खबर लहरिया Blog क्यों ग्रामीण महिलाएं नहीं जान पातीं अपने ‘मत’ का महत्व? क्यों जनसभाओं तक सिमटकर रह जाते हैं इनके चेहरे?

क्यों ग्रामीण महिलाएं नहीं जान पातीं अपने ‘मत’ का महत्व? क्यों जनसभाओं तक सिमटकर रह जाते हैं इनके चेहरे?

कलावती 50 से 55 आयु के बीच की एक बुज़ुर्ग महिला हैं। सालों से मतदान कर रही हैं लेकिन आज तक कभी अपने मन से वोट नहीं डाला। वह कभी अपने मत के बारे में ज़्यादा सोच ही नहीं पाईं। कहती हैं, “जो कोई बता देता है बस उसे ही डालकर चले आते हैं।” इससे ज़्यादा वह विचार नहीं कर पातीं।

चुनाव, वर्गीकृत होते हैं। इसकी पहचान सबके लिए अलग होती है और किसी के लिए कुछ भी नहीं बन पाती। विकास और सुविधाओं से दूर ग्रामीण क्षेत्रों में बसी महिलाओं के लिए फिर चुनाव और उसकी पहचान क्या होगी? या बनाई गई है? या कुछ है भी या नहीं? वह जगह जो पहले से विकास से दूर है, पहुँच से दूर है, जानकारी से दूर है….उन क्षेत्रों व वहां बसी महिलाओं के लिए चुनाव क्या होगा?

क्या इसे इस तरह से सोचा व समझा गया जो विकास की बातें करते हैं? जो खुद को विकासशील देश का संचालक कहते हैं?

चुनावी रैलियों व जनसभाओं में एकजुट किये गए महिलाओं के चेहरे वर्गीकृत किये गए मत से कुछ अलग नहीं होते। उनका काम उन सभाओं में आकर खत्म हो जाता है। उन्हें इन रैलियों और जनसभाओं या उससे जुड़े चुनाव या उसके महत्व के बारे में नहीं बताया जाता है। ये नहीं बताया जाता कि उनका मत या उनका इन सभाओं में आना कितना महत्व डालता है और वह आज के परिदृश्य को बदल सकती हैं।

यहां यही तो है…अनजान बनाकर किसी से उसका सबसे बड़ा हक व ताकत छीन लेना और उन्हें पता भी न लगने देना।

खबर लहरिया ने अंबेडकर नगर जिले के मेदीपुर गांव की महिलाओं से बात की। जानना चाहा कि महिलाओं के मत के नाम पर जो इतनी बड़ी राजनीति चली आती है, महिलाओं को अपने मत का अधिकार व चुनाव के बारे में कितनी जानकारी है।

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21 सालों से वोट डालती आ रहीं संगीता के गांव में कोई विकास और सुविधा नहीं है। उन्हें बस इतना पता है कि वह बसपा को वोट डालते आ रही हैं। क्यों डालते आ रही हैं, यह नहीं मालूम।

कलावती 50 से 55 आयु के बीच की एक बुज़ुर्ग महिला हैं। सालों से मतदान कर रही हैं लेकिन आज तक कभी अपने मन से वोट नहीं डाला। वह कभी अपने मत के बारे में ज़्यादा सोच ही नहीं पाईं। कहती हैं, “जो कोई बता देता है बस उसे ही डालकर चले आते हैं।” इससे ज़्यादा वह विचार नहीं कर पातीं।

अर्चना, युवा हैं और मेदीपुर गांव में ही रहती हैं। उन्होंने भी कभी वोट नहीं डाला और शायद इस साल भी वह वोट नहीं डाल पाएंगी। चुनाव की जानकारी को लेकर उन्हें कुछ मालूम नहीं था शायद इसलिए भी क्योंकि इससे जुड़ी चीज़ें उन तक कभी पहुंची ही नहीं। उनकी मांग के बारे में पूछा तो कहतीं कि बस रोज़गार चाहिए। कुछ काम चाहिए करने के लिए।

युवा व महिलाओं से बात करके यह बात तो साफ थी कि उन्हें कभी उनके मत के मायने बताये ही नहीं गए। उनके मत की महत्वता की जानकारी उनके गांव में सालों से पड़े विकास के इंतज़ार की तरह है। जहां सड़के नहीं है, तो शायद इसी वजह से उस जानकारी को आने का रास्ता नहीं मिल रहा। घर साजो-सज्जा वाले नहीं है इसलिए दरवाज़े नहीं खटखटाये गए।

लेकिन हाँ, जब कई किलोमीटर दूर कहीं चुनावी रैलियां होती हैं न तो यहां, इनके गाँवो तक आने के रास्ते भी बन जाते हैं और दरवाज़े भी खटखटा दिए जाते हैं और फिर इकठ्ठा कर उन्हें बैठा दिया जाता है मत के वर्गीकरण की तरह।

यह सिलसिला साल दर साल चलता रहता है। आज की तरह ग्रामीण क्षेत्रों में बसी महिलाएं कभी नहीं जान पातीं अपने मत के अधिकार का पता।

 

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