खबर लहरिया औरतें काम पर महिलाएं काम पर

महिलाएं काम पर

#MeToo बुंदेलखंड का दूसरा भाग- खबर लहरिया द्वारा एक ऐसी प्रस्तुति जिसमे बुंदेलखंड की हर वो महिला की कहानी बताई जाएगी जो आज किसी भी प्रकार की हिंसा का शिकार हो रही है-ऐसे में हम आपके सामने वो तीन कहानियां पेश करना चाहते हैं जिसमे महिलाओं को कार्यस्थल पर हिंसा का शिकार होना पड़ा है

बुंदेलखंड एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ रुढ़िवादी सोच के बीच यहाँ के लोग अक्सस्र दबते और पीछे छुटते नज़र आ रहे हैं। पितृसत्ता द्वारा चलाया जा रहा ये क्षेत्र, महिलाओं को हर मौके पर दूर ही रख रहा है। भले ही यहाँ कुछ भी नहीं बदला है लेकिन ऐसा नहीं की इनकी प्रयासों में चीज़े यहाँ बदली भी नहीं गई हैं। आज यहाँ के हर क्षेत्र में लोगों के पास इन्टरनेट और स्मार्टफोन देखे जा सकते हैं। महिलाएं छोटी जाति से उभरकर आज कार्यस्थल पर अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रही हैं। बड़े-बड़े संस्थानों में रिश्वत देकर महिलाओं के लिए नर्स और टीचर के रूप में सीट सुनिश्चित की जा रही है, ताकि वे इन नौकरियों के ज़रिये पुरुष वर्ग और अपने परिवार की मदद कर सकें।

लेकिन सामाजिक और आर्थिक बदलाव की इन कहानियों के बीच की असल सच्चाई क्या है? लोगों की सोच बदलने को लेकर काम कर रही इन महिलाओं के साथ आखिर कार्यस्थल पर कैसा बर्ताव किया जाता है? इन सबके बीच वो अपनी पहचान कैसे बना पाएंगी? क्या इन सबके बीच वो केवल खामोश ही रहेंगी या लड़ेंगी भी? ऐसे में #MeToo  उनकी कोई सहायता कर सकता है? आइये देखें इन सब कहानियों पर खबर लहरिया की एक पेशकश…

 

  1. राजकुमारी*, 25, पत्रकार

इस बदलते मीडिया के दौर में भले ही हम हर समय महिला सशक्तिकरण की बात करते रहते हैं, लेकिन उस नारेबाज़ी के पीछे की सच्चाई तो कुछ और ही है। देखा जा सकता है कि कैसे पत्रकारिता के पेशे में भी महिलाओं को दूर रखा जा रहा है। और इस भेदभाव को ज़्यादातर हम ग्रामीण इलाकों में देख सकते हैं। गतिशीलता, नेटवर्किंग, असुरक्षित वित्त, ब्लैकमेल और राजनीतिक और प्रशासनिक शक्ति दलाली के इस खेल में महिलाओं को शायद ही कभी देखा या सुना जाता है। और अगर गलती से इस पेशे में कोई महिला अपना स्थान बना लेती है तो उसे बेज्ज़त और बुरे व्यवहार से नवाज़ा जाता है।

ऐसे में सुने ये कहानी…

उन्होंने प्रशासनिक कार्यालयों में जाना मेरे लिए असंभव बना दिया,

हर कोई उनके इशारों पर काम किया करता था,

कोई मुझसे बात नहीं करता था,

मैंने रिपोर्ट करना बंद कर दिया।

भले ही राजकुमारी अपने समय में स्कूली शिक्षा प्रदान नहीं कर पाई, लेकिन जब पत्रकारिता का मौका उनके सामने आया, तो वो पीछे नहीं हटी। दलित होने के कारण उन्हें अपनी ज़िन्दगी में कई संघर्षों का सामना भी करना पड़ा। लेकिन परिवार के समर्थन के कारण ही वो एक पत्रकार बन पाई। पर जल्द ही शादी होने के बाद, उन्हें अपने इस पेशे में ससूराल द्वारा काम करने की मंजूरी प्राप्त नहीं हुई, जिस कारण उन्हें इसे छोड़ना पड़ा।

