जब महिलाओं में कैंसर की पहचान होती है, तो एक सामान्य चिंता का विषय ये होता है कि वे अपनी और परिवार की देख भाल एक साथ कैसे करेंगी? कई बार उन्हें उपेक्षा और अकेलेपन का सामना करना पड़ता है।
लेख – स्वागता यादवार
अनुवादक: श्रृंखला पाण्डेय
यह कहानी पुलित्जर सेंटर द्वारा समर्थित है।
अहमदाबाद, मुंबई और रायपुर: ऐसा कोई पल नहीं होता जब तुलसी सिंह के आसपास उदासी का माहौल हो। वह हमेशा कोशिश करती हैं कि मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल के पास कैंसर मरीजों के लिए बना गाडगे महाराज धर्मशाला की पांचवीं मंजिल जहां महिलाएं रहती हैं, वो हॉल हमेशा बातों और हंसी के ठहाकों से गूंजता रहे।
तुलसी पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी की रहने वाली हैं। उन्होंने बहुत मुश्किल से चौथी कक्षा तक पढ़ाई की। “मैं कई चीज़ों में अच्छी थी लेकिन पढ़ाई उनमें नहीं थी। ये बताते हुए वो मुझे चाय पीने के लिए कहती हैं साथ ही ये भरोसा भी दिलाती हैं कि चाय अच्छी बनी है। वह हंसते हुए कहती हैं, “मैं यहां की बिग बॉस हूं, लोगों को बताती हूं कि क्या करना है और वे सुनते हैं। मैं यह सब सिर्फ इसलिए करती हूं ताकि हर कोई खुश रहें क्योंकि कैंसर को ऐसे ही हराया जा सकता है।” ये बात उन्होंने आधी गंभीरता और आधे मजाक में कही।
तुलसी को जब से पता चला कि उन्हें स्तन कैंसर हैं, वो पिछले आठ महीने से इसी गाडगे हॉल में ही रह रही हैं और अपने पूरे इलाज का सामना उन्होंने अकेले ही किया । 22 साल की उम्र में उनकी शादी हुई, लेकिन कुछ ही महीनों बाद जब उनका बेटा होने वाला था वो अपने मायके लौट आईं और फिर वो अपने पति के घर कभी नहीं गईं क्योंकि उनके और उनके पति के बीच बहुत सारे मतभेद थे जिन्हें सुलझाया नहीं जा सकता था। वह अपने बड़े पापा और बड़ी मम्मी, जो उनके चाचा चाची हैं, के साथ दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी में रहती हैं।
तुलसी उनके घर का काम करती हैं और बदले में वे तुलसी और उनके 15 साल के बेटे की देखभाल करते हैं। टाटा मेमोरियल अस्पताल में हर कीमोथेरेपी सत्र के लिए मरीज के साथ किसी का होना जरूरी है लेकिन तुलसी अकेली हैं, इसलिए वह हॉल में दूसरे देखभालकर्ताओं से अनुरोध करती हैं कि वह उनके साथ चलें। वह बताती हैं कि उन्हें कीमोथेरेपी के साइड इफेक्ट्स का सामना नहीं करना पड़ा और वह आपात स्थिति में किसी भी मरीज को अस्पताल ले जाने के लिए तुरंत तैयार हो जाती हैं।
जब वह पहली बार मुंबई में टाटा मेमोरियल अस्पताल में इलाज कराने आईं तो उनकी चचेरी बहन भी उनके साथ आई थी, लेकिन 20 दिन बाद वह वापस चली गई। बाद में उनका भाई आया लेकिन उसकी शिकायत थी कि तुलसी ने उसकी जिंदगी बर्बाद कर दी है। उसने कहा कि तुलसी ने इलाज के दौरान उसे साथ रहने के लिए कहा था। इसलिए तुलसी ने उसे वापस भेज दिया। तुलसी ने कहा अकेले रहना ही बेहतर था, खासकर जब वह शहर में अपना रास्ता ख़ुद ढूंढ सकती थीं।
