बुंदेलखंड की पहचान भले ही सूखे और कठिन ज़मीन के लिए हो, लेकिन इसी धरती पर कुछ फसलों ने लोगों की आजीविका को थामे रखा है। खेतों में जब फसल लहलहाती है तब उसके काटने का इंतजार रहता है, फसल कटने के बाद भी खेतों में एक उम्मीद बिखरी रहती है जिसे सीला कहते हैं।
रिपोर्ट – श्यामकली, लेखन – सुचित्रा
सीला यानी फसल का वो हिस्सा जो फसल कटने के बाद खेतों में ही गिर जाता है। जैसे धान, गेहूं की बालियां अक्सर खेतों में गिर जाती है। इसके बाद खेतों में गांव की महिलाएं, बच्चे और मजदूर सिला बीनने आते हैं और इस फसल के हिस्से को वो बाजार में बेच कर घर की छोटी जरूरत को पूरा करते हैं। बच्चे अपने पसंद की चीज़ दुकानों से खरीद कर खा लेते हैं। इसके पीछे कई कहानियां है जो हमने कभी न कभी खुद भी अनुभव की होगी। उन्हीं में से एक है मूंगफली, जिसकी खेती बुंदेलखंड के कुछ ही जिलों में होती है, जिसकी शुरुआत महोबा से मानी जाती है।
महोबा की मिट्टी और जलवायु मूंगफली के लिए अनुकूल मानी जाती है। यहां के किसान खरीफ के मौसम में मूंगफली की बुवाई करते हैं और रबी में चना और गेहूं की खेती होती है।
सीला बीनने में महिलाओं की हिस्सेदारी
इन फसलों की असली कहानी खेतों में मेहनत करने वाली महिलाओं के बिना अधूरी है। खेतों में मूंगफली की बुवाई, गुड़ाई, उखाड़ाई से लेकर मूंगफली का सीला बीनने तक हर काम में महिलाएं बड़ी संख्या में जुड़ी हैं। जब मूंगफली की फसल उखड़ जाती है तो गांव की महिलाएं खेतों में सीला बिनती हैं। दिनभर की मेहनत के बाद जो मूंगफली उनके झोले में आती है वह सिर्फ सीला नहीं बल्कि उनके परिवार के लिए कुछ दिनों की रोजी रोटी का इंतज़ाम होता है। यह काम सिर्फ खरीफ की फसल में नहीं रहता। रबी के मौसम में जब चना और गेहूं की फसलें आती हैं, तब भी यही महिलाएं खेतों में उतरती हैं। चाहे सीला बिनना हो, कटाई करना हो। इतना ही नहीं इसी दाने को बाजार में बेच कर घर के और खर्च भी पूरे करती है।
कुलपहाड़ की रहने वाली देव कुंवर बताती हैं कि “जब हम खेतों में बकरियाँ चराने जाते हैं तो मूंगफली का सीला बिना करते थे क्योंकि खेतों में इतनी मूंगफली बोई गई है कि बिना सिला बेचे काम नहीं चलता। चाहे मूंगफली खाने लायक हो या न हो, हम उसे चुनकर अपने घर ले आते हैं। इस साल जैसी मूंगफली खेतों में पहले कभी नहीं देखी गई।”
सीला बेचकर घर का खर्च चलाती महिलाएं
सुमित्रा बताती हैं कि “बारिश की वजह से मूंगफली खेतों में ही बिखरी पड़ी है। हम लगभग 10-10 महिलाएँ इकट्ठा होकर मूंगफली का सिला बीन रही हैं क्योंकि जो मूंगफली के पौधे थे उनमें फल नहीं लगे। सारी मूंगफली खेत में गिर गई है। हम रोज़ लगभग ढाई पसेरी, यानी एक बोरी मूंगफली बीनकर घर ले आते हैं जिससे करीब 10 रुपये की खाद निकल जाती है। यह मूंगफली का सिला हम पिछले 8 दिनों से बीन रहे हैं। ऐसा लगता है कि फिलहाल इसी से हमारा घर खर्च चल जाएगा, क्योंकि इस समय मजदूरी भी नहीं मिल रही है और यही हमारे रोज़मर्रा की जिंदगी का सहारा बन गई है।
खाली बैठकर क्या करें? सीला बीन लेते हैं – महिलाएं
नाथू के खोड़े की महिलाओं ने बताया कि घर में बैठकर क्या करें जब तक खेतों में दाना दिख रहा है और जुताई नहीं हुई है तब तक हम मूंगफली का सीला बीन लेते हैं। घर से खाना बनाकर सुबह 10:30 बजे खेतों में पहुँच जाते हैं और फिर शाम 4 बजे तक मूंगफली का सिला बीनते रहते हैं। यही हमारा रोज़ का काम बन गया है।
राम देवी बताती हैं कि मेरी उम्र लगभग 50 साल हो गई है। पहले मैं घर पर बैठकर ही काम करती थी और परिवार की देखभाल करती थी। जब हमारे गाँव की महिलाएँ मूंगफली का सीला बीनने खेतों में जाने लगीं और खूब मूंगफली मिलने लगी, तो मैंने उनसे पूछा — “क्या मैं भी चल सकती हूँ?”
