बाज़ारों में मशीनों से बनी चमकीली, फैंसी और प्लास्टिक से सजी राखियों ने जगह ले ली है। व्यापारी अब फैक्ट्री से बनीं रखियां खरीदकर कर लाते हैं। इससे हाथ से बनी राखियