जब–जब किसी महिला ने सत्ता के गलियारों को ललकारा है तो उस राज में थरथराहट ज़रूर हुई है। कौन कहता है कि महिलाएं आवाज़ नहीं उठा सकतीं। मैं तो ऐसी किसी महिला को नहीं जानती। मैं अगर जानती हूँ तो मैं शाहीन बाग की बागी महिला बिलकिश दादी को जानती हूँ। जो नागरिकता कानून के खिलाफ अंत तक लड़ती रहीं। मैं जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी की बेबाक आइशी घोष को जानती हूँ। मैं दिल्ली के जामिया मिलियाँ इस्लामिया की विद्रोही लड़कियों को जानती हूँ, जिन्होंने नागरिकता कानून और एनआरसी के विरोध में सरकार के खिलाफ़ जंग छेड़ दी थी।
मैं मज़दूर अधिकार संगठन और किसान आंदोलन की विद्रोही नवदीप कौर को जानती हूँ। जिसके अधिकार की मांग से डरकर प्रशासन ने उसे बंधी बना लिया। मैं विदेशी गायिका रिहाना, स्वीडन की पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग और अमेरिका की मीना हैरिस को जानती हूँ। जिनके एक ट्वीट ने पूरी भारत सरकार को जवाब देने के लिए मजबूर कर दिया। मैं पत्रकार राणा आयूब को जानती हूँ, जिसने कभी झूठ बर्दास्त नहीं किया। किसने कह दिया कि महिला की आवाज़ दब सकती है। मैं किसी हारी हुई महिला को नहीं जानती। मैं उन्हें जानती हूँ जिनके शब्दों ने सरकार के कानों को चीर कर रख दिया।
कोई इन्हें बांधे भी तो क्या इनकी आवाज़ बांध पाएगा? इनकी हिम्मत से कैसे लड़ेगा? मैं इनकी ज्वाला को कविताओं के ज़रिए हर इंसान में भरना चाहती हूँ और बताना चाहती हूँ कि शासन–प्रशासन इनकी एक चीख से डर में हैं। अंत तक वह बचेंगे नहीं।
रमा शंकर यादव ‘विद्रोही‘ की कविता “औरतें” कहती हैं, ये आखिर तक चीखने लगती हैं। बिना आवाज़ किए। कहतें हैं शब्द किसी के ना रहने के बाद भी रहते हैं। शायद इसलिए कवियों को अमर कहा जाता है और उसके साथ ही शब्दों का जीवन कभी खत्म ना होने वाला होता है। तो क्या इनकी आवाज़ को सत्ता मिटा पाएगी। पढ़िए कविता….
औरतें
कुछ औरतों ने अपनी इच्छा से कूदकर जान दी थी
ऐसा पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज है
और कुछ औरतें अपनी इच्छा से चिता में जलकर मरी थीं
ऐसा धर्म की किताबों में लिखा हुआ है
मैं कवि हूँ, कर्त्ता हूँ
क्या जल्दी है
मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को एक साथ
औरतों की अदालत में तलब करूँगा
और बीच की सारी अदालतों को मंसूख कर दूँगा
मैं उन दावों को भी मंसूख कर दूंगा
जो श्रीमानों ने औरतों और बच्चों के खिलाफ पेश किए हैं
मैं उन डिग्रियों को भी निरस्त कर दूंगा
जिन्हें लेकर फ़ौजें और तुलबा चलते हैं
मैं उन वसीयतों को खारिज कर दूंगा
जो दुर्बलों ने भुजबलों के नाम की होंगी।
मैं उन औरतों को
जो अपनी इच्छा से कुएं में कूदकर और
चिता में जलकर मरी हैं
फिर से ज़िंदा करूँगा और उनके बयानात
दोबारा कलमबंद करूँगा
कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया?
कहीं कुछ बाक़ी तो नहीं रह गया?
कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई?
क्योंकि मैं उस औरत के बारे में जानता हूँ
जो अपने सात बित्ते की देह को एक बित्ते के आंगन में
ता–जिंदगी समाए रही और कभी बाहर झाँका तक नहीं
और जब बाहर निकली तो वह कहीं उसकी लाश निकली
जो खुले में पसर गयी है माँ मेदिनी की तरह
औरत की लाश धरती माता की तरह होती है
जो खुले में फैल जाती है थानों से लेकर अदालतों तक
मैं देख रहा हूँ कि जुल्म के सारे सबूतों को
मिटाया जा रहा है
चंदन चर्चित मस्तक को उठाए हुए पुरोहित और
तमगों से लैस
सीना फुलाए हुए सिपाही महाराज की जय बोल रहे हैं।
वे महाराज जो मर चुके हैं
महारानियाँ जो अपने सती होने का इंतजाम कर रही हैं
और जब महारानियाँ नहीं रहेंगी तो
नौकरानियाँ क्या करेंगी?
इसलिए वे भी तैयारियाँ कर रही हैं।
मुझे महारानियों से ज़्यादा चिंता नौकरानियों की होती है
जिनके पति ज़िंदा हैं और रो रहे हैं
कितना ख़राब लगता है एक औरत को
अपने रोते हुए पति को छोड़कर मरना
जबकि मर्दों को रोती हुई स्त्री को मारना
भी बुरा नहीं लगता
औरतें रोती जाती हैं, मर्द मारते जाते हैं
औरतें रोती हैं, मर्द और मारते हैं
औरतें ख़ूब ज़ोर से रोती हैं
मर्द इतनी जोर से मारते हैं कि वे मर जाती हैं
इतिहास में वह पहली औरत कौन थी
जिसे सबसे पहले जलाया गया?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूँगा।
अर्थ : मंसूख – रद्द करना, तलब – हाज़िर करना
कुछ ऐसी औरतें थीं जो ना हो होकर भी आज रह गयीं। जो आवाज़ नहीं उठा पायीं और जल गयीं। उस हर औरत की आवाज़ बनेगी ये महिलाएं, जिन्होंने लड़ना नहीं छोड़ा। कि….
“औरत की लाश धरती माता की तरह होती है
जो खुले में फैल जाती है थानों से लेकर अदालतों तक“
द्वारा लिखित – संध्या