पर पत्रकारिता उनके दिल में बसी थी, जिस कारण वो वापिस आने के लिए जी तोड़ मेहनत करती रही। और आख़िरकार उनका ये संघर्ष उन्हें पत्रिकारिता में वापिस ले ही आया। उन्होंने मध्य प्रदेश के पन्ना जिले के अजयगढ़ ब्लॉक में काम करना शुरू किया। पर हैरानी की बात तो ये थी कि राजकुमारी के कार्यस्थल पर उनके अलावा कोई अन्य महिला मौजूद नहीं थी। लेकिन इस पेशे में उनका काम, गॉंव-गॉंव जाकर रिपोर्टिंग करना तब भी जारी रहा। ऐसे में एक दिन किसी कहानी के चलते, वो अपने एक सहयोगी कार्यकारी (एक वरिष्ठ पत्रकार) के साथ रिपोर्टिंग करने गई। काम के दौरान उन्हें ये भी पता चला कि राम मिलान पंडित, ब्लॉक प्रमुख ही एक ऐसे व्यक्ति थे जिनका पूरे कार्यालय में बोल-बाला था। माना जाता है कि उनकी ये छवि कांग्रेस कार्यकर्त्ता होने के कारण ही बनी थी। आगामी एमपी विधानसभा चुनावों में विधायक की कुर्सी के लिए महत्वाकांक्षी राम मिलान, राजकुमारी को अपने चुनाव प्रचार के लिए एक रचनात्मक उपकरण के रूप में बनाये रखना चाहते थे। राजकुमारी की सहकर्मी रजनी के अनुसार उनकी उम्र कुछ 50 वर्ष से अधिक ही होगी।

धीरे-धीरे जैसे राजकुमारी अपने इस पत्रकारिता के हुनर में आगे बढती रही, वेसे ही उनका ब्लॉक मुख्यालय में आना-जाना बढ़ने लगा। ऐसे में राजकुमारी का विश्वास जीतने के लिए पांडे ने उनके साथ वक्त बिताना शुरू किया। अपनी कहानियों को पूरा कराने के लिए राजकुमारी को पांडे के साथ ये सब सहना पड़ा। इसके चलते जुलाई की एक सुबह को जब राजकुमारी, पांडे का इंटरव्यू लेने के लिए ब्लॉक मुख्यालय पहुंची, तो उनकी तमाम कोशिशों के बाद भी उन्हें वो इंटरव्यू नहीं मिला। ऐसे में उन्हें जबरदस्ती एक बैठक का हिस्सा बनाया गया, जिसमे कई और अधिकारी भी मौजूद थे। पर धीरे-धीरे सब वहां से चले गये। कमरे में केवल राजकुमारी और पांडे ही बचे थे। और फिर पांडे ने राजकुमारी को बात करने के बहाने रोकना चाहा और कहा कि उनके चुनाव प्रचार के लिए वो ही काम करें। ऐसे में वो उनका सारा खर्चा तक उठाने को तैयार थे। पर इस बीच जब राजकुमारी ने वहां से जाने का प्रयास किया तो पांडे ने उनका हाथ पकड़ उन्हें धमकी दी। और कहा कि “इस इलाके में एक पत्ता भी उनकी इजाज़त के बिना नहीं हिलता है। मेरे पास इतनी ताकत है कि में जल्द ही तुम्हारा अखबार बंद करा सकता हूँ।”

