इस गांव में लगभग सौ से अधिक महिलाएं घर की साथ खेतों के फसलों और बाड़ी में लगे सब्ज़ियों के जाल बनाने का काम करती हैं। महिलाएं यह काम पिछले दस सालों से लगातार कर रही हैं।
रिपोर्ट – सुशीला
किसान के द्वारा खेती की जाती है और खेती में कितने खाद लगेंगे, कितना पानी चाहिए इससे संबंधित सब चीजों की जानकारी किसानों को होती है। किसान अपने फसलों की देखभाल करते उसे जंगली-जानवर से सुरक्षित रखने के लिए दिन-दिन भर खेतों में बैठे होते हैं लेकिन कई किसान अपने फसलों को बचाने के लिए एक बड़ा सा जाल (प्लास्टिक की जाली) खेतों के चारों तरफ लगा कर रखते हैं। उस जाल को बनाने वाले लोगों को कोई नहीं जनता और न ही जाल बनाने की प्रक्रिया को। वाराणसी के गांव सरायमोहाना में कुछ ऐसे लोग हैं जो उस जाल को बनाने का काम करते हैं।
उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के चिरईगांव ब्लॉक के अंतर्गत सरायमोहना गांव में महिलाएं एक अनोखे और छोटे स्तर के रोजगार के जरिए ना सिर्फ अपने परिवार का सहारा बनी हुई हैं बल्कि किसानों की खेती भी सुरक्षित कर रही हैं। महंगाई के इस दौर में जहां एक आम परिवार के लिए दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो गया है। वहीं इस गांव की महिलाएं अपने हुनर और मेहनत से एक नई राह बना रही हैं।
जिम्मेदारियों के साथ रोजगार
इस गांव में लगभग सौ से अधिक महिलाएं घर की साथ खेतों के फसलों और बाड़ी में लगे सब्ज़ियों के जाल बनाने का काम करती हैं। महिलाएं यह काम पिछले दस सालों से लगातार कर रही हैं। पुरुष अक्सर बाहर काम की तलाश में रहते हैं पर उनका रोजगार स्थायी नहीं होता। ऐसे में महिलाओं ने घर बैठे ही रोजगार का रास्ता खोज निकाला। सुमन जो स्कूल में पढ़ाई करती हैं बताती हैं कि वे सुबह स्कूल जाती हैं और फिर दोपहर में वापस आने के बाद घर का सभी काम निपटा कर जाल बनाने के काम में लग जाती है। इससे रोज चालीस से पचास रुपये तक की आमदनी हो जाती है जिससे स्कूल फीस, किताबें और छोटे-मोटे खर्चे पूरे हो जाते हैं।
महिलाएं चुनौतियों से लड़ती हैं
महिलाओं के लिए यह काम आसान नहीं है। संतोषी नाम की एक महिला से बात करने पर वे बतातीं हैं कि सुबह पांच बजे उठकर चूल्हा-चौंका, बच्चों की स्कूल जाने की तैयारी, कपड़े धोना से लेकर घर के सारे काम खतम कर वे इस जाल बनाने के काम में लग जाती हैं। उन्होंने इसकी प्रक्रिया बताते हुए कहा कि पहले वे धागे ख़रीद कर लाते हैं और फिर धागे को पहले अलग करना पड़ता है। फिर रस्सी को एक डंडी में लपेटा जाता है। इसके बाद ही जाल बनाते हैं। एक जाल (जाल का टुकड़ा) बनाने में क़रीब एक से डेढ़ किलो का धागा लग जाता है। यह जाल किसानों के लिए बहुत उपयोगी साबित होता है क्योंकि इससे वे अपने खेतों को जानवरों से बचा सकते हैं। खासकर नीलगाय, बकरी और गाय जैसे पशुओं से सब्जी और फूलों की फसल को बचाने में यह जाल बहुत सहायक है।
आत्मनिर्भरता की मिसाल
फुला नाम की एक बुजुर्ग महिला कहती हैं “बेटे-बहू कहते हैं कि अब ना बनाओ लेकिन मन नहीं मानता। जब दो-चार सौ रुपये मिलते हैं तो खुद के खर्च के लिए किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता। पोता आ जाए कोई सामान चाहिए हो तो अपने पैसों से ले लेते हैं।”
महिलाएं घर के कामों के बाद रोज 3 से 4 घंटे इस काम को देती हैं।
जाल का बनाने का कच्चा माल व्यापारी के माध्यम से गांव में आता है और महिलाएं उसे घर पर बनाकर फिर से व्यापारी को सौंप देती हैं। व्यापारी बाद में यही जाल किसानों को बेचता है। जाल की लंबाई लगभग 5 से 6 फीट होती है जिसमें एक किलो से अधिक धागा लगता है।
किसानों के लिए भी लाभकारी
किसानों के लिए यह जाल बेहद लाभकारी साबित होता है। गांव के किसानों से भी बात की गई। एक सूखा नाम के किसान का कहना है यह जाल 100 रुपये में खरीदते हैं और खेत के चारों ओर लगाते हैं। इससे फसलें जानवरों से सुरक्षित रहती हैं। अगर सही तरीके से लगाया जाए तो यह साल भर चलता है।
देखा जाए तो यह रोजगार सिर्फ धागों और जाल तक सीमित नहीं है बल्कि इसमें छुपी है मेहनत लगन और संघर्ष जो परिवार को संबल और किसानों को सुरक्षा देती है।
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