मैं खुद को अपने शरीर में तलाशती हूँ। जब भी इसे बेचती हूँ तो खुद का एक हिस्सा अपने खरीददार को सौंप देती हूं। मुझे अपने शरीर को देने में हया नहीं आती क्योंकि मेरी हया ना तो शरीर है। ना ही समाज द्वारा दिया गया कोई पैमाना। मेरा घर चार दीवारों में नहीं है। मैं बाज़ार की सौगात हूँ। मुझे हर निगाह बेअदबी से देखती है पर खुद पर लगी झूठी अदब का मैल हटा नहीं पाती। मुझे किसी निगाह का डर नहीं। मेरा तन मुझे मेरी आत्मा से दूर नहीं लगता। पर हाँ, समाज में रहने वाले नामदार लोगों की आत्मा को मैंने मेरे बाज़ार में लुटते हुए ज़रूर देखा है। वो मुझे, मेरे तन को स्पर्श तो करता है लेकिन मुझे छू नहीं पाता। और वह कहता है कि समाज की लज्जा मुझसे मिटती जा रही है।
लेकिन समाज कभी मेरा था ही नहीं तो उससे मेरा तोल–मोल करना मुझे हास्यप्रद लगता है। मेरी सांसे बाज़ार की मोहताज है, वहीं थिरकती है और वहीं ठहर जाना चाहती है। मेरी दुनिया का बाज़ार मेरे शरीर पर चढ़े मांस से ज़्यादा किसी को और कुछ नहीं देता। और ना मिटाता है समाज के दिये छींटों को। कि ये धब्बे दिखातें हैं कि समाज मे बैठा इंसान कालिख से ज़्यादा कुछ नहीं। कि उसका शरीर खुद मटमैला है और वह मुझे साफ़ होने की नसीहत देता है।
स्त्रोत – मीनल दुसाने
मैंने समाज को बहुत करीब से देखा है। मैं उसमें रहने वाले हर तरह के व्यक्ति को जानती हूं। मैं उसके रूबरू से परिचित हूँ क्योंकि वो हर रात मुझसे मिलने आता है। दबे पांव, छिपते हुए, बिना किसी आहट के। कि कहीं कोई सुन ना ले कि नामी समाज ने मेरे बाज़ार में कदम रखा है। वो भी मेरे शरीर को मैला करने के लिए। पर उसकी छुअन मुझ तक पहुंच नहीं पाती। वो उसका भ्रम है कि उसने मुझे हासिल किया है।
स्त्रोत – मीनल दुसाने
मैंने सुना है कि समाज “औरतों” को इज़्ज़त देने की बात करता है। लेकिन मैंने तो कुछ और ही देखा है। जहां हर दिन कोई लुटता है तो कोई हर पल के साथ खुद के शरीर और उसकी हया को बचाने में मशरूफ़ रहता है। “पर मुझे कुछ बचाना नहीं। मेरा सब कुछ मेरे बाज़ार में बिकने के लिए सामने है। मैं रातों और दूसरे के शरीर को ओढ़ने से नहीं डरती। मुझे बेआबरू होने में हया नहीं आती। मैं लज्जा से बंधी नहीं हूं। मुझे सरेआम लुट जाने का डर नहीं क्योंकि मैं यही हूँ। मैं बाज़ारू हूँ।“
स्त्रोत – मीनल दुसाने
मैंने खुद को तवायफ़ की भूमिका पर रखा है। “पर खुद को वहां रखना और होना, काफ़ी अंतर है। लेकिन फिर भी मैं समाज की हर लज्जा और हया को तोड़ने के लिए तैयार हूं। मैं तैयार हूं उसे जवाब देने को। कहते हैं ना शब्द सबसे ज़्यादा घाव भी देते हैं और मलहम भी लगाते हैं। मैंने भी अपने सवालों और जवाबों को शब्दों की इस कविता में पिरोया है।”
“हां, मैं बाज़ारू हूँ, मुझे रातों की भूख है”
हाँ, मेरी रातें बाज़ार की भूखी हैं,
जिसमें खरीदार तुम ही हो,
रात की चादर ओढ़े तड़पते हुए,
तुम मेरे पास चले आते हो
और मैं तुम्हें मना भी नहीं करती,
क्यों??
