खबर लहरिया Blog महिलाओं को स्वास्थ्य सुविधा के लिए गुजरना पड़ता है जातिगत-हिंसात्मक व्यवहार से – “खुद से पूछें ” अभियान कर रहा जागरूक

महिलाओं को स्वास्थ्य सुविधा के लिए गुजरना पड़ता है जातिगत-हिंसात्मक व्यवहार से – “खुद से पूछें ” अभियान कर रहा जागरूक

महिलाओं के नाम पर चलने वाली सत्ता, अभियान और योजनाओं के बाद भी महिलाओं पर होता उत्पीड़न कम नहीं हुआ है। ग्रामीण हो या शहरी क्षेत्र, महिलाओं को स्वास्थ्य सुविधाओं के समय अपमान, भेदभाव और जातिगत हिंसा से गुज़रना पड़ता है।

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जाति, धर्म, वर्ग, भेदभाव और समाज में ओहदा, पहचान आज भी समाज को बांधे हुए है। वहीं जो आज तक इन सारी चीज़ों की प्रताड़ना उठाती आ रही हैं, वह हैं महिलाएं। यूँ तो कभी महिलाओं की ज़रूरतों को उतनी एहमियत नहीं मिली जितनी की उन्हें मिलनी चाहिए लेकिन जैसे-जैसे देश का विकास हुआ, महिलाऐं खुद के लिए लड़ीं और अपना हक़ पाया। समाज में अपना एक स्थान, हर क्षेत्र में काम करने और अपने अनुसार जीवन जीने की आज़ादी का रास्ता चुना। उनकी लड़ाई ने उन्हें यह सब हासिल करने में उनकी मदद की। 

अब बात आती है उनके स्वास्थ्य की। अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर इसमें क्या समस्या आ सकती है ? जी, यहां समस्या और सवाल बहुत है। अब इसमें चाहें हम शहर में रहने वाली महिलाओं की बात कर लें या फिर ग्रामीण क्षेत्रो में रहने वाली महिलाओं की। उनके लिए स्वास्थ्य सुविधाओं को हासिल कर पाना आज भी आसान और सुरक्षित नहीं है। 

यहां सुरक्षा की बात इसलिए की जा रही है क्यूंकि कई जिलों, शहरों, कस्बों के अस्पतालों और क्लीनिकों में स्वास्थ्य सुविधा के दौरान महिलाओं के साथ बदसलूखी की जाती है। जाति, धर्म, वर्ग और गरीब होने की वजह से उनके साथ भेदभाव किया जाता है, उन्हें प्रताड़ित किया जाता है। यहां तक की महिलाओं के परिवार वाले और समाज भी उनके खराब स्वास्थ्य का ज़िम्मेदार होते हैं। जहां हर गलती महिलाओं के सिर थोप दी जाती है। 

गरिमा और सम्मानजनक तरह से स्वास्थ्य सुरक्षा पाना सबका अधिकार है। एक सुरक्षित वातावरण में इलाज कराना और अपमान का अनुभव न करना, यह  हर व्यक्ति के अधिकारों में आता है। लेकिन यह महिलाओं के मामले में देखने को नहीं मिलता। महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य की बात हो या फिर उनके शारीरिक स्वास्थ्य की, कहने को तो आज स्वास्थ्य को अच्छे रखने, इलाज और बीमारियों से निपटने के लिए देश ने बहुत तरक्की कर ली है लेकिन इसके बावजूद भी एक सुकूं जो सेहतमंद रहने के लिए ज़रूरी है, वह महिलाओं को आज भी नहीं मिल पाया है। 

