खबर लहरिया Blog UP NEWS: जबलपुर से लखनऊ तक ट्रेनें कम, जनरल डिब्बों में होते हैं झगड़े

UP NEWS: जबलपुर से लखनऊ तक ट्रेनें कम, जनरल डिब्बों में होते हैं झगड़े

जनरल टिकट लेने वाले यात्रियों के पास सिर्फ जनरल डिब्बे में चढ़ने का ही मौका बचता है क्योंकि जरनल में सफर करने वाले ज्यादातर गरीब वर्ग के और मजदूर लोग होते हैं।

crowd in train

ट्रेन में भीड़ (फोटो साभार:गीता)

लेखन – गीता

जनरल यात्री ज्यादा और डिब्बे सिर्फ चार 

जबलपुर से लखनऊ के बीच बुन्देलखण्ड से हो कर जाने वाली सीधी ट्रेन एक ही है जिसकी ट्रेन संख्या 15206 है इसमें चार जनरल डिब्बे होते हैं जो दो आगे और दो पीछे लगी होती हैंजो रिजर्वेशन वाले डिब्बे होते हैं वो तो आप सब को पता है कि अक्सर महीनों पहले फुल हो जाते हैं। जनरल टिकट लेने वाले यात्रियों के पास सिर्फ जनरल डिब्बे में चढ़ने का ही मौका बचता है क्योंकि जरनल में सफर करने वाले ज्यादातर गरीब वर्ग के और मजदूर लोग होते हैं। उनके पास इतना पैसा नहीं होता कि वह रिजर्वेशन महंगे दामों में कर सकें। इसका नतीजा ये होता है कि सीट में बैठने को लेकर अक्सर यात्रियों के बीच नोक झोक और धक्का-मुक्की हर रोज होती है।

जनरल डिब्बा है मशक्क्त का अखाड़ा 

अभी हाल ही में मैं और मेरी सहेली इस ट्रेन में 28 मई को बांदा स्टेशन से लखनऊ जाने के लिए चढ़े। हमारे जान पहचान की एक महिला साथी भी मिल गईं हमने देखा कि ट्रेन में इतनी ज्यादा भीड़ थी कि पैर रखने के लिए जगह नहीं थी बहुत मुश्किल से धक्का मुक्की करके ट्रेन के अंदर घुसे लेकिन वहां लोग हमें सीट में बैठना तो दूर बैग भी रखने की जगह नहीं दे रहे थे यात्री, जो पहले से बैठे और खड़े थे ट्रेन के अंदर रास्ते और सीट के नीचे लोग लेटे थे जो दूर से मजदूर वर्ग के लोग सफर करके आ रहे थे। घाटमपुर की एक फैमिली थी जो मैहर से आई हुई थी और उस फैमिली के बहुत सारे लोग थे वह अपने आगे किसी को बैठना या बैग रखना भी मंजूर नहीं कर रहे थे उन्होंने बैग रखने तक की जगह नहीं दी और बहुत ज्यादा लड़ाई हो गई समझिए कि बांदा से लेकर घाटमपुर तक उनसे लड़ाई होती गई। जब वह घाटमपुर में उतर गए तब सांस में सांस आई और घाटमपुर से हमको बैठने के लिए जगह  मिली। खैर यात्रा तो हमने बहुत की है और आए दिन करते हैं ट्रेनों की लेकिन जब से रिजर्वेशन में जाने लगे तो जनरल की कुछ आदत भी छूट गई हैदूसरी बात इतनी ज्यादा लड़ाई और जिस तरह की भीड़ थी ऐसा लग रहा था कि कहां से ट्रेन में चढ़ गये अब मैं तो सोच रही थी कि आज के बाद कुछ भी हो पर मैं इस ट्रेन में नहीं आऊंगी लेकिन बार-बार मेरे मन में यह सवाल आ रहा था कि मैं तो नहीं आऊंगी लेकिन जो बेचारे गरीब मजदूर वर्ग के लोग दूर-दूर से पलायन करके रोजगार के लिए आते जाते हैं उनकी इस तरह यात्रा करना कितना जोखिम भरा होता होगा जिस तरह वह लेटे थे लोग उनकी नाम के ऊपर से लोग डाक कूद रहे थे उनके ऊपर पैर रखकर भी निकल रहे थे यह सब कहीं न कहीं रेलवे की व्यवस्था को दर्शाता है जो ट्रेन की कमी के कारण इतनी ज्यादा भीड़ है। ट्रेन रुकते ही लोग दौड़ते हैं चढ़ने के लिए और एक सीट पाने की होड़ मच जाती है। कई बार लोग चलती ट्रेन में भी चढ़ने की कोशिश करते हैं ताकि उनको बैठने के लिए सीट मिल सके जो जानलेवा भी साबित हो सकता है।

सीट रोकने की मानसिकता

कुछ यात्री पहले से पहुंचकर सीटों पर बैग, कपड़े आदि रख देते हैं और बाद में अपने साथियों के लिए जगह रोकते हैं। इससे भी अन्य यात्रियों में अक्रोश और विवाद होता है लेकिन महिलाएं, बुजुर्ग और बच्चे बहुत परेशान हो जाते हैं। इस अव्यवस्था का सबसे ज्यादा असर महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों पर ही पड़ता है। उन्हें न बैठने की जगह मिलती है और न ही ठीक से खड़े होने की झगड़ों के दौरान वे मानसिक और शारीरिक रूप से असुरक्षित भी महसूस करते हैं।

झगड़े सिर्फ असुविधा नहीं, सुरक्षा का भी सवाल

एक महिला कहती हैं कि उसका तो लखनऊ कोर्ट में मुकदमा चल रहा है तो अक्सर आना-जाना होता है। कई बार सीट को लेकर छोटी नोंक-झोंक और कई बार बड़ा मामला बन जाता है। लोग हाथापाई, गाली-गलौज पर उतर आते है। गर्मी के कारण भीड़ से लोगों की हालात भी बिगड़ जाती हैं। अगर जबलपुर से लखनऊ के बीच सीधी ट्रेनों की संख्या बढ़ जाए तो हो सकता है कि थोड़ा राहत मिले

सुरक्षा बल की तैनाती

जनरल डिब्बे में जिस तरह की स्थिति है ऐसे में तो रेलवे विभाग को चाहिए कि पुलिस तैनाती की जाए ताकि झगड़ों पर तुरंत कार्रवाई हो सके और जो भीड़ में लोगों के बीच तनाव बढ़ता है उसे रोका जा सके। रेलवे विभाग को यह भी इंतज़ाम करना चाहिए कि वह पोस्टर, घोषणाएं और वीडियो के माध्यम से यात्रियों को समझाए कि सभी के पास यात्रा का समान अधिकार है। संयम बनाकर और मिल जुलकर यात्रा करें। सीट को लेकर लड़ाई झगड़ा न करें वरना कार्यवाही की जा सकती है, ताकि यात्री जागरूक हो सकें।

 

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