों से जुड़ा एक और वाक्या सामने आया था जहाँ लगभग दो दर्जन मज़दूरों को बंधुआ मुक्ति मोर्चा ने प्रशासन की मदद के साथ ईंट भट्ठे से मुक्त कराया था। घटना 7 दिसंबर 2020 की है जब बांदा ज़िले के ब्लॉक कमासिन के रहने वाले कुछ मजदूरों ने बंधुवा मुक्ति मोर्चा को फोन करके सूचना दी थी कि उन्हें तथा उसके साथियों को अजमेर शहर के समीप पंचशील नगर स्थित भारत नाम के ईंट भट्ठे पर काम करवाने के लिए पांच परिवारों को बंधक बनाकर रखा गया है जिसमें 4 महिलाएं, 11 पुरुष और 6 बच्चे शामिल थे। मजदूरों का आरोप था कि लगभग तीन महीने तक खाने पीने रहने की समस्याओं का सामना करने के साथ ही इन लोगों की मज़दूरी भी मार ली गई थी।
1 मई को मनाए जाने वाले मज़दूर दिवस के अवसर पर हमने इन्हीं मज़दूरों से बात करी और इन लोगों की आपबीती ने हमारे साथ-साथ हमारे दर्शकों को भी सकते में डाल दिया। जब हम कमासिन ब्लाक के अंतर्गत ग्राम पंचायत इंगुवा, मजरा झन्ना का पुरवा पहुंचे, तब बातचीत के दौरान इन मज़दूरों के आंसू निकल आए। बंधुआ मजदूर बनाए जाने का डर अभी भी ये लोग झेल रहे हैं। इनकी सुनवाई करने लेने वाला न प्रशासन है और न ही संगठन।
मुक्त कराए गए मज़दूर मनोज ने बताया कि उन्होंने दो बार श्रम विभाग में कागज़ात जमा कराए लेकिन अबतक कोई कार्यवाही नहीं हुई। उन्होंने बंधुवा मजदूर संगठन को कई बार फोन भी किया पर फिर भी कुछ नहीं हुआ। दबी जुबान में मनोज ने यह भी बताया कि लाभ पाने के लिए कई मज़दूरों ने मिलकर संगठन को सुविधा शुल्क के नाम पर पांच हज़ार भी दिए, फिर भी कोई सुनाई नहीं हुई।
बंधुआ मजदूरी के डर के चलते वह अपने परिवार को घर में ही छोड़कर पास के बड़े शहर इलाहाबाद भी गए और वहां मजदूरी का काम शुरू किया। उन्होंने बताया कि वो दिन भर बेलदारी का काम करते थे और कचहरी परिसर में सोते थे। लेकिन हफ्ते भर बाद ही काम न मिलने के चलते वो घर वापस लौट आए। वह बात करते करते भावुक हो गए-“हम मजदूर हैं। साफ सुथरे कैसे रह सकते हैं। हमारे कपड़े मैले कुचैले रहते हैं। पसीने की बू आती है। शरीर में धूल मिट्टी सीमेंट लगी रहती है। इसलिए कोरोना के चलते हमको काम नहीं दिया जाता।”
इसी तरह से संदीपा ने हमें बताया कि वह लगभग बारह साल से ईंट भट्ठा का काम करती आ रही हैं। ऐसी स्थिति कभी नहीं हुई कि उन्होंने अपने आपको लाचार महसूस किया हो। फ़िलहाल उनके पास कोई रोज़गार नहीं है और वो काम की तलाश में इधर-उधर भटक रही हैं। उनका कहना था कि वो कुछ दिन फसल कटाई की मजदूरी कर लेती हैं, और जैसे-तैसे घर खर्च निकलती हैं। संदीपा के परिवार के पास राशन कार्ड भी नहीं है जिसकी मदद से वो मुफ्त अनाज पा सकें।
इस बारे में श्रम प्रवर्तन अधिकारी महेंद्र कुमार ने बताया कि मज़दूरों को सभी योजनओं का लाभ मिलना चाहिए और जिन लोगों को यह लाभ नहीं मिल रहा है वो उसका पता लगाएंगे और उचित कार्यवाही करवाएंगे।
अजमेर में हुआ यह मामला यह साफ़ दर्शाता है कि सरकार और प्रशासन के साथ-साथ हमारे जैसी आम जनता भी मज़दूरों के साथ कैसा व्यवहार करती है। इन लाचार गरीब लोगों को बंधुआ बनाकर उनसे काम कराना कहाँ का इंसाफ है? और दुःख की बात तो यह है कि प्रशासन भी ऐसे मामलों पर हाँथ पर हाँथ धरे बैठा होता है, और इन लोगों को सिर्फ योजनाओं का लाभ दिलाने के सपने दिखाकर भूल जाता है। हमारे देश के मज़दूर और कितना सहेंगे? अपने बच्चों को दो वक़्त की रोटी खिलाने के लिए वो और कब तक दर-दर की ठोकरें खाएंगे ? क्या उनकी गलती सिर्फ यह है कि वो गरीब हैं? आखिर कब सरकार इन लोगों को न्याय और रोज़गार दिलाने के लिए कोई कदम उठाएगी ?
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ललितपुर : लगभग 50 मजदूरों को नहीं मिली साल भर पहले की मजदूरी, दर-दर की खा रहें ठोकर
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