प्रायः महिलाएं ही अपने परिवार की देखभाल करती हैं, वह अपने परिवार की प्राथमिक देखभालकर्ता होती हैं, लेकिन जब वे कैंसर जैसी बीमारी का सामना करती हैं तो इस शर्म और संकोच में रहती हैं कि वो अपने परिवार पर बोझ बनती जा रही हैं। घर के कामों– खाना बनाना, सफाई करना, बच्चों की परवरिश और बुजुर्गों की देखभाल में दिन रात एक करने के बावजूद कई कैंसर पीड़ित महिलाएं अपने परिवारों द्वारा उपेक्षा और परित्याग का सामना करती हैं।
जेंडर और कैंसर सीरीज की तीसरी कहानी में, Behanbox के माध्यम से हम उन मुश्किल चुनौतियों को सामने लाने की कोशिश करेंगे जिनका सामना महिलाएं कैंसर से जूझते हुए करती हैं और कैसे वे मरीज और देखभालकर्ता दोनों के रूप में अपनी भूमिकाएं तय करती हैं।
देखभाल का बोझ
पिछले छह वर्षों से शकुंतला यादव, 21वर्ष अपनी 48 वर्षीय मां मथुरा की देखभाल कर रही हैं, उनकी मां को आठ साल पहले स्तन कैंसर होने की पुष्टि हुई थी। परिवार छत्तीसगढ़ के कांकेर के पास एक गाँव में रहता है और मथुरा का इलाज जिला अस्पताल में चल रहा था। मथुरा का कैंसर अब दोबारा उनके मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी में फैल गया है। उन्हें रेडिएशन थेरेपी करवाने की सलाह दी गई और इसके लिए उन्हें बाल्को मेडिकल सेंटर (बीएमसी) नया रायपुर जाना पड़ा। ये वेदांता मेडिकल रिसर्च फाउंडेशन द्वारा वित्तपोषित 170 बिस्तरों वाली एक उच्च चिकित्सा एवं देखभाल करने वाला ऑन्कोलॉजी सुविधा युक्त अस्पताल है।
हमारी मुलाकात मां-बेटी से अस्पताल के पास मरीजों और उनके तीमारदारों के लिए बने एक शेल्टर होम में हुई। शकुंतला अपनी मां के पास बैठी थीं, जो बहुत कमजोर दिख रही थीं और मुश्किल से बोल पा रही थीं। शकुंतला ने एक अनार छीला और उनकी मां ने धीरे-धीरे उसे खाया।
शकुंतला को अपनी मां के साथ यहां आए हुए सात महीने हो चुके हैं। “मेरे पिता गांव में हैं वो वहां खेतों की देखभाल कर रहे हैं।” शकुंतला कहती हैं जो अपने मां बाप की इकलौती संतान हैं। पहले उनके लिए अकेले गांव से बाहर निकलना डराने वाला था लेकिन अब वह आत्मनिर्भर हैं और उन्हें खुद पर गर्व है। वह यह भी बताती हैं कि कुछ दिनों पहले जब उनकी मां को स्ट्रोक आया था तब वह अकेली थीं जो उन्हें आपातकालीन वार्ड तक लेकर गई थी।
घर पर भी सभी घरेलू कामों की ज़िम्मेदारी शकुंतला की है इसलिए उन्होंने 12वीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी। उनकी मां एक सशक्त महिला थीं, जो घर और खेत दोनों कामों को बखूबी संभालती थीं। शकुंतला कहती हैं, “मैंने कुछ समय तक पढ़ाई और मां की तबीयत दोनों का ध्यान रखा लेकिन जब कैंसर दोबारा हुआ तो मां पहले से ज्यादा कमजोर हो गईं।” शंकुतला शिक्षक बनना चाहती थीं, लेकिन उन्हें अपने सपनों को पीछे छोड़ना पड़ा। “अगर मैं अपने सपनों को देखूंगी तो मां को खो दूंगी। ” वह आगे कहती हैं।
परिवार में जब किसी बुजुर्ग, गंभीर रूप से बीमार या किसी विकलांग व्यक्ति की देखभाल की बात आती है, तो आमतौर पर यह काम महिलाओं के ही जिम्मे आता है। दुनियाभर में महिलाएं अपने समय का तीन-चौथाई भाग बिना वेतन वाले कार्यों में बिताती हैं। भारत में पुरुषों और महिलाओं के काम के बीच की असमानता भी स्पष्ट देखी जा सकती है, महिलाएं बिना वेतन वाले घरेलू कार्यों में 265 मिनट या 4.4 घंटे बिताती हैं, जबकि पुरुषों का केवल 31 मिनट ही इस काम में खर्च होता है।