उन्होंने कहा कि खेतों में बहुत मूंगफली बिखरी हुई है, तुम भी हमारे साथ चलो। तब से मैं भी पिछले दो दिनों से मूंगफली का सीला बीनने जा रही हूँ। वैसे मैं ज्यादा चल नहीं पाती लेकिन जहाँ सब साथ में बैठते हैं वहाँ एक-दूसरे को देखकर हौसला मिलता है। इसी तरह हम सब मिलकर मूंगफली का सीला बीनते हैं।
चरखारी कस्बे की राजबाई बताती हैं कि पाँच दिन पहले हम मजदूरी करने सिरमौर गाँव आए थे, मूंगफली के बोरे समेटने के लिए। पूरे दिन हमने खेतों में पड़ी मूंगफली इकट्ठा की। उन्होंने कहा, “भई, जो मूंगफली मिट्टी में मिल गई है, उसे कौन उठाएगा? अगर तुम लोग बीनना चाहो, तो बीन लो हमें कोई आपत्ति नहीं। फिर हम लगभग 10 महिलाएँ 7 तारीख को वहाँ पहुँचीं और दिनभर मेहनत करके लगभग 10 बोरी मूंगफली बीनकर घर ले गईं।
अभी हम मूंगफली का सिला इकट्ठा कर रहे हैं, और जब पर्याप्त मात्रा में जमा हो जाएगा, तब हम उसे बेचेंगे। जब महोबा जिले की महिलाओं से पूछा गया कि वे कितने दिन से मूंगफली का सीला बीन रही हैं, तो उन्होंने बताया “वैसे तो हम हर साल मूंगफली का सिला बीनते हैं, लेकिन पहले के सालों में जितनी मिलती थी, उतनी इकट्ठा कर लेते थे। ठंड के मौसम में मूंगफली खूब काम आती है, इसलिए उसे रिश्तेदारों को भी भेज देते थे। मूंगफली गर्म तासीर की होती है और ठंड में खाने के लिए फायदेमंद रहती है। बे-मौसम बरसात की वजह से फसल ख़राब, सिला नहीं मिला
इस बार बारिश ने फसल पर भी असर डाला है जिसकी वजह से खेतों में मूँगफली की फसल भी पहले जितनी पैदावार नहीं हो पाई है। महिलाओं ने बताया अब तो खेतों में मूंगफली तो पड़ी है पर खाने लायक नहीं रही, पूरी तरह सड़ चुकी है। अगर कोई खा भी ले, तो स्वाद बिल्कुल खराब लगता है और मुंह का स्वाद बिगड़ जाता है।
हम पिछले 5–6 दिनों से मूंगफली का सिला बीन रहे हैं और शायद 2–4 दिन और बीनेंगे। अब तक कितनी मूंगफली इकट्ठा हुई है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है, क्योंकि हर खेत में मूंगफली बिखरी हुई है। कोई भी किसान हमें रोकता नहीं जहाँ चाहो, वहाँ जाकर मूंगफली का सीला बीन सकते हैं।”
बच्चे चाट, समोसा खाने के लिए बीनते हैं सीला
क्रांति बताती हैं कि हमारे कुलपहाड़ क्षेत्र में बहुत अधिक मात्रा में मूंगफली की खेती होती है। हम पढ़ाई भी करते हैं, लेकिन लगा कि अगर एक-दो दिन मूंगफली का सीला बीन लें, तो कुछ पैसे हमारे खर्च के लिए हो जाएंगे। इसी कारण हम पिछले दो दिनों से स्कूल भी नहीं गए हैं, मूंगफली का सीला बीनने में लगे हैं। जब क्रांति से पूछा गया कि जो मूंगफली का सिला वे बीन रही हैं, उसे बेचकर जो पैसे मिलेंगे, उनका क्या करेंगी, तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा “समोसा और चाट खाएँगे, और कपड़े भी खरीदेंगे।”
सीला बेचकर ले आती हैं सब्जी
लाडपुर गाँव की शीला बताती हैं कि जब हम बकरियाँ चराने जाते हैं, तो उसी दौरान मूंगफली का सीला भी बीन लेते हैं। शाम को घर लौटते समय उसे दुकान में बेच देते हैं और उसी पैसों से सब्ज़ी-भाजी खरीद लाते हैं। जब तक खेतों की जुताई नहीं होती, तब तक इसी तरह हमारा घर का खर्च आराम से चलता रहेगा। अब हमें किसी से यह कहने की ज़रूरत नहीं पड़ती कि “सब्ज़ी ले आओ” हम खुद मूंगफली का सिला बेचकर ले आते हैं।
जब दुकानदारों से पूछा गया कि बच्चे और महिलाएँ जो मूंगफली का सीला बीनकर लाती हैं, उसे आप कितने भाव में खरीदते हैं और आगे क्या करते हैं। उन्होंने कहा “हम छोटे-मोटे दुकानदार हैं। यह मूंगफली हम 25 से 30 रुपये प्रति किलो के भाव से खरीद रहे हैं क्योंकि यह बिल्कुल खराब है और खाने लायक नहीं रही। हर साल हम यही मूंगफली 40 से 50 रुपये किलो में खरीदते थे लेकिन इस बार की मूंगफली में खाने वाला दाना ही नहीं है। संभव है कि व्यापारी इसे आगे ले जाकर बड़े-बड़े दाने छांटें और उनसे तेल निकलवाकर बेचें।”
महिलाओं के साथ बच्चे भी सीला बीनने चले जाते हैं। सिला बीनना इन महिलाओं के रोजमर्रा के जीवन का एक हिस्सा है जो उनके लिए एक उम्मीद है। ये सीला उनके घरों के खर्चे चलाने में मदद करती है।
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