माना अब अस्पताल में नई तकनीके आ गयीं हैं, हर चीज़ की गुणवत्ता भी बढ़ी रही है लेकिन क्या हम यही चीज़ें महिलाओं के मामले में भी कह सकते हैं, नहीं। चाहें वह शहरी क्षेत्र हो या ग्रामीण, अस्पताल में महिलाओं के साथ होते बदसलूखी के मामले तो आपने भी पढ़े और सुनें होंगे। कभी अस्पताल के कर्मचारियों द्वारा तो कभी डॉक्टर द्वारा महिलाओं के साथ अभद्र व्यव्हार किया जाता है तो कभी अश्लील और अपमानजनक हरकतें। इतना ही नहीं, कई बार बेहोशी की हालत में अस्पताल में भर्ती हुई महिलाओं के साथ हुए दुष्कर्म के मामले भी सामने आये हैं। ऐसे में क्या यह कहा जा सकता है कि महिलाओं को सम्मानजनक स्वास्थ्य सुविधाएं दी जा रही हैं? वह सुरक्षित होकर अपना इलाज करा सकती हैं? उन्हें अच्छी गुणवत्ता की स्वास्थ्य सुविधाएँ मुहैया हो रहीं हैं

ऐसे ही कुछ मुद्दे और मामलों के बारे में आज हम बात करने वाले हैं। इन मुद्दों पर “खबर लहरिया” ने भी काफ़ी रिपोर्टिंग की है। मामलों के बारे में बताने से पहले  हम आपको “खुद से पूछें” अभियान के बारे में बताना चाहेंगे। यह अभियान महिलाओं के नेतृत्व में शुरू किया गया है। इसका उद्देश्य बिहार में महिलाओं को गरिमा के साथ देखभालकी असली परिभाषाओं से अवगत करवाना और इसे अपने स्तर पर बेहतर समझना है। साथ ही सम्मानजनक स्वास्थ्य सेवा के बारे में उनकी कहानियों और अनुभवों को आवाज़ देना है। यह एक सहभागी अभियान है, जिसके माध्यम से महिलाएं खुलकर बात करना, मानना और कमी को समझना और जान पाएँगी। हम इनके द्वारा कवर की गयी कुछ स्टोरीज़ आपके साथ शेयर कर रहे हैं। 

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महिलाओं ने स्वास्थ्य मामले में खुलकर कही बात 

“खुद से पूछें” अभियान के दौरान बहुत सी महिलाएं सामने निकलकर आईं जिन्होंने खुलकर स्वास्थ्य सुविधा लेने के दौरान उनके साथ हुए दुर्व्यवहारों के बारे में खुलकर बात की। 

मीनू ने बताया, मुझे अब अस्पताल के नाम से भी डर लगता है। जब मेरा प्रसव हो रहा था तब मेरे घर वाले मुझे पटना के एक बड़े अस्पताल में लेकर गए। आधी से ज़्यादा दवाएँ डॉक्टर ने बाहर से लिखी थीं इसीलिए भाई को बार-बार दवाई लेने के लिए अस्पताल से बाहर जाना पड़ रहा था।  पहले डॉक्टर ने देखा, फिर तीन छात्रों की योनि में बार-बार ऊँगली डालकर देखा। मैं दर्द से बेसुध होने की वजह से कुछ बोल नहीं पा रही थी। उस दिन को याद करके आज भी मेरी रूह काँप उठती है। “

रश्मि ने कहा, डिलीवरी के समय पेशेंट दर्द से चिल्ला रही थी। उस समय महिला गाली भी देती हैं, कई तरह की बातें कहती हैं। ऐसे में डॉक्टर कहते हैं कि सोते समय तो बहुत मज़ा आता है पर बच्चा पैदा करते समय दर्द होता है।” 

रौना कहतीं, बोलने में अजीब लग रहा था, डॉक्टर पूछे की पीरियड्स वगैरह आ रहा है तो मैंने कहा नहीं आ रहा है पीरियड। तो डॉक्टर ऊपर से लेकर नीचे तक निहारने लगे, और उस दौरान पूछे कुछ ऐसा वैसा तो नहीं है तो मैंने कहा की ऐसा कुछ नहीं है फिर जो भी वो जांच लिखे। वो जांच मैंने करवाई।”