डब्ल्यूएचओ द्वारा कोलंबिया, घाना, मैक्सिको, भारत और दक्षिण अफ्रीका में किए गए ग्लोबल एजिंग एंड एडल्ट हेल्थ अध्ययन, में अवैतनिक देखभाल के मूल्य का अनुमान लगाया और पाया कि भारत में बिना वेतन वाली देखभाल की लागत राष्ट्रीय स्वास्थ्य खर्च के 2.53% के बराबर थी, जो इन पांच देशों में सबसे ज्यादा है। यह पहली बार था जब कैंसर में देखभाल के लिए एक आर्थिक लागत निर्धारित की गई थी।
वरिष्ठ सार्वजनिक स्वास्थ्य शोधकर्ता (सेंटर फॉर ग्लोबल नॉन-कम्यूनिकेबल डिजीज), आरटीआई इंटरनेशनल, और लैंसेट कमीशन की लेखकों में से एक इशु कटारिया बताती हैं कि इस अध्ययन में ये बात भी सामने आई कि महिलाएं देखभाल करने वाली शक्ति के रूप में सबसे महत्वपूर्ण हैं और हमें उनकी कद्र करनी चाहिए लेकिन अफसोस की बात कि अब ऐसा नहीं हो रहा है।
कैंसर सर्वाइवर और पैलिएटिव कैंसर काउंसलर वंदना महाजन ने Behanbox को बताया कि उन्होंने कई महिलाओं को कीमोथेरेपी के दौरान भी घरेलू काम करते देखा है। उन्होंने बताया कि जब महिलाओं में कैंसर का पता चलता है, तो कई परिवारों के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात ये होती है कि अब घर के कामकाज कौन संभालेगा।
इनमें से एक 60 वर्षीय स्तन कैंसर की मरीज थी, जो कीमोथेरेपी से गुजर रही थी लेकिन उसे अपने 70 वर्षीय पति के लिए रोटियां बनाकर अस्पताल आना पड़ता था। उनके पति ने बहू के हाथ की बनाई हुई रोटियां खाने से मना कर दिया था। उन्होंने कई बातों को याद करते हुए बताया कि कई पुरुषों ने अपनी पत्नियों को जिनका कैंसर का इलाज चल रहा था, सबके सामने ही डांटा और कहा, “इंजेक्शन से इतना क्यों डरती हो, इतना हंगामा क्यों करती हो?”
महाजन ने कहा कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था विशेष रूप से उत्तर भारत में महिलाओं को बड़ी उपेक्षा से देखती है। महाजन ने बताया, “ स्तन कैंसर रोगियों के लिए एक जागरूकता सत्र के दौरान, कई महिलाएं मेरे पास आईं और कहा बीमारी का कुछ नहीं ये बताइए कि हम अपने पति के साथ सो सकते हैं या नहीं।” महाजन कहती हैं कि महिलाओं का मानना है कि उनके घर में उनकी जगह तभी बनी रह सकती हैं जब तक वे अपने पतियों के लिए उपयोगी और सेक्स के लिए उपलब्ध हैं।
जानलेवा बीमारी से पीड़ित महिलाओं को पुरुषों की तुलना में छह गुना ज्यादा अकेले छोड़ दिया जाता है
2009 में अमेरिकन कैंसर सोसाइटी के जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के दौरान यह जांच किया गया कि क्या जानलेवा बीमारी साथी के द्वारा छोड़े जाने का कारण बनती है, लेखकों ने पाया कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में अपने साथी द्वारा परित्याग के प्रति छह गुना ज्यादा संवेदनशील थीं (20.8% बनाम 2.9%)। इसके अलावा, जिन मरीजों को उनके साथियों ने छोड़ दिया, उनकी स्थिति खराब रही, उन्हें एंटीडिप्रेसेंट्स की ज्यादा जरूरत पड़ी, उन्होंने नैदानिक परीक्षणों में कम भाग लिया, अस्पताल में ज्यादा बार भर्ती हुए और उनके रेडियोथेरेपी पूरा करने या घर पर मरने की संभावना कम थी।