पर उनकी बात नज़रंदाज़ करते हुए राजकुमारी वहां से चली गई।

उस घटना के बाद से मानो वो अपना काम कभी ढंग से कर ही नहीं पाई। ब्लॉक में मौजूद किसी भी अधिकारी ने उन्हें इंटरव्यू और बाईट देने से मना कर दिया था। ऐसे में उस जगह पर उनका जाना कम हो गया और धीरे-धीरे फिर से उनकी पत्रकारिता छूट गई।

  1. सीमा*, 25, वकील और कार्यकर्ता

उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति एक ऐसी गलत सोच और प्रथा के रूप में चली आ रही है, जिसके परिणामस्वरूप पिछले तीन दशकों में इस क्षेत्र में जाति की गतिशीलता और सामाजिक संरचनाओं में काफी बदलाव आया है। एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कारक 1984 में कांशीराम द्वारा बहुजन समाज पार्टी की स्थापना और यू.पी. में इसकी लामबंदी थी। कांशीराम की उत्तराधिकारी मायावती ने जमीनी स्तर पर लामबंद होने और यूपी में एक सशक्त दलित राजनीति के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बढ़ती राजनीतिक जागरूकता व नीति, छोटी जाति वाले लोगों के लिए काफी लाभदायक रही है। लेकिन यूपी में रह रहे युवा आज भी, राजनीतिक और सामाजिक अवसरवाद और अवसर के इस माहौल में पले-बढ़े, राजनीतिक मुक्ति के वादों से निराश और बौखलाए हुए, साथ ही गरीबी और बेरोजगारी से निराश होकर लिंग-भेद आधारित जातिगत भेदभाव में अब भी फंसे हुए हैं।

 

ऐसे में सुने ये कहानी…

अगर मैं ये कहूँ की मैं गलत थी, तो लोग कहेंगे कि शायद मैंने अपनी खुद की गलतियों की वजह से ये इलज़ाम लगाया

मैं, बीएसपी पार्टी में मौजूद उन कार्यकर्ताओं के नाम नहीं ले सकती जिन्होंने मेरे साथ ये दुर्व्यवहार किया। इससे पार्टी की छवि ख़राब हो सकती है। पर असलियत में ऐसे बहुत से नाम हैं जो मैं लेना नहीं चाहती।

ऐसे लोगों ने कई बार फेसबुक, फोटो व कई टिप्पणियों में भी काफी बार गलत लिखा है।

अगर वे कभी एक दलित लड़की को अपनी सीमाओं से बाहर कदम रख आगे बढ़ता देख लें, तो उसे नीचे लाने में उनके प्रयास कभी कम नहीं रहेंगे

 

13 साल की उम्र में ही सीमा की शादी हो गई थी। शादी कर के वो एक ऐसे गॉंव में गई जहाँ ‘बबली कोल’ नामक डाकू का आतंक था। वो एक दलित हैं, और उनके माँ-बाप ने हमेशा से उनके सुनहरे भविष्य के लिए शिक्षा को बढ़ावा दिया है। शादी के बाद भी उसने पढ़ाई की और ससुराल वालों के विरोध के बावजूद चित्रकूट में श्रम विभाग में नौकरी कर ली। बताया जा रहा है कि कुछ समय बाद उनकी जिंदगी में हालात कुछ ऐसे बदले की उनकी पूरी ज़िन्दगी मानो उथल-पुथल सी हो गई। सीमा के किसी दूर के रिश्तेदार ने एक दिन उनकी ऐसी फोटो फेसबुक पर दाल दी, जिस कारण सीमा की शादी टूट गई। तब भी उस लड़के ने सीमा को परेशान करना नहीं छोड़ा। अलग-अलग नंबर से उन्हें फोन करना, ब्लैकमेल करना, और कई बार तो वो उनके घर पहुंचकर उसके साथ बदतमीज़ी भी करता था। और इन सबसे उभरने के लिए सीमा के लिए काम करना बेहद ज़रूर सा हो गया था। हालाँकि मेरे मोहल्ले में हर एक व्यक्ति जानता है कि मुझे किस तरह की परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। यहाँ सब जानते हैं कि मेरे साथ हर दिन गलत हो रहा है। पर मेरी मदद करने कोई नहीं आता है। ऐसे में अगर ये घटना फिर से होती है, अगर वो लड़का मुझे फिर से परेशान करने आता है, तो मैं चुप नहीं बेठुंगी, मैं लडूंगी। अगर मैं अब नहीं बोली, तो मेरी तरह ऐसी और भी लड़कियां अपने हक़ के लिए कभी नहीं बोल पाएंगी। मीरा अब ज़िला मुख्यालय में रहती है, और कानून की पढाई पूरी कर रही है, साथ ही में वो चित्रकूट ज़िले के कोर्ट में इसका अभ्यास भी कर रही है। एक दलित महिला होने के बावजूद भी उन्होंने, सार्वजनिक और घरेलू हिंसा के खिलाफ लड़ते हुए, कई महिला संगठन और राजनीतिक पार्टियों के साथ अपना नेटवर्क बना लिया है। वे जितना ज़्यादा आगे बढ़ने की कोशिश करती हैं, उतना ही ज़्यादा उन्हें रोकने की कोशिश भी की जाती है। देखा जा सकता है कि कैसे चित्रकूट ज़िले के कर्वी कोर्ट में, उच्च जाति