खुद से पूछें अभियान में ‘प्रिंसेस पी’ की रही महत्वपूर्ण भूमिका 

प्रिंसेस पी एक विज़ुअल आर्टिस्ट हैं जिन्होंने इस अभियान के साथ जुड़कर काम किया है। इस अभियान की एम्बेसडर के तौर पर प्रतिनिधित्व कर रही हैं। मटर के रूप रंग वाले वेश-भूषा के लिए नामचीन प्रिंसेस पी बिना अपनी असल पहचान ज़ाहिर किए हुए लगातार औरतों के मुद्दे पर काम करती आ रही हैं। इस अभियान में प्रिंसेस पी महिलाओं के साथ मिलकर, व्यक्तिगत कहानियों और रचनात्मक अभिव्यक्ति द्वारा समर्थित एक प्रतीक को कपड़े कढ़ाई और पैच-वर्क के द्वारा बनाने की अगुवाई कर रही हैं। जिसे अक्टूबर में पटना शहर में एक विशेष जगह पर आर्ट-इन्स्टालेशन के रूप में प्रदर्शित किया गया।  

प्रिंसेस पी ने कैंपेन चिन्ह के लांच पर कहा,मैंने अधिकतर घरेलू महिलाओं, लघु व्यवसायियों, विकलांग स्त्रियों, वे महिलाएं जो घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं, वे स्त्रियाँ  जिन्हें अपने रूप-रंग के लिए सताया गया हो, और मानसिक परेशानियों से जूझ रही औरतों साथ ही नज़र आने और उनके ग़ायब हो जाने के पैटर्न पर काम किया है। यह एक ख़ास मौक़ा है जब आवश्यक दख़ल को मज़बूती और गरिमा का प्रतीक बनाया जा सकता है।”

महिलाओं के स्वास्थ्य पर खबर लहरिया की रिपोर्टिंग

महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे और उनके हक़ को लेकर खबर लहरिया ने भी काफ़ी रिपोर्टिंग की। खबर लहरिया का एक शो “बोलेंगे बुलवाएंगे, हँस कर सब कह जाएंगे”, जो नाज़नी रिज़वी द्वारा किया जाता है हमेशा उन मुद्दों को नारीवादी चश्मे के साथ सामने लाता है जिस पर आमतौर उतनी गहराई से सोचा नहीं जाता। 

हमारे देश में अगर एक औरत अपने कोख से बच्चे को जन्म नहीं दे पाती तो उसे बाँझ का नाम दे दिया जाता है। वहीं जब बच्चे ज़्यादा होते हैं तो उसका ज़िम्मेदार भी औरतों को कहा जाता है, पुरुषों को नहीं। जब जनसंख्या नियंत्रण की बात होती है तो उसमें पुरुषों के लिए कोई सुझाव नहीं होते हैं। 

गर्भनिरोधक की दवाएं भी महिलाओं के लिए हैं। आशाबहू,एनम, आंगनबाड़ी ये सब महिलाओं को ही जागरूक करती हैं। महिलाओं पर ही दबाव बनाया जाता है। वहीं अगर पति को बच्चा नहीं चाहिए तो पति उसे चुपके से गर्भपात की दवा खिला देता है, जिसमें ज़्यादातर महिलाओं को अपनी जान गवानी पड़ती है। क्या इसे ही महिलाओं के स्वास्थ्य की देखभाल करना कहा जाता है?

हमने चित्रकूट की एक ग्रामीण महिला से पूछा की जब उनके बच्चे हो रहे थे तो दूसरे बच्चे में समय का अंतर होने के लिए उन्होंने कौन सी दवाई खाई थी? वह कहती, कोई सी नहीं खाई। महिला के चार बच्चे हैं, वह इसलिए क्यूंकि उसके परिवार वाले बेटे की उम्मीद कर रहे थे। जब उसके बाद भी बेटा नहीं हुआ तो उन्होंने ऑपरेशन करा लिया। हमने पूछा पति ने क्यों नहीं करवाया ? कहतीं, इसके बाद वह काम नहीं कर पाएंगे। फिर घर कैसे चलेगा ?