भावना सिरोही, गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल और स्तन कैंसर में विशेषज्ञता रखने वाली मेडिकल ऑन्कोलॉजिस्ट और बाल्को मेडिकल सेंटर (बीएमसी) की मेडिकल डायरेक्टर हैं, उन्होंने कहा कि अपने तीन दशक लंबे करियर में उन्हें ये देखकर बहुत दुख हुआ कि भारत व यूके दोनों ही देशों में पति अपनी पत्नियों को कैंसर के इलाज के दौरान या बाद में छोड़ देते हैं। हालांकि महिलाएं आमतौर पर अपने पति के कैंसर के इलाज में उनकी मदद करती हैं। उन्होंने एक सिख महिला का केस याद किया जिसे पूरी तरह से ठीक होने वाला स्तन कैंसर था और उसका पति इलाज कराने में सक्षम भी था वो दुबई में काम करता था लेकिन इसके बावजूद उसने इलाज का खर्च उठाने से मना कर दिया।
सिरोही ने बताया कि उसके पति ने कहा, इतने में तो दूसरी लुगाई (पत्नी )आ जाएगी। इसलिए उन्हें उसकी मदद के लिए अस्पताल से फीस माफ करानी पड़ी। वह आगे कहती हैं कि यह रवैया निम्न सामाजिक-आर्थिक वर्ग के परिवारों में बहुत आम है, जहां कैंसर के निदान में अक्सर इस वजह से देरी हो जाती है कि घर में खाना बनाने, बच्चों की देखभाल करने वाला कोई और नहीं है। महिलाओं का इलाज देर से शुरू होता है या फिर नहीं हो पाता।
पारंपरिक इलाज के प्रति आकर्षण
साल 2022 में एक दिन तुलसी सिंह ने नहाते समय अपने स्तन पर एक सफेद दाग़ देखा, जो धीरे-धीरे बढ़ रहा था। दो महीने बाद तुलसी ने महसूस किया कि वह कमजोर हो रही हैं। उन्होंने गाँव के एक होम्योपैथ डॉक्टर से परामर्श किया जिसने बताया कि यह सामान्य है और उन्हें छह महीने के लिए दवाइयां दीं। इसी दौरान तुलसी के बड़े पापा का निधन हो गया और गांठ नींबू के आकार की हो गई। तुलसी ने एलोपैथिक डॉक्टर को तब दिखाया जब एक दिन अपनी मौसी के घर में कुएं से पानी निकालते समय उनके सीने में बहुत दर्द महसूस हुआ। डॉक्टर ने उनसे पूछा कि उन्होंने इतनी देर क्यों कर दी और उन्हें बायोप्सी कराने के लिए कहा, जिससे यह पुष्टि हुई कि उन्हें स्तन कैंसर है।
तुलसी की बीमारी इतनी न बढ़ती अगर समय पर बीमारी की पहचान हो पाती और उसका इलाज शुरू हो पाता। वर्ष 2009 में दिल्ली के एक सार्वजनिक और निजी अस्पताल में 825 कैंसर मरीजों पर किए गए एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि 34.3% कैंसर मरीजों ने पारंपरिक और वैकल्पिक (TCAM- ट्रेडिशनल कॉम्प्लिमेंट्री एंड अल्टरनेटिव मेडिसिन ) दवाओं का इस्तेमाल किया और जिसकी वजह से उनमें से कइयों को इलाज मिलने में देरी हुई। जबकि TCAM का उपयोग न करने वाले आधे मरीजों ने लक्षण दिखने के बाद तुरंत इलाज कराया। TCAM का उपयोग करने वाले मरीजों में केवल एक तिहाई ने ऐसा किया। इसके अलावा 12% मरीजों ने कैंसर से संबंधित लक्षण दिखने के बाद छह महीने या उससे अधिक समय तक इंतजार किया, जबकि TCAM गैर-उपयोगकर्ताओं में से केवल 2.1% ने ही इतना इंतजार किया। अन्य अध्ययनों में ये बात भी सामने आई कि महिलाएं जिनकी शिक्षा कम है (प्राथमिक शिक्षा से कम) वे भी वैकल्पिक इलाज पर ज्यादा निर्भर रहती हैं।