क्योंकि मैं बाज़ारू हूँ।
मुझे रातों की भूख है।
तुम रोज़ अलग-2 किरदार के साथ
मेरे दरवाज़े पर दस्तक देते हो
और मैं भी अपनी आत्मा छोड़
तुझे अपना शरीर, सौंपने चली आती हूँ,
तू बड़े आराम से , मुझे हासिल कर लेता है,
मानों,
तूने मुझ पर कोई एहसान किया हो
मेरी हस्ती को मिटा ,
मुझे तवायफ़ बनाने में,
हाँ, मैं बाज़ारू हूँ।
मुझे रातों की भूख है।
तू बड़े आराम से,
अपने रूह को शांत करके,
सुबह का मौसम ओढ़,
घर की रोशनी में निकल जाता है
और फिर भूल कर भी
मेरी गली में नहीं आता।
मैंने सुना है लोग, जहाँ मैं रहती हूँ,
उसे वैश्याओं का कोठा कहते हैं,
तुम भी तो ये बात जानते थे ना
फिर भी इस गली आए,
मुझे मन भर कर तर– बतर किया
और बेहया भी कह गए।
हाँ, मैं बाज़ारू हूँ।
मुझे रातों की भूख है।
मेरे घर की चौखट तुझे, बेआबरु लगती है
तू ही बता दे फिर, किस घर की छत तले
ये मंज़र नहीं होता?
जहाँ समाज वो बाज़ार है, जहाँ खरीदार इंसानियत
और इज़्ज़त का धब्बा लगाए
आत्मा से निचोड़ते हुए
शरीर को खाने आ जाते हैं,
और समाज का बाज़ार,
रोज़ अखबारों को पढ़ते हुए वही काम
अंधेरी निग़ाहों में करता है।
तेरा भी तो घर इन्ही बाज़ारों में आता है ना??
हाँ, मैं बाज़ारू हूँ।
मुझे रातों की भूख है।
अब तू ही मुझे बता,
तेरे आंगन में टूटती पायलों और
साँसों को मैं क्या नाम दूँ??
मेरा रसपान करने वाला समाज यहाँ
खुद को किस नाम से सम्मनित करना सही समझेगा??
अगर, मैं बाज़ारू हूँ, तो तू बाज़ार है
मैं वैश्या तो तू वैश्यापन का मोहताज़ है,
मैं खुद को बेचती हूँ तो तू ही खरीदार है।
हाँ, मैं बाज़ारू हूँ।
मुझे रातों की भूख है।
मुझे भूख है, दो पल निग़ाहों में सुकूं की,
जहाँ मेरा तमाशा देखने और बनाने वाला,
वो रोशनी भरा समाज ना हो,
सिर्फ मैं और मेरी आत्मा का
मुझसे मिलन हो।
तुम जीओ अपने समाज में और
मैं अपने बाज़ार में खुश हूँ।
जो हूँ सामने हूँ,
मेरा बाज़ार तुम्हारे समाज की तरह रंग नहीं बदलता,
हाँ, मैं बाज़ारू हूँ।
मुझे रातों की भूख है,
मुझे अब बस इन रातों में सोने दो-2 ।
कवयित्री – संध्या
“मैं उस समाज का हिस्सा नहीं जो इज़्ज़त का चोला पहने बैठा है। मैं हया, बेशर्मी, बेअदबी और तेरे दिए जाने वाले “वैश्यापन” के लिबास को अपनाती हूँ। पर तुझमें इतना भी गुरुर की नहीं कि तू खुद को आईने में देख सके। “मैं बाज़ार की रोशनी का अंधेरा ही सही, मैं तेरे समाज के धब्बों से लिपटी नहीं हूं।”