के पुरुष वकील, लोगों से ज़्यादा पैसा मांग, खुद को सबसे ऊपर रखना चाहते हैं। ऐसे में सीमा जैसी दलित लड़की के लिए अपने हक़ के लिए लड़ना मुश्किल सा हो जाता है। मैंने हर दिन देखा है कि कैसे बलात्कार के बाद महिलाओं से अजीबों-गरीब सवाल पूछ उन्हें परेशान किया जाता है। कैसे उन्हें लोगों के तानों के बीच कोर्ट का सामना करना पड़ता है। और ऐसी स्थिति मैंने कई बार महिलाओं को टूटते हुए भी देखा है। मैंने देखा है कि कैसे महिलाएं इतना सब कुछ सहने के बाद भी कहती हैं, “हमारे साथ कुछ नहीं हुआ, हमने गलती से इस केस को फाइल कर दिया था”- पर असल में वो इतना ज़्यादा टूट जाती हैं कि सच छुपाना ही उनकी लिए आसान हो जता है।

पिछले साल उसका फेसबुक अकाउंट हैक कर लिया गया था, जिसके ज़रिये विवादास्पद वीडियो और पोस्ट लोगों तक पहुँच रहे थे। ऐसे में उन्हें लोगों के तानों के बीच, ज़िल्लत का शिकार होना पड़ा था। सीमा के अनुसार “ऐसे लोग साइबर कैफ़े में जाकर हम जैसी दलित लड़कियों को अपना शिकार बनाते हैं और फिर हमारे फेसबुक अकाउंट के ज़रिये गलत तसवीरें और पोस्ट शेयर करते हैं। मेरे साथ जब ये सब हुआ तो मैं अपनी स्थिति बयान भी नहीं कर सकती हूँ। मानो मेरी रातों की नींद ही उड़ गई थी। मुझे डर लगने लगा था कि कहीं मेरे माता-पिता को इस बारे में पता चल गया तो वो अपने साथ कुछ गलत न कर बैठें। लेकिन अगर ऐसी परिस्थिति में तुम ऑफिस में काम कर रहे हो, तो तुम्हे कैसे भी ये सब झेलना पड़ेगा। वहां मौजूद लोग तुम्हारे साथ अक्सर नौकरों जैसा बर्ताव करेंगे, तुम्हे ये भी झेलना पड़ेगा। अगर हम ये नहीं झेलेंगे तो नौकरी छोड़ अपना गुज़ारा कैसे करेंगे?

