लोकतंत्र की आत्मा है मताधिकार। लेकिन इस अधिकार के लिए लम्बा संघर्ष हुआ है।
उस पर महिला मताधिकार की राह तो मुश्किलों से भरी थी। ब्रिटेन को 2018 में महिलाओं को ये अधिकार दिए हुए सौ साल हो गए।
1918 में ये अधिकार पहली बार ब्रिटेन को महिलाओं को दिया गया था।
इस अधिकार को देने के लिए यहाँ लगभग एक सदी का समय लगा। दुनिया भर में महिलाओं के साथ लिंग भेदभाव हमेशा से रहा था और है।महिला मताधिकार की बात भारत के सन्दर्भ में, आजादी के साथ यानी 1947 में ये मताधिकार महिलाओं को मिला।
जो भारत जैसे पारंपरिक देश के लिए बड़ी बात थी।
आज़ाद भारत में वोटरों के संख्या पञ्च गुना तक बढ़ी। पर इसमें 85% महिलाओं ने वोट नहीं दिया था। उस समय महिलाएं अपना नाम मतदाता सूचि में देने से झिझकती थी। वो अपने नाम बताना ही नहीं चाहती थी।
वहीँ ब्रिटिश शासन में चुनाव सिमित होते थे। धार्मिक, सामुदायिक और व्यवसायिक धाराओं में बनती सीटों में जो उमीदवार खड़े होते थे उनके लिए सिमित मतदाता थे।
वहीँ महिलाओं को मताधिकार देने के लिए ब्रिटिश अधिकारी पक्ष में नहीं थे। उसके पिचा का तर्क महिलाओं का परदे में रहना था।
साथ ही कुछ लोग महिलाओं को ये अधिकार प्राप्त हो जाने से पति और बच्चों की उपेक्षा की बात कहते थे। इस समय सम्पति धारक महिलाएं कर देती थी पर वोट नहीं।
देश में मतदाता सूचि नवम्वर 1947 में तैयार होनी शुरू हुई ।
लेकिन 1948 में अधिकारीयों को महिलाओं के नाम लिखवाने में परेशानी आने लगी। महिलाएं अपना नाम नहीं बता रही थी।
आज़ाद देश में अक्टूबर 1951 से 1952 में चुनाव हुआ।
जिसमे महिलाओं के संख्या कम थी। महिलाओं को प्रेरित करने के लिए समाचार पत्रों ने बड़ा योगदान दिया।
देश में महिला मतदाता का प्रतिशत देखें तो वो कई बार पुरुषों के आंकड़ों से कम नहीं है।
आज महिलाएं अपने मताधिकारों के लिए जागरूक हैं और कई चुनावों में वे निर्णायक मतदाता की भूमिका भी निभाती हैं।