खबर लहरिया Blog क्या बसपा 2027 के विधानसभा चुनाव में अपनी साख बचा पायेगी?

क्या बसपा 2027 के विधानसभा चुनाव में अपनी साख बचा पायेगी?

मायावती भले ही यूपी के हर गांव में कार्यकर्ताओं को भेजने का ऐलान कर रही हैं लेकिन हक़ीकत यह है कि बसपा का कैडर अब पूरी तरह निष्क्रिय हो चुका है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, 2022 के बाद पार्टी के स्थानीय स्तर के 40% पदाधिकारियों ने बसपा छोड़ दी। पार्टी की रैलियों और सभाओं में भीड़ नाममात्र रह गई है। बसपा का ‘कैडर’ खत्म हो जाने का मतलब है कि मायावती के पास अब प्रचार अभियान के लिए कोई मजबूत आधार ही नहीं बचा है।

will-bsp-be-able-to-preserve-its-credibility-in-the-2027-up-assembly-elections

बसपा सुप्रीमो मायावती की तस्वीर (फ़ोटो साभार – सोशल मीडिया)

बसपा की जमीनी पकड़ बेहद कमजोर, जनता की यादों में अब भी मायावती का शासन, क्या फिर लौटेगा वही दौर? इंडियन एक्सप्रेस में 25 मार्च को छपी रिपोर्ट के मुताबिक, मायावती ने भाजपा, कांग्रेस और सपा को दलितों और पिछड़ों का ‘धोखेबाज’ करार दिया और बसपा को एकमात्र विकल्प बताया। सवाल यह है कि क्या उनके आरोपों में अब भी पहले जैसी दम बचा है? क्या बसपा 2027 में वाकई ‘बहुजन विकल्प’ बनकर सत्ता का खेल पलट पाएगी?

जब हम यह सवाल करते हैं कि क्या बसपा 2027 में ‘बहुजन विकल्प’ बनकर सत्ता का खेल पलट पाएगी तो इसमें चंद्रशेखर आज़ाद रावण को नजरअंदाज कैसे किया जा सकता है। नगीना (यूपी) से सांसद बनने के बाद रावण यूपी में दलित-बहुजन राजनीति का बड़ा चेहरा बनकर उभरे हैं। उनकी पार्टी आजाद समाज पार्टी लगातार बहुजन मुद्दों पर मुखर रहती है, जिससे वह युवाओं के बीच तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं। हालांकि बसपा और आजाद समाज पार्टी के बीच कोई गठबंधन नहीं है जिससे दलित वोट बैंक के और ज्यादा बंटने का ख़तरा है।

बसपा की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अब लखनऊ केंद्रित पार्टी बनकर रह गई है। जब भी यूपी में चुनाव नजदीक आते हैं तो बसपा सुप्रीमो मायावती लखनऊ में बैठकें तेज कर देती हैं। वहां से निर्देश जारी करती हैं कि कार्यकर्ता गांव-गांव जाकर प्रचार करें, लेकिन सवाल यह है कि जमीन पर काम करने वाले कार्यकर्ता बचे ही कितने हैं? इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट बताती है कि 2022 के बाद बसपा के 60 प्रतिशत से ज्यादा सक्रिय कार्यकर्ता या तो निष्क्रिय हो गए या दूसरे दलों में शामिल हो गए। ऐसे में मायावती का हर गांव में दौरा अभियान कितना कारगर होगा यह बड़ा सवाल है।

ये भी देखें – चंदा फ्री चुनाव! क्या बिहार में मायावती का जादू चलेगा या बस शोर रहेगा? | Bihar Election 2025

बुंदेलखंड में बसपा का अस्तित्व खतरे में 

एक दौर था जब बुंदेलखंड को बसपा का मज़बूत गढ़ कहा जाता था  लेकिन अब ये पार्टी यहां से भी गायब हो चुकी है। यहां बसपा का सिर्फ एक ही चेहरा बचा है — गयाचरण दिनकर, जिनकी जनता में अब भी व्यक्तिगत पकड़ है। बाकी नेता या तो निष्क्रिय हो चुके हैं या उनका प्रभाव खत्म हो गया है। 

दिनकर लगातार पार्टी को जमीन पर संघर्ष करने की सलाह देते रहे हैं। खबर लहरिया को इंटरव्यू देते हुए उन्होंने कहा था कि— “अगर हम मतलब बसपा 2027 में वापसी चाहते हैं तो गांव-गांव जाकर जनता से जुड़ना होगा। नहीं तो पार्टी का दोबारा से उद्धार होना मुश्किल है।” दिनकर की यह टिप्पणी बसपा की जमीनी हकीकत को बयां करती है। बुंदेलखंड में पार्टी की पकड़ इतनी कमजोर हो चुकी है कि 2022 के चुनाव में बसपा को एक भी सीट नहीं मिली, जबकि भाजपा ने 16 में से 16 सीटें जीती थीं। ये आंकड़ा बताता है कि अगर बसपा ने अपनी रणनीति नहीं बदली, तो 2027 में उसकी हालत और बदतर हो सकती है।

ये भी देखें – लोकसभा चुनाव 2024 में बसपा की हार पर बसपा नेता गयाचरण दिनकर का बयान

बसपा का X (पूर्व में ट्विटर) मोह: जमीन पर नदारद नेता

मायावती का X (पूर्व में ट्विटर) पर भाजपा, कांग्रेस और सपा को लताड़ना अब बसपा की मुख्य रणनीति बन चुकी है। यूपी जैसे बड़े राज्य में चुनाव सिर्फ ट्वीट से नहीं जीते जाते। जनता चाहती है कि नेता उनके बीच आएं उनकी समस्याओं को सुनें और समाधान करें। भाजपा के पास तमाम नेता हैं जो लगातार जनता के बीच रहते हैं। सपा के अखिलेश यादव भी क्षेत्रीय दौरे कर जनता को साधने में जुटे रहते हैं लेकिन मायावती चुनाव के समय भी बड़ी रैलियों और जनसभाओं से दूर रहती हैं। इससे जनता में यह धारणा बन रही है कि बसपा अब सिर्फ बयानबाजी करने वाली पार्टी बनकर रह गई है।

‘जातीय बिखराव का खेल’: बसपा का आरोप कितना सटीक?