भावना सिरोही कहती हैं कि कई मरीज परिवार और दोस्तों की सलाह पर वैकल्पिक इलाज को अपना लेते हैं। “वे सुनते हैं कि रेडिएशन त्वचा को जला देता है, कीमोथेरेपी त्वचा को काला कर देती है और इन सब बातों को सुनकर जब तक वे हमारे पास पहुंचते हैं, कैंसर उपचार योग्य नहीं रहकर जानलेवा स्तर पर पहुंच चुका होता है,” वह आगे बताती हैं।
ग्रामीण भारत में उच्च चिकित्सा संस्थानों की कमी, इलाज का महंगा होना और मरीजों से भरे हुए वाले सार्वजनिक अस्पताल भी कैंसर के समुचित इलाज को मरीजों तक पहुंचाने में बड़ी बाधा के रूप में सामने आते हैं। पार्थ शर्मा, एक सामुदायिक चिकित्सक और सार्वजनिक स्वास्थ्य शोधकर्ता हैं, जो वर्तमान में मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज, दिल्ली में काम कर रहे हैं, वो कहते हैं कि मरीजों के अस्पताल पहुंचने में देरी का एक कारण यह भी है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली उनके साथ कैसा व्यवहार करती है।ल
सुरक्षा गार्ड से लेकर डॉक्टर तक मरीजों से असभ्य तरीके से बात करते हैं। मैंने डॉक्टरों को कहते सुना है, ‘मैंने कहा था तंबाकू खाने को? वो आगे बताते हैं कि ऐसी स्थिति मरीजों की देखभाल में बाधा पैदा करती है क्योंकि मरीज उन डॉक्टरों पर विश्वास नहीं करते जो उन्हें बीमारी की पूरी जानकारी नहीं देते, वे अनौपचारिक प्रदाताओं या आयुर्वेद और होम्योपैथी डॉक्टरों को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि वे सम्मान के साथ उनका इलाज करते हैं।
मृत्यु में भी स्वायत्तता नहीं
महिलाओं के पास अपनी सेहत को लेकर कोई भी फैसला करने की स्वतंत्रता नहीं होती उनके लिए जरूरी फैसले उनके पिता, पति या भाई ही लेते हैं। “यहां तक कि मस्टेकटॉमी (स्तन कैंसर में की जाने वाली सर्जरी) या स्तन संरक्षण सर्जरी के सवाल पर भी महिला परिवार अपने परिवार के पुरुष सदस्य की ओर देखती है।” बीएमसी की भावना सिरोही कहती हैं।
“यहां तक कि जब मैं उन्हें बताती हूं कि दोनों ही सर्जरी में आने वाला खर्च समान है और स्तन संरक्षण सर्जरी उनके अंदर आत्मविश्वास लाएगी और एक सामान्य जीवन जीने में मदद करेगी फिर भी इसका फैसला घर के पुरुष ही लेते हैं।” वह आगे बताती हैं कि कभी-कभी वो पुरुष डॉक्टर की सलाह मानने से भी इनकार कर देते हैं, खासकर जब बात वृद्ध महिलाओं के स्तन संरक्षण प्रक्रिया की हो।
वंदना महाजन कहती हैं कि कैंसर से पीड़ित महिलाओं को मृत्यु के अधिकार भी पुरुषों की तरह नहीं प्राप्त होते हैं। क्योंकि उन्हें उनके कैंसर के जानलेवा होने की प्रकृति के बारे में “वे इसे सहन नहीं कर पाएंगी” कहकर बताया ही नहीं जाता। वह एक बुजुर्ग महिला के मामले को याद करती हैं, जिनका कैंसर लाइलाज हो गया था, लेकिन उनके बेटे ने महाजन या पैलिएटिव चिकित्सक को महिला से उनके पास कितना वक़्त है, के बारे में बात करने की अनुमति नहीं दी क्योंकि उसे लगा कि इससे उनकी हिम्मत पूरी तरह से खत्म हो जाएगी।
