दशरथ पुरवा गांव की मैना बताती हैं कि “लड़कियों और महिलाओं का सबसे पसंदीदा खेलों में से एक होता था गुट्टा। इस खेल को खेलने के लिए महिलाओं और लड़कियों को घर से बाहर जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी।” महिलाओं और लड़िकियों को घर छोड़कर बाहर जाने की अनुमति नहीं होती। उनका दायरा बस घर की चौखट तक ही था इसलिए वो इस खेल को घर के बाहर खेला करती थी या तो जब वो खेत में जाया करती थी या फिर वह चूल्हे के लिए लकड़ियां चुनने जाती थीं। उनके पास बस यही तो समय था जहां वह सिर्फ अपनी बाकी महिला मित्र के साथ समय बिताती थीं। जब एक साथ होते हैं तो खेलने में मजा आता है और जितने ज्यादा लोग उतना ज्यादा खेल रोमांचक लगता है।
रिपोर्ट – गीता देवी
महिलाओं पर काम का इतना बोझ होता है कि उन्हें फुर्सत ही नहीं कि वो अपनी ख़ुशी के लिए कुछ करें। कुछ महिलाएं ऐसी होती हैं जो अपने मनोरंजन और खुश रहने का जरिया खोज निकालती हैं। वे अपनी सहेली संग बैठ के बतियाती हैं तो कुछ किसी खेल के माध्यम से अपने बचपने को जीवित रखती हैं। ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं अपने व्यस्त जीवन से कुछ समय निकालकर खेल खेलती हैं ताकि वो भी थोड़ा हंस-बोल लें। हम बात करेंगे ऐसे खेल कि जो आज के समय में खो गया है और वो खेल है गुट्टे का, जिसे कहीं-कहीं गिट्टे, छोटे-छोटे पत्थर का खेल के नाम से भी जानते हैं।
सावन का महीना चल रहा है तो सावन के महीने में पहले समय में महिलाएं खूब दोपहर के समय गुट्टे खेलती थीं। गुट्टे यानी पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े। गुट्टे संख्या में 5 होते हैं जिन्हें उछाल कर हाथ से पकड़ना होता है और इसमें कई पड़ाव भी शामिल होते हैं। बुंदेलखंड की बात करें तो सावन के महीने का महिलाएं बेसब्री से इंतजार करती थीं, क्योंकि वही एक समय होता था जहां पर ना तो खेती किसानी का ज्यादा काम होता था और ना घर का। महिलाएं और लड़कियां दोपहर के समय बैठकर गुट्टा खेला करती थी, लेकिन आधुनिक खेलों की चकाचौंध के आगे हमारे परम्परागत ग्रामीण खेल तेजी के साथ लुप्त होते जा रहे हैं।
ग्रामीण महिलाओं और लड़कियों का सबसे पसंदीदा खेल था गुट्टा
दशरथ पुरवा गांव की मैना बताती हैं कि “लड़कियों और महिलाओं का सबसे पसंदीदा खेलों में से एक होता था गुट्टा। इस खेल को खेलने के लिए महिलाओं और लड़कियों को घर से बाहर जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी।” महिलाओं और लड़िकियों को घर छोड़कर बाहर जाने की अनुमति नहीं होती। उनका दायरा बस घर की चौखट तक ही था इसलिए वो इस खेल को घर के बाहर खेला करती थी या तो जब वो खेत में जाया करती थी या फिर वह चूल्हे के लिए लकड़ियां चुनने जाती थीं। उनके पास बस यही तो समय था जहां वह सिर्फ अपनी बाकी महिला मित्र के साथ समय बिताती थीं। जब एक साथ होते हैं तो खेलने में मजा आता है और जितने ज्यादा लोग उतना ज्यादा खेल रोमांचक लगता है।
गुट्टा खेल खेलने की प्रक्रिया