मायावती का ओमप्रकाश राजभर, संजय निषाद, अनुप्रिया पटेल और चंद्रशेखर आजाद पर दलित-पिछड़ों को बांटने का आरोप बिल्कुल सही है। भाजपा ने जातीय पार्टियों को साथ मिलाकर ओबीसी-दलित वोटों में सेंध लगा दी। 2022 में बसपा को सिर्फ 12.88% वोट मिले जबकि भाजपा को 41.29% और सपा को 32.06% वोट हासिल हुए। यह दिखाता है कि बसपा का पुराना दलित-पिछड़ा समीकरण पूरी तरह बिखर गया है। मायावती का आरोप सही होने के बावजूद सच्चाई यह है कि बसपा खुद अपने वोट बैंक को संभालने में नाकाम रही है। 

मुस्लिम वोट बैंक: मायावती की कोशिशें बेअसर?

मायावती का कांग्रेस और सपा को मुस्लिम विरोधी बताना साफ इशारा है कि वह मुस्लिम वोटरों को अपनी ओर खींचना चाहती हैं। 2022 के चुनाव में यूपी के मुसलमानों ने सपा को जमकर वोट दिया जिससे सपा को 111 सीटें मिलीं। वहीं बसपा सिर्फ 1 सीट जीत सकी। यह आंकड़ा बताता है कि मुस्लिम वोट बैंक मायावती को पहले ही नकार चुका है। ऐसे में बसपा का मुस्लिम वोटरों को साधना अब आसान नहीं है।

बसपा की सबसे बड़ी चुनौती: संगठन की कमजोरी

मायावती भले ही यूपी के हर गांव में कार्यकर्ताओं को भेजने का ऐलान कर रही हैं लेकिन हक़ीकत यह है कि बसपा का कैडर अब पूरी तरह निष्क्रिय हो चुका है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, 2022 के बाद पार्टी के स्थानीय स्तर के 40% पदाधिकारियों ने बसपा छोड़ दी। पार्टी की रैलियों और सभाओं में भीड़ नाममात्र रह गई है। बसपा का ‘कैडर’ खत्म हो जाने का मतलब है कि मायावती के पास अब प्रचार अभियान के लिए कोई मजबूत आधार ही नहीं बचा है।

बसपा का नेतृत्व संकट: मायावती के बाद कौन?

बसपा अब सिर्फ बाहरी चुनौतियों से ही नहीं जूझ रही बल्कि आंतरिक कलह भी उसे कमजोर कर रही है। मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को बसपा का उत्तराधिकारी घोषित किया था। उन्हें युवा चेहरा बनाकर पार्टी को फिर से जीवित करने की कोशिश की गई थी लेकिन पिछले एक साल में मायावती ने दो बार आकाश को बाहर का रास्ता दिखाया।

अब सवाल उठता है कि अगर आकाश बसपा का भविष्य नहीं हैं, तो फिर पार्टी का वारिस कौन होगा? मायावती के बाद बसपा का नेतृत्व किसके हाथ में जाएगा? या फिर पार्टी बिना किसी स्पष्ट उत्तराधिकारी के अस्तित्व की लड़ाई लड़ती रहेगी? यह नेतृत्व संकट बसपा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन सकता है, क्योंकि बिना मजबूत चेहरे और स्पष्ट नेतृत्व के पार्टी की पकड़ 2027 में और कमजोर हो सकती है।

क्या बसपा 2027 में वापसी कर पाएगी?

मायावती का 2027 में सत्ता वापसी का दावा हक़ीकत से दूर नजर आता है। बसपा की वर्तमान स्थिति देखकर कहा जा सकता है कि सिर्फ बयानबाजी और आरोपों से जनता का भरोसा नहीं जीता जा सकता। मायावती को अब अपनी रणनीति पूरी तरह बदलनी होगी। उन्हें 2007 के दौर की तरह फिर से जमीन पर उतरना होगा। गांव-गांव जाकर जनता से मिलना होगा। बसपा को नए, ऊर्जावान और जुझारू नेताओं को आगे लाना होगा, नहीं तो 2027 में भी बसपा का हाल 2022 जैसा ही होगा- सिर्फ एक सीट।

सवाल यह है कि क्या मायावती अब भी वही मेहनत करेंगी जो उन्होंने 2007 में की थी? क्या वह X (ट्विटर) छोड़कर फिर से गांव-गांव, गली-गली संघर्ष करने को तैयार होंगी? या बसपा महज ट्वीट करती रह जाएगी और जनता उसे पूरी तरह नकार देगी?

 

‘यदि आप हमको सपोर्ट करना चाहते है तो हमारी ग्रामीण नारीवादी स्वतंत्र पत्रकारिता का समर्थन करें और हमारे प्रोडक्ट KL हटके का सब्सक्रिप्शन लें’

If you want to support  our rural fearless feminist Journalism, subscribe to our  premium product KL Hatke’

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *