खबर लहरिया Blog जब किसी महिला के साथ रेप होता है तो समाज किसके लिए आवाज़ उठाता है? क्या उसमें दलित महिलाएं शामिल हैं?

जब किसी महिला के साथ रेप होता है तो समाज किसके लिए आवाज़ उठाता है? क्या उसमें दलित महिलाएं शामिल हैं?

सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस की 2024 रिपोर्ट की अनुसार, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों से पता चलता है कि 2015 से 2020 तक दलित महिलाओं के खिलाफ बलात्कार के मामलों में 45 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसके अलावा, डेटा से यह पता चलता है कि भारत में प्रतिदिन दलित महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ बलात्कार की 10 घटनाएं सामने आती हैं। 

When a woman is raped,for whom does the society raise its voice? Are Dalit women included in it?

                       दिल्ली के निर्माण भवन की तस्वीर जहां पर डॉक्टर्स द्वारा कलकत्ता रेप मामले को लेकर धरना प्रदर्शन किया गया व हिंसा के खिलाफ सुरक्षा व इंसाफ की मांग की गई ( फोटो – संध्या/ खबर लहरिया)

देश में हर दिन औसतन 90 रेप के मामले दर्ज किये जाते हैं। हर 16 मिनट में देश में कहीं न कहीं किसी महिला के साथ रेप/बलात्कार हो रहा होता है (2022, एनसीआरबी रिपोर्ट)। वहीं भारत में प्रतिदिन दलित महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ बलात्कार की 10 घटनाएं सामने आती हैं (सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस की 2024 रिपोर्ट )। 

मैं यह लिख रही हूँ तब भी देश में कहीं न कहीं किसी के साथ बलात्कार हो रहा होगा, आप यह पढ़ रहे होंगे तब भी लेकिन शोर कब मचाया जा रहा है, सोचिये? 

यह आवाज़,इंसाफ की चीख बलात्कार व उसे करने वालों के खिलाफ उठाई जा रही है या फिर किसी विशेष जाति, लिंग,वर्ग, समुदाय,पेशा,परिवेश,पहचान से आने वाले व्यक्ति के लिए जिसके साथ हिंसा हुई है? आवाज़ हिंसा के खिलाफ उठाई जा रही है या? 

When a woman is raped,for whom does the society raise its voice? Are Dalit women included in it?

                                                                        कलकत्ता रेप मामले के खिलाफ आवाज़ उठाते हुए SDN अस्पताल के डॉक्टर्स, निर्माण भवन, दिल्ली ( फोटो साभार – संध्या/ खबर लहरिया)

ये भीड़ जो हमने कोलकाता रेप मामले में देखी जिसमें 9 अगस्त 2024 को कोलकाता के आरजे कर मेडिकल कॉलेज में एक 31 वर्षीय ट्रेनी डॉक्टर के साथ बलात्कार व अमानवीयता के साथ शारीरिक हिंसा करते हुए उसकी हत्या कर दी गई थी, हमने यहां खूब रौष देखा,धरना देख रहे हैं। कलकत्ता से लेकर दिल्ली व कई अन्य जगहों पर प्रदर्शन किये जा रहे हैं। आज 16 अगस्त को दिल्ली के निर्माण भवन में डॉक्टर्स द्वारा धरना दिया गया। 14 अगस्त को दिल्ली के एम्स व सीआर पार्क में ‘reclaim the night’ के साथ प्रदर्शन किया गया था और आगे भी प्रदर्शन जारी रहेंगे। जोकि होना भी चाहिए पर ज़रा ये सोचिये कि यह गुस्सा और प्रदर्शन कहीं एकतरफा तो नहीं?

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सवाल करिये, यह आवाज़ें देश में हर दिन हो रहे बलात्कार के मामलों के लिए हैं या सिर्फ हमारे द्वारा चयनित किये गए विशेष पेशे, वर्ग, समुदाय, परिवेश और जगह से आने वाले के लिए? परन्तु रेप के खिलाफ नहीं? हिंसा के खिलाफ नहीं? 

देश में हर दिन दलित,आदिवासी महिलायें, कंस्ट्रक्शन साइट पर काम कर रही महिलाएं, ग्रामीण व हाशिये पर रह रही महिलाओं इत्यादि के साथ जब बलात्कार होता है तब कौन इनके लिए आवाज़ उठाता है? कौन इसकी रिपोर्ट्स दर्ज़ करता है या ये मामले रिपोर्ट हो पाते हैं? उनके पास इतना सहयोग होता है कि वह रिपोर्ट दर्ज़ करा पाए?

क्योंकि ये समाज में किसी चर्चित पेशे में नहीं है, समाज में इन्हें आखिरी में रख दिया गया है तो लोग इन्हें क्यों देखेंगे? 

