आज मुझे अपने ससुराल की सहेलियां बहुत याद आ रही हैं जो रिश्ते में देवरानी, जेठानी, सास और ननद लगती हैं। करीब बीस साल पहले की बात है। जब मैं इन सहेलियों के साथ चांदनी रात में कबड्डी खेला करती थी। हमारी जीत-हार का फैसला करने के लिए मेरी सास एक ऊंचे चबूतरे पर बैठ जाती थीं और वहीं से अपना निर्णय सुनाती थीं। उनके फैसले को सबको मानना पड़ता था। आज मायूस हो जाती हूं जब उनकी याद आती है क्योंकि वह अब इस दुनिया में नहीं हैं। अब वह मजा कहां और इतनी फुर्सत भी कहां क्योंकि अब शहर में जो रह रही हूं।
मैं अपने ससुराल तीसरी बार गई हुई थी, स्कूल की गर्मियों की छुट्टियो में। अपनी सास के फूहड़पन की कहानियां अपनी ससुराल की सहेलियों से सुनती थी। मुझे उनसे बहुत डर लगता था लेकिन वह दिल की बहुत अच्छी थीं। प्यार बहुत था उनमें। जब मैं ससुराल आती तो काठ (लकड़ी) के बड़े बक्से से निकालकर पकवान, मिठाईयां देती थीं। चाहे वह रखे-रखे खराब क्यों न हो जाएं। मैं न ज़्यादा उनसे बात करती और न ही उनके सामने जाती। रात को रोज़ उनको कई महिलाएं घेरकर बैठ जातीं, पर उससे मुझे क्या मतलब।
एक रात खाना बनाते समय मेरी जेठानी आकर चुपके से कान में बोली कि ‘हुडुरूवा’ तुम भी खेलने चलोगी। मुझे खेलना शब्द तो समझ आया लेकिन खेल का नाम नहीं। फिर जेठानी की लड़की बोली कि चाची स्कूल में कबड्डी खेलती हैं न। कबड्डी का नाम सुनते ही जैसे पूरे बदन में करंट फैल गया हो क्योंकि कबड्डी मेरा बहुत ही पसंदीदा खेल है। हम बहुत ज़्यादा खेलते थे।
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प्रतियोगिता में भाग लेते और जीतकर आते रहें हैं। मैं सोच ही रही थी कि उसने फिर बोला कि आज कांटे की टक्कर है महिलाओं के बीच। मैं चाहकर भी हां नहीं बोल पाई। तभी पीछे से मेरी सास की आवाज आती है कि आज तुम्हें भी खेलने चलना है। जल्दी से खाना बनाकर खिला दो। कहतीं, सारे काम फुर्सत करो सब लो। और हाँ, साड़ी अच्छे से बांध लेना। साड़ी पहनकर कबड्डी, बाप रे…! कैसे खेलूंगी….? लेकिन मौका भी नहीं गवाना चाह रही थी।
जब घर के सब बड़े बुजुर्ग लोग सो गए तब हम सब पहुंचे घर के बगल में खाली पड़े खलिहान में। चंद्रमा की चटक रोशनी और टिमटिमाते तारों के नीचे, आहा…बहुत सुकून। हल्की-सी ठंड और खूब सारी मोहल्ले की औरतें। मेरी सास इस खेल की जज थीं जो एक ऊंचे से चबूतरे पर बैठी थीं। मुझे तो अपना स्कूल का खेल का मैदान याद आ रहा था। जज ने महिलाओं को एक लाइन में खड़ा कर दिया और दो लीडर जिनका नाम रानी-राजा रखा गया था लेकिन किसी को पता नहीं था कि रानी कौन और राजा कौन है।
बस सबको रानी-राजा में से एक चुनना था। मैंने रानी चुना क्योंकि रानी से मेरी स्कूल में बहुत टक्कर होती थी। दोनों टीम में करीब 15-15 महिलाएं और लड़कियां टीम में बंट गईं। चप्पलों को रखकर पाला बनाया गया। खेल शुरू हो गया। मैं पूरे खेल में सहमी रही क्योंकि स्कूल के कबड्डी से यह बहुत अलग था। सब कबड्डी बोलने जाने पर हु….डु….डु….डु….डु….डु….डु….बोल रही थीं। कोई शायरी पढ़े,‘तोरे पिछवाड़े खंभा, तोरे सास लईगा लम्भा।’ सुनने में अच्छे लग रहे थे लेकिन बहुत हंसी आ रही थी और सास का डर भी। हंसने पर बल ही टूट जाता। मैं कबड्डी बोलने गई तो कबड्डी…कबड्डी बोलने पर सब हंसने लगें। लग रहा था कि मैं न खेल पाउंगी, अपने को कम्फर्टेबले नहीं महसूस करा पा रही थी। जज कह रही थीं कि यह खेल नहीं पाती। अगर ऐसे ही खेलोगी तो तुम न आया करो लेकिन मुझे खेलना था।
अब हम रोज कबड्डी खेलने जाने लगे। शाम होते ही प्लानिंग शुरू हो जाती थी। जल्दी से खाना-पीना करके पहुंच जाते खेल मैदान। हमारी जज अपनी पान वीणा की टोकरी और सरौता लेकर बैठ जातीं और सुपाड़ी कतरते हुए बात करती रहतीं और सबको पान खिलाती क्योंकि वह खुद इतना खाती थीं। रोज खेलने आने पर मेरी खिलाड़ी सहेलियों और जज से दोस्ती होने लगी। अब मैं भी उनके तौर-तरीके सीख चुकी थी और कबड्डी बोलना भी।
यह लेख मीरा देवी द्वारा लिखा व इसका संपादन संध्या द्वारा किया गया है।
इलस्ट्रेशन – ज्योत्स्ना सिंह
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