ऐसी परिस्थितियों में मीरा जैसे लड़की भी हम लोगों की मदद नहीं कर सकती। ऐसी रुढ़िवादी सोच को कभी नहीं बदला जा सकता है।

 

  1. सुशीला*, 53, सहायक नर्स (एएनएम)

 

सहायक नर्स या एएनएम एक स्थायी या संविदात्मक सरकारी स्वास्थ्य कार्यकर्ता मानी जाती है जो गाँव स्तर के उप-केंद्र में काम करती है। वह 5000 की आबादी के लिए बुनियादी स्वास्थ्य आवश्यकताओं के साथ-साथ प्रसव के लिए खानपान की ज़िमेदारी भी उठाती है। एएनएम,एक वेतनभोगी कार्यकर्ता है, जिसका गाँव प्रधान के साथ एक संयुक्त खाता खोला जाता है, जिसमें उसे विभिन्न उपकरणों के लिए 10,000 रुपये का कोष प्राप्त होता है। इसमें गाँव और ब्लॉक स्तर के अधिकारियों, स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारियों और राजनेताओं के साथ नेटवर्क भी बनाया जाता है। एएनएम, मातृ और सामुदायिक स्वास्थ्य सेवा की प्रणाली के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन इसे भी रुढ़िवादी सोच के बीच ही अपना गुज़ारा करना पड़ता है।

 

ऐसे में सुने ये कहानी…

 

मेरे साथ गलत हुआ था

आइये सुनिए मेरी कहानी।

25 सितंबर का दिन था।

मैं पंचायत भवन में मौजूद थी।

इस घटना को हुए, चार महीने होने को आए हैं पर जब भी मैं इसके बारे में सोचती हूँ, बहुत डर सी जाती हूँ।

शाम हो गई थी, वहां कोई भी मौजूद नहीं था। ऐसे में मैं अपने बेटे का इंतज़ार कर रही थी।

मेरे पति अब इस दुनिया में नहीं हैं, और ये बात यहाँ सब जानते हैं कि मैं अब अकेली हूँ।

 

सुशीला लगभग 18 सालों से, बुंदेलखंड के बाँदा ज़िले में एएनएम का काम कर रही है। एक ऐसे क्षेत्र में जो पहाड़ों और जंगलों के बीच स्थित है, जहाँ डाकुओं का आना-जाना लगा रहता है। उनका इंटरव्यू लेते हुए उन्होंने हमे बताया कि यहाँ मौजूद किसी भी परिवार से हम उनके काम के बारे में पूछ सकते हैं। ऐसे में उनके खिलाफ कभी कोई शिकायत नहीं मिलेगी। रोते हुए उन्होंने ये भी बताया कि कैसे वो पुरुषों के बीच हर दिन काम किया करती थी। सरपंच, स्थानीय भाजपा नेता, मुख्य चिकित्सा अधिकारी, डॉक्टर, पुलिस अधीक्षक, कांस्टेबल और स्थानीय ठग,उन्होंने इन सभी के साथ काम किया है।

 

क्षेत्र के एक दीर्घकालिक सरकारी कर्मचारी के रूप में, उन्हें नियमित रूप से पार्टी के खर्चों के लिए भुगतान करने के लिए कहा जाता है। “ऐसे में उन्हें ये तक नहीं पता की पार्टी अक्सर उनके खाते में से पैसे क्यों लिया करती है”। हाल ही में स्वास्थ्य केंद्र द्वारा स्वच्छता कार्यों के लिए उनके (संयुक्त) खाते में आने वाले वाले पैसे को प्रधान को दे दिया गया है। जब वो उस शाम को हुई घटना का वर्णन करती हैं तो उन्होंने बताया की वो अपना रजिस्टर लेकर प्रधान के पास गयी थी। प्रधान द्वारा ये मंज़ूरी मांगने के लिए कि उन्होंने उनसे 8000 रूपए लिए हैं, जिसके बारे में वो रजिस्टर में हस्ताक्षर कर अपनी मंजूरी प्रदान करें। और इस घटना के समय वहां काफी लोग मौजूद थे, लेकिन सुशीला केवल प्रधान, उनके भाई और (भाजपा) कोषाध्यक्ष को ही जानती थी। हस्ताक्षर मांगते समय वहां मौजूद सभी लोगों ने उनके साथ बदतमीज़ी की। वो सब लोग उन पर चिलाये और उनके साथ दुर्व्यवहार करने लगे। उन्होंने उस रजिस्टर को पकड़ा और उसे गुस्से में फाड़ दिया। ये सब देख सुशीला काफी घबरा गई थी। उनके मुताबिक वहां इतने सारे लोग मौजूद थे, पर किसी ने उनके बचाव में कुछ नहीं बोला। “क्या हम इसे छेड़छाड़ बता सकते हैं? क्या मेरे साथ ये सही हुआ था?”