बलात्कार के मामले तो हर दिन हो रहे हैं, और सिर्फ कलकत्ता में ही नहीं देश के हर कोने से। एनडीटीवी की 13 अगस्त की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में 57 साल के एक सरकारी अधिकारी ने 6 साल की दलित बच्ची के साथ उसके घर में ही बलात्कार किया और फिर बकरी के साथ भी वहशीयता की। मामले में आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया है। 

बिहार के मुज़फ्फरनगर में एक 14 साल की दलित नाबालिग बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी गई। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, 12 अगस्त 2024 को नाबालिग का शव मिला। अपराधियों ने नाबालिग के साथ अमानवीय तौर पर यौनिक व शारीरिक हिंसा करते हुए निर्दयता के साथ उसका ब्रेस्ट काट दिया, चेहरे पर धारदार वस्तु से चोट पहुँचाने के निशान थे,गुप्तांग,गले,हाथ और सिर पर भी गहरी चोटों के निशान पाए गए। मामले में आरोपी संजय सिंह सहित 5 अन्य आरोपियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज़ किया गया है। 

ये भी हाल ही के मामले में हैं लेकिन इन मामलों को लेकर कौन आवाज़ उठा रहा है? कौन मांग रहा है इंसाफ? इन समुदायों, जाति व पहचान के साथ हो रही हिंसा के लिए आवाज़ क्यों नहीं है? 

एक विशेषाधिकार रखने वाला समाज का एक वर्ग उठता है और चुनता है कथित पहचान,नाम,जाति और पेशा बलात्कार जैसी होने वाली हिंसाओं के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए। वह बलात्कार के खिलाफ नहीं बल्कि विशेष समुदाय व पहचान लिए आवाज़ उठाता है। मेरा यह लिखना बेहद ज़रूरी है यह बताने के लिए हमारा सहयोग कितना बंटा हुआ है, कितना संकीर्ण है और कहां है। 

लोग कह रहे हैं की यह #निर्भया-2 है, कोई #अभया के नाम से रेप के हिंसक मामले को ब्रांड बना रहे हैं। दिल्ली में आज से 12 साल पहले हुए निर्भया बलात्कार मामले के बाद भी देश के नियम में कोई बदलाव नहीं आया है जैसा की दावा किया जा रहा था। बलात्कार के मामलों के खिलाफ कोई सख्त कानून नहीं लागू किया गया। 

मेरा सवाल है, आप कौन है किसी महिला के साथ हुई जघन्य हिंसा को कोई भी नाम देने वाले? आप कौन हैं किसी हिंसा को ब्रांड बनाकर उसे नंबर देने वाले? जब हमारा समाज व उसमें रहने वाले विशेषाधिकार प्राप्त लोगों की आवाज़ें सिर्फ एकतरफा इन्साफ मांगती हैं। जब बिलकिस बानों अपने साथ हुई यौनिक हिंसा व सामूहिक बलात्कार के मामले को लेकर आवाज़ उठा रही थी तब कहां थी ये आवाज़ें व रौष? कहीं इसलिए तो चुप नहीं थी क्योंकि मुद्दा 

एक ऐसे समुदाय व पहचान से था, जिसे समाज न स्वीकृत करता है और न ही परवाह?

2012 से पहले भी देश में बलात्कार हो रहे थे, उसके बाद भी हो रहे हैं और अभी भी हो रहे हैं। हम कौन है किसी हिंसा को आंकने वाले? क्या जब तक बलात्कार व हिंसा के मामले में किसी की मौत नहीं होगी, उसके शरीर को छलनी नहीं किया जाएगा, उसे क्रूरता के वर्ग में लाने के लिए कृत्य नहीं किये जाएंगे, लोग उसे गंभीर मुद्दा नहीं कहेंगे? जिन मामलों के बारे में यहां हमने ऊपर बात की, वह मामले क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र से आते हैं, दलित व उनकी जाति व पहचान से जुड़े मामले हैं तो समाज उन्हें देख ही नहीं रहा क्योंकि वास्तविकता में समाज रोज़मर्रा के जीवन में भी इन पहचानों को अनदेखा करता है तो फिर जब यहां से हिंसा के मामले सामने आएंगे तो लाज़मी है कि वह इस पर कुछ कहेगा ही नहीं, क्यों?

सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस की 2024 रिपोर्ट की अनुसार, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों से पता चलता है कि 2015 से 2020 तक दलित महिलाओं के खिलाफ बलात्कार के मामलों में 45 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसके अलावा, डेटा से यह पता चलता है कि भारत में प्रतिदिन दलित महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ बलात्कार की 10 घटनाएं सामने आती हैं। 

लेकिन यह आंकड़े, यह मामले आज के शोर में, एकतरफा इन्साफ की गूंज में कहीं नहीं है। न प्रदर्शन हैं, न आवाज़ें और न ही कोई ज़िक्र। एक समाज का हिस्सा होने के तौर पर हम कहां खड़े हैं? किसका साथ दे रहे हैं? किसे छोड़ रहे हैं, किसका सहयोग कर रहे हैं? जिसे समाज ने हाशिये पर रख दिया, क्या वहां से सामने आ रही यौनिक हिंसा व रेप के मामलों के लिए आवाज़ उठा रहे हैं या क्या वहां से कोई आवाज़ आ पा रही है? 

इंसाफ की पहुँच का रास्ता व उसका समर्थन करने में हम एक समाज होने के नाते कहीं भेदभाव तो नहीं कर रहे? अगर इन मामलों को देखें तो भेदभाव तो साफ़ नज़र आ रहा है। अगर नहीं नज़र आ रहा है तो अपने पहचान,अपनी जाति व अपने विशेषाधिकार को टटोलिये, आपको समझ आएगा। 

 

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