जब एक पुरुष से बात की गयी तो वह कहतें, बच्चा न होने के लिए पत्नी ने ऑपरेशन कराया है। वह क्यों करवाएंगे। बच्चे औरत से होते हैं उनसे नहीं। 

– गर्भपात के लिए दवाई लेते हैं तो कई बार चक्कर भी आते हैं, तबयत भी सही नहीं रहती। कमज़ोरी महसूस होती है, रोग भी हो जाता है। 

– एएनएम जब घर पर कंट्रासेप्टिव देने आती हैं तो महिलाएं उसे लेकर रख लेती हैं लेकिन पति को नहीं देती क्यूंकि पति फिर गाली-गलौच करते हैं। एएनएम द्वारा महिलाओं को ही उनके पतियों को कंट्रासेप्टिव देने को कहा जाता है। वह सीधे कंट्रासेप्टिव पुरुषों को नहीं देती। 

आमतौर पर यह भी देखा गया है कि जब नसबंदी के लिए कैंप लगता है तो सिर्फ महिलाएं ही वहां जाती है। पुरुषों के नसबंदी कैंप के समय बस सन्नाटा देखने को मिलता है। ऐसे में क्या स्वास्थ्य विभाग की यह ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि पुरुषों को भी नसबंदी के लिए जागरूक किया जाए?

इसके आलावा खबर लहरिया ने हाउ टू यूज़ एबॉर्शन पिल के साथ मिलकर एक स्टोरी की थी। जिसमें दो महिलाओं ने गर्भपात को लेकर अपनी बात रखी। 

वनांगना संस्था की सूरजकली का कहना था, महिलाओं को गर्भपात या बच्चे को रखने का निर्णय लेने की आज़ादी नहीं है। इन फैसलों में पारिवारिक दबाव एक बड़ी भूमिका निभाता है। आज भी महिलाओं पर लड़के के लिए प्रयास करते रहने का दबाव होता है और भले ही उनके कई बच्चे हो लेकिन परिवार वाले नसबंदी के पक्ष में नहीं होतें। उनको खुल्ला मोहल्ला नहीं मिलता जहां वह विश्वसनीय जानकारी प्राप्त कर सकें। हालांकि, इससे भी बड़ी चिंता यह है कि इन चीज़ों के बारे में बात करने के लिए कोई नहीं है।”

रौशनी (बदला हुआ नाम) ने बताया,मेरे पार्टनर के परिवार वालों ने मुझे डराया-धमकाया और ज़बरदस्ती मेरा गर्भपात कराया। उन्होंने मुझे एक कमरे में बंद कर दिया और ज़बरदस्ती गर्भपात की गोलियां खिलाईं। मेरा गर्भपात होने तक बहुत खून बहा और मैं बहुत दर्द में थी जब मैं अगले दिन अपने घर गयी तो मेरे माता-पिता बहुत डरे हुए थे। उन्होंने मुझे इस बारे में चुप रहने को बोला। गर्भपात के कई दिनों तक मैं दर्द में थी लेकिन अस्पताल नहीं गयी क्यूंकि मुझे डर था कि डॉक्टर को गर्भपात के बारे में पता चल जायेगा। अपने पेट दर्द और सूजन के लिए मैंने मेडिकल की दुकान में उपलब्ध दर्द निवारक दवा खरीदी।”

महिलाओं के स्वास्थ्य का मुद्दा सिर्फ घर, परिवार,धार्मिक, जातिगत तक ही सिमित नहीं है बल्कि इसमें स्वास्थ्य विभाग भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। स्वास्थ्य विभाग द्वारा महिलाओं के परिवार वालों या समाज में जागरूकता के लिए कोई कैंप नहीं लगाया जाता। डॉक्टरों को यह नहीं बताया जाता कि जब एक महिला उनके पास इलाज के लिए आती है तो उन्हें किस तरह का व्यवहार करना चाहिए। पुरुषों को यह नहीं समझाया जाता कि बच्चा होना या न होने की ज़िम्मेदारी उसकी भी है। परिवार या समाज को यह सीख नहीं दी जाती कि हर चीज़ की ज़िम्मेदारी महिला की नहीं है बल्कि उनकी भी है। क्यों इसके लिए कोई कानून या उचित कार्यवाही नहीं होती?

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