“क्या उन्हें नहीं जानना चाहिए कि वह मौत के बेहद करीब हैं, इसलिए उन्हें अपनी अधूरी चीज़ें पूरी कर लेनी चाहिए जैसे वसीयत लिखना, संपत्ति का बंटवारा और अपने लोगों को अलविदा कहना?” महाजन पूछती हैं। वह महिला आईसीयू में मर गईं और महाजन से यह बात बताई कि उनके बेटे ने उनकी मौत और उनके अगले उत्तराधिकार आदि पर किसी भी प्रकार की बातचीत करने से रोककर कहा था, ‘इस सब के बारे में आप कोई बात ही मत करो, आप ठीक हो जाओगी।’
महाजन ने कहा कि महिलाएं भी निश्चित मृत्यु के बेहद नज़दीक होने के बारे में जानकर प्राथमिक आघात के बाद मृत्यु को शांति से स्वीकार करने के मामलों में पुरुषों की तरह ही मजबूत या कमजोर हो सकती हैं। उन्होंने एक अविवाहित डेंटिस्ट का उदाहरण दिया, जो अपनी फेफड़ों के कैंसर के जानलेवा और लाइलाज़ (टर्मिनल स्थिति) होने के बारे में जानती थीं और उन्होंने कीमोथेरेपी बंद करने का फ़ैसला किया जिससे फूलों की घाटी (Valley of FLowers) की यात्रा की जा सके, जो उनकी ज़िंदगी का सपना था।
मुश्किल वक्त में भी मुस्कुराती हुई तुलसी
तुलसी अपने इलाज के अंतिम दिनों यानि जुलाई 2024 तक गाडगे महाराज धर्मशाला में रहीं। जब मैंने उनसे आखिरी बार बात की तब उन्होंने अपनी आखिरी कीमोथेरेपी पूरी की थी और वह बहुत खुश थीं।
“आखिरकार मैं घर जाने वाली हूं, मुझे अब दोबारा अस्पताल जनवरी 2025 में आना होगा।” वह कहती हैं। इलाज के दौरान तुलसी एक साल चार महीने तक अपने घर नहीं गईं थीं लेकिन उन्होंने महिलाओं के हॉल को ही अपना घर बना लिया था। सभी दूसरे कैंसर मरीज और उनका परिवार तुलसी की फैमिली बन गए थे। वो उनके साथ हंसती मुस्कुराती, सलाह करतीं और शहर घूमने जातीं। उन्होंने जिनसे भी मुलाकात की जैसे नर्स, सामाजिक कार्यकर्ता, गार्ड सभी से उनकी दोस्ती हो गई थी और उनकी मदद से उन्हें काम भी मिल रहा था। एक महीने से ज्यादा हर दिन 10 बजे से 6 बजे तक तुलसी ने भारतीय कैंसर सोसाइटी द्वारा आयोजित व्यावसायिक कार्य परियोजना के दौरान दीपक रंगें और अपनी इन कोशिशों पर उन्हें गर्व भी है।
पढ़ना-लिखना न आने के बावजूद उन्होंने विभिन्न चैरिटेबल ट्रस्टों से 90,000 रुपये जुटाए, जिससे उनके इलाज का ज्यादातर खर्च पूरा हो गया था। उन्होंने अपने परिवार से केवल खाना और आवास के लिए पैसे मांगे थे। “कुछ भी मुश्किल नहीं है, पूछ-पूछ कर सब कर सकते हैं,” उन्होंने मुझसे कहा।
तुलसी घर लौटने से पहले दूसरे मरीजों और उनके परिवार के साथ कुछ दर्शनीय स्थलों की यात्रा करने वाली थीं। वह शनि शिंगणापुर जा रही थीं जो महाराष्ट्र में मंदिरों के लिए प्रसिद्ध शहर है। “चलती का नाम ज़िंदगी है, दीदी।” उसने मुझसे कहा।
यह लेख भारत में जेंडर जर्नलिज्म प्लेटफॉर्म बहनबॉक्स द्वारा जेंडर और कैंसर पर आधारित तीन भाग की श्रृंखला का अंतिम भाग है। पहला भाग यहां और दूसरा भाग यहां पढ़ें।
स्वागता यादवार स्वतंत्र पत्रकार हैं ,जो अहमदाबाद से हैं। वह जेंडर, स्वास्थ्य देखभाल और अन्य विकासात्मक मुद्दों पर लिखती हैं।
इस लेख को मालिनी नायर ने संपादित किया है, जो Behanbox की कंसल्टिंग एडिटर हैं और जेंडर आधारित खबरों में गहरी रुचि रखती हैं।
यह स्टोरी पहली बार Behanbox की वेबसाइट पर प्रकाशित हुई है जिसके बाद इसे खबर लहरिया की वेबसाइट पर प्रकाशित किया गया है।
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