रुद्राक्ष की माला सिर्फ पूजा का सामान नहीं है बल्कि चोलापुर के मुस्लिम महिलाओं के लिए यह रोजी – रोटी की उम्मीद की डोरी है जिसमें संघर्ष और उम्मीद का धागा बंधा हुआ है।
रिपोर्ट – सुशीला, लेखन – रचना
महंगाई के इस दौर में जब पेट भरने के लिए दो वक्त की रोटी भी संघर्ष मांगती है तब कुछ महिलाएं ऐसी भी हैं जो हालात के आगे हार मानने की जगह अपने हुनर और मेहनत से अपने लिए नए रास्ते बना रही हैं।
उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के चोलापुर ब्लॉक की एक छोटी से बस्ती की कुछ मुस्लिम महिलाएं रुद्राक्ष के मोतियों की माला बनाकर अपने घर का खर्च चला रही हैं। ये मुस्लिम महिलाएं ना सिर्फ अपना घर चला रही हैं बल्कि समाज और देश के लिए भी एक उदाहरण बन गई हैं कि पेट पालना किसी भी धर्म और जाति से बड़ा होता है।
रोजगार के तलाश में मिला रुद्राक्ष का सहारा
ये कहानी शुरू होती है चोलापुर की एक महिला शबनम से जो मुस्लिम समुदाय से आती हैं। जो एक साल से रुद्राक्ष का माला बनाने का काम करती हैं। शबनम अपने घर की सारी ज़िम्मेदारियों के साथ-साथ अपने और अपने बच्चों के अच्छे जीवन का भी जिम्मेदारी ले रखी हैं। शबनम से बात करने पर वे बतातीं हैं कि पहले वह केवल खाना बनाना, बच्चों को संभालना और पूरे घर को संभालना बस यही घरेलू काम में ही व्यस्त रहती थीं। कुछ समय तक ऐसा ही चलता रहा पर बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते गए तो घर और बच्चे दोनों की जरूरतें भी बढ़ने लगी। वे बताती हैं कि “जब बच्चे कुछ मांगते थे तो हाथ खाली होने पर दिल टूटता था। एक आदमी कमाने वाला और दस लोग खाने वाले। ऐसे में लगा कि कुछ करना ही पड़ेगा।” तभी शबनम ने एक साल पहले शहर में रुद्राक्ष की माला बनाने का काम देखा। उन्होंने वहां के लोगों से बात की, माला बनाने का तरीका सिखा और फिर गांव लौट कर दो और महिलाओं को अपने साथ जोड़कर माला बनाने का काम शुरू किया। वह रोज दो से तीन दर्जन रुद्राक्ष का माला बनाकर 50 से 70 रूपये तक की कमाई घर पर ही रहकर कर लेती हैं। हालांकि 50 से 70 रूपये वर्तमान समय के महंगाई के हिसाब से कुछ नहीं के बराबर है लेकिन इतने ही रूपये शबनम के लिए काफी मददगार है।
वे आगे बताती हैं कि यह माला बनाने का काम आसान लगता है पर है नहीं। माला बनाने के लिए सबसे पहले मोतियों को छाटना होता है फिर धागे में मोती पिरोना होता है। कई बार जिन मोतियों में छेद नहीं होते उनमें खुद से ही छेद करना पड़ता है। धागा काटते समय हाथों में सुई चुभ जाती है, बारीकी से काम करने के कारण आंखे में दर्द होता है। एक ही जगह बैठ कर घंटों काम करने से कमर अकड़ जाती है और कभी – कभी कमर में तेज दर्द उठने लग जाती है।
शाहरुन निशा की दोहरी जिम्मेदारी
शाहरुन निशा भी उसी बस्ती में ही रहती हैं और शबनम की तरह वह भी रुद्राक्ष की माला बनाने का काम करती हैं। शाहरुन निशा की खुद की दुकान भी हैं जहां वे रुद्राक्ष माला बनाकर बेचती हैं। वे बतलाती हैं कि जब दुकान में ग्राहक नहीं आते हैं तब वह दुकान पर ही माला बनाने का काम करती हैं। वे कहती हैं उन्हें बेचने बाहर जाने की जरुरत नहीं पड़ती शहर से लोग माला खरीदने आते हैं और दर्जनों माला खरीद कर ले जाते हैं। उन्होंने बताया कि एक माला में 105 रुद्राक्ष के मोती होते हैं। वे आगे कहती हैं कि “इस काम में बहुत मेहनत है और बहुत बारीकीयों से काम करना पड़ता है। आंखों में दर्द होता है लेकिन जब महीने के अंत में मेहनत के पैसे मिलते हैं तो लगता है कि कुछ तो हाथ में आया है, खुशी होती है। बच्चों को किसी चीज की जरुरत हो या घर के किसी काम में अगर चार से पांच सौ तक के पैसों की जरुरत होती है तो हम तुरंत ही वो काम कर लेते हैं।” उन्होंने बताया 1000 माला के पीछे 1500 का मेहनताना निकलता है। जब बच्चों की स्कूल की छुट्टी होती है तो बच्चे भी इस काम पर हाथ बंटाते हैं। वे कहती हैं “यह काम रोजगार और मन की शांति दोनों है। दुकान पर बैठ हुए काम चलता रहता है जिससे एक साथ दो काम हो जाते हैं।”
पसीने की मेहनत और आंखों की जलन
इन महिलाओं की काम की रफ़्तार भले ही धीमी हो लेकिन इरादा मजबूत है। सुबह पांच बजे से उठ कर घर का सारा काम निपटाने के बाद वे सुबह 11 बजे से लेकर दोपहर 4 बजे तक माला बनाने में जुट जाती हैं। छोटी मोती होने के कारण आंखें थक जाती हैं लेकिन मजबूरी के बीच मेहनत ही एकमात्र सहारा दिखता है। शबनम कहती हैं “बाजार में इसे लोग हाथ में, गले में पहनते हैं लेकिन हमारे लिए यह बस एक मोती नहीं उम्मीद का माला है और यही हमारा काम है। वे आगे कहती हैं कि यह माला बस उनके लिए एक काम है, हम इसे इज्जत से बनाते हैं जैसे बाकी लोग और भी रोजगार करते हैं।
एक बड़ा संदेश
यह बात ध्यान देने वाली है कि रुद्राक्ष जिसे आमतौर पर हिंदू धर्म का पवित्र प्रतीक माना जाता है उसकी माला बनाने का काम ये मुस्लिम महिलाएं कर रही हैं वह भी पूरे गर्व, इज्जत और मेहनत से। जब देश में धार्मिक पहचान और धार्मिक प्रतीकों पर बहस तेज है तब इन महिलाओं की जिंदगी समाज को एक सशक्त जवाब देती है। इनकी यह मेहनत यह भी बताती है कि कोई धर्म और जाति के हिसाब से काम को पेट की भूख के लिए नहीं बांटा जा सकता। यह उदाहरण बताता है कि इंसान की असली पहचान उसके कर्म और मेहनत से होती है न कि उसके धर्म से।
चोलापुर गांव की इन मुस्लिम महिलाओं ने यह साबित कर दिया है कि काम छोटा या बड़ा नहीं होता, धर्म या जाति से जुड़ा नहीं होता। जब पेट पालने की बात आती है, तो इंसान वही करता है जिससे आत्मसम्मान बना रहे और चूल्हा जलता रहे। देश जब धार्मिक ध्रुवीकरण की ओर बढ़ रहा है तब इन महिलाओं का रुद्राक्ष से रिश्ता सिखाता है कि असली धर्म मेहनत है और इंसानियत भी।
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