महिलायें मोती की माला बनाने का काम कर अपनी और अपने परिवार की ज़रूरतों को पूरा कर रही हैं।
रोज़गार मिल पाना आज के समय में दुर्लभ हो गया है। बेरोज़गारी अपनी चरमसीमा छू रही है। लोग नौकरी न मिल पाने से परेशान हैं। परिवारों की आर्थिक स्थिति बिगड़ती जा रही है। ऐसे में घर की महिलाएं, घर का खर्चा चलाने के लिए खुद कोई छोटे-मोटे काम करना शुरू कर देती हैं।
वाराणसी जिले के काशी विद्यापीठ, चुरावनपुर गाँव की रहने वाली महिलाओं ने मोती की माला बनाने का काम शुरू किया है। गाँव की पांच घर की महिलायें मोती की माला बनाने का काम कर अपनी और अपने परिवार की ज़रूरतों को पूरा कर रही हैं। पर वह किस हद तक अपनी ज़रूरतों को पूरा कर पा रहीं हैं, यह रोज़गार उनके लिए कितना लाभदायक है, यह सब इस आर्टिकल में जानेंगे।
ये भी देखें – किसान की बेटी समाज की बेड़ियाँ तोड़ बनी पत्रकार, सुनीता देवी। कोशिश से कामयाबी तक
रोज़गार को लेकर क्या कहती हैं महिलाएं?
ममता की मानें तो गाँव में किसी भी तरह का रोज़गार नहीं है। कमाई न होने से तनाव भी बढ़ रहा है। ऐसे में वह 6 महीने से मोतियों की माला बनाने का काम कर रही हैं। गाँव की पांच घर की महिलायें मोती बनाने का काम करती हैं। एक व्यक्ति उन्हें लाकर देता है और वह बैठकर बनाती हैं। मोती की माला बनाने से कुछ हद तक उनके मन का तनाव कम होता है।
ममता कहती हैं कि अगर वह एक दिन में एक दर्ज़न मोती बना लेती हैं तो उसका उन्हें 12 रूपये मिल जाता है। वह सुबह ही खाना बनाकर मोतियों की माला बनाने के काम में लग जाती हैं। वह यह भी बताती हैं कि जिससे जितना होता है लोग उतनी मोतियों की माला बनाते हैं। कोई दिन में एक दर्जन, कोई दो तो कोई तीन से चार दर्जन बना लेता है। ऐसे में वह लोग महीने में 15 सौ से 2 हज़ार रूपये तक कमा लेती हैं।
आगे कहा, गरीब के बच्चे मेहनत तो करते हैं पर पैसे की वजह से मात खा जाते हैं। पैसे की वजह से शिक्षा में कमी हो जाती है। वह यह सोचकर मोती बनाती हैं कि यह पैसे पढ़ाई में किसी काम आ जाएंगे। पढ़ाई में अगर कॉपी-किताब से संबंधित कुछ भी घटता है तो वह मोती से कमाये गए पैसों से उसे पूरा कर सकती हैं।
ये भी देखें – छतरपुर: मज़बूरी में शुरू किये रोज़गार से बनाई अलग पहचान
अन्य महिला कलावती लगभग तीन महीने से मोती बनाने का काम कर रही हैं। वह हफ़्ते में यह काम करके 100 रूपये तक कमा लेती हैं। इन्हीं पैसों से वह अपनी ज़रूरतें भी पूरा करती हैं। वह कहती हैं कि कटाई का काम भी नहीं है इसी वजह से वह मोती बनाने का काम करती हैं। वह चाहती हैं कि सरकार गाँव में भी कोई फैक्ट्री खोले ताकि महिलाएं भी काम कर सकें। काफ़ी समय से मनरेगा में भी काम नहीं है।
वह आगे कहती हैं कि मोती बनाने से घर का पूरा खर्च नहीं निकल पाता। साथ ही दिन भर बैठे-बैठे मोती बनाने की वजह से कमर टूटती है और स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है।
कहने को तो सरकार द्वारा महिला स्वरोज़गार योजना व यूपी महिला सामर्थ्य योजना चलाई जा रही है जो महिलाओं के सशक्तिकरण, व्यवसायिक यात्रा और उनके प्रोत्साहन की बात करती है। ज़मीनी स्तर पर ऐसा कुछ मालूम नहीं पड़ता। छोटे-मोटे रोज़गार के ज़रिये महिलायें किसी तरह से अपना परिवार चलाने की कोशिश तो कर रही हैं पर यह रोज़गार उनके स्वास्थ्य पर भी बुरा असर डाल रहें हैं। ऐसे में महिलाओं के नाम पर शुरू की गयी योजनाएं यहां विफल नज़र आती हैं।
इस खबर की रिपोर्टिंग सुशीला देवी ने की है।
ये भी देखें – चित्रकूट: मुझे गर्व है कि मैं एक दलित महिला हैंडपंप मैकेनिक हूं