पत्थर या ईंटों के गोल टुकड़े वाले गुट्टे होते थे जो लड़कियां नदी से ले आती थीं या फिर पत्थर से तोड़ के छोटे-छोटे बना लेती थीं। महिलाएं या लड़कियां फिर एक साथ 4 से 6 लोग बैठकर दो या तीन लोगों की टीम बनाकर खेला करते थे। इस खेल में पत्थर के एक टुकड़े को ऊपर हवा में उछालना होता है, उसके नीचे आने तक दूसरे टुकड़े को हाथ में उठाना होता है। इस खेल में बहुत फुर्ती चाहिए होती है, क्योंकि हवा में उछलने वाले गुट्टे के नीचे गिरते ही दूसरे गुट्टे को उठाना होता है। इस खेल की अलग-अलग प्रक्रिया होती हैं। इस खेल से हाथों की कसरत भी अच्छी हो जाती है।
पुराने जमाने के खेल हो रहे हैं विलुप्त
ये सच है कि वक्त के साथ दुनिया बदलती है, विकास होता है, हमारी सोच और आदतें बदलती हैं, प्राथमिकताएं बदलती हैं, लेकिन इन बदली हुई प्राथमिकताओं में कई बार हमसे वो चीज़ें पीछे छूट जाती हैं जो कभी हमारी ज़िंदगी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करती थीं। जैसे सावन में गुट्टे खेलना जिनके साथ हम बड़े हुए हैं। पुराने खेलों की जगह अब मोबाइल, वीडियो गेम, कंप्यूटर ने ले ली है। जो कुछ कमी बची थी वो मोबाइल गेम ने ले ली है। अब पुराने विलुप्त होते खेल को देखकर तो ऐसा लगता है कि हमारे पुराने खेल कहीं इतिहास के पन्नों में न दर्ज हो जाएं। हमारी आने वाली पीढ़ी इसे सिर्फ कागजों में खोजती रह जाए लेकिन हकीकत में अपनी पुरानी परंपरा को पहचान ही ना पाए कि हमारे यहां गुट्टे कैसे खेले जाते थे और किस तरह का मजा आता था। जब चार-छह लोग एक साथ बैठकर खेलते थे।
आज भी बचपन की याद दिलाते हैं ये खेल
गीता कहती हैं कि, “मैं छोटी थी तो हमारे मोहल्ले में मेरी हम उम्र की कम से कम 6 से 7 लड़कियां थी। हम लोग पूरे साल सावन का इंतजार करते थे। सावन शुरू होने के एक हफ्ते पहले हम लोग गुट्टे खोज कर एक झोले में भर के रख लेते थे। जिस दिन सावन शुरू होता था। सुबह से ही इतना उत्साह होता था कि एक दूसरे के घर में सहेलियों से सुबह ही प्लान कर लेते थे कि आज से सावन शुरू हो गया जल्दी से कम कर लेना दोपहर में गुट्टा खेलेंगे। दोपहर में 1:00 से गुट्टा खेलने के लिए बैठते थे तो 4:00 बजे ही उठते थे। बहुत ही मजा आता था कोई पांच गुटों से पंचा खेलता था तो कोई भीड़ में बहुत सारे गुट्टे लेकर के गुइयां बजूल खेलते थे। कई बार तो उल्टा गुट्टा खेलते थे उल्टा लोकने वाला।”
वह आगे उन पलों को याद करती हुई कहती हैं कि, “पहले सावन के महीने में हर घर में गुट्टा खेले जाते थे। छोटे बच्चों की टोली अलग होती थी और महिलाओं, बड़ी लड़कियों की अलग। अब लगभग 10 सालों से मैंने यह देखा है कि शहर तो दूर गांव में भी लोग बहुत कम ही गुट्टा खेलते नजर आएंगे। अब सावन का महीना पहले जैसा हर्षोल्लास वाला रह ही नहीं गया, ना ही गुट्टे के खेल को कोई महत्व देता है। अब जब भी सावन शुरू होता है, मुझे अपना बचपन याद आता है। हम लोग कैसे गुटों के लिए नदी, तालाब, बारिश में, बारिश के पानी के बहाव में गुट्टे ढूंढते थे। दोपहर में जितनी देर गुट्टा खेलते थे बहुत ज्यादा हंसते थे, बातें करते थे हंसी के मारे पेट फूल जाता था। कई बार तो महिलाएं गुट्टा खेलते समय सावन के गाने भी गाती थीं। हार जीत तो लगी रहती थी जो टीम हार जाती थी, उसको चिढ़ाते थे। आज वह सब बस यादों में कैद होकर रह गया है।”
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