 

भले ही सुशीला इस घटना से काफी घबरा गई थी लेकिन फिर भी उसने हिम्मत जुटाकर कुछ समय बाद पुलिस थाने में फोन लगाया। सुशीला के अनुसार बाकी लोगों ने उसे 100 नंबर पर बात करने का सुझाव दिया था। पर मौके पर वो इतना घबरा गई थी कि उस समय नहीं वो कुछ नहीं कर पाई। उन्होंने बाद में फिर सीएमओ से इस बारे में बात करी। और आगे दिक्कत ना आये इसलिए उन्होंने अगले दिन ही सुशीला का तबादला कर दिया। उन्हें उनके परिवार से दूर भेज दिया गया था। जिसकी उन्होंने कई बार शिकायत भी करी पर उस पर उनकी किसी ने नहीं सुनी। उन्हें काम के चलते हर समय, यहाँ से वहां भगाया जाने लगा। कभी एक अधिकारी के पास तो कभी दुसरे। इस तरह क्या एक महिला को परेशान करना सही है? काम के दौरान कितने ही लोगों ने मुझसे पैसे ज़ब्त करे पर उल्टा मुझ पर ही लोगों से पैसे लेने के गलत आरोप लगाये गये। “यहाँ आप किसी से भी मेरे बारे में पूछ सकते हैं, मैंने आज तक किसी के साथ कभी कुछ गलत नहीं किया है।”

 

सुशीला को एसपी, डीआईजी या महिला आयोग में से किसी से भी कोई मदद नहीं मिली। इस घटना के बाद से वो काफी सदमे में चली गई थी। और न इस घटना के बाद से उन्हें चार महीने तक की तनख्वा दी गई। इस घटना के बाद से सुशीला को प्रधान और उसके भाई द्वारा कई बार धमकी भरे कॉल भी आये हैं। स्थानीय पुलिस स्टेशन द्वारा भी उन्हें कई बार कहा गया है कि “ऍफ़आईआर दर्ज करा लीजिये मैडम”। “आखिर क्यों कराऊँ मैं ऍफ़आईआर दर्ज? मुझे यहाँ रहना है, अपने परिवार का ध्यान रखना है, ऐसे में ऍफ़आईआर दर्ज कराकर में क्यों खुद को खतरे में डालूं?”

 

19 दिसंबर तक उसका स्थानांतरण रद्द कर दिया गया है। जिस जगह उन्होंने अपनी ज़िन्दगी के 18 साल दिये वहीँ से उन्हें ये सब झेलना पड़ रहा है। “इस घटना के बाद से मैं चार महीने से सोई नहीं। मुझे ऐसा लगता है कि भाजपा के उन सभी कार्यकर्ताओं को यहाँ बुलाकर, मुझे उनके सामने आत्महत्या कर लेनी चाहिये।”

 

*अनुरोध पर नाम बदले गए हैं

 

रिपोर्टिंग-खबर लहरिया

लेखन-दिशा मालिक

यह लेख फर्स्टपोस्ट द्वारा भी सह-प्रकाशित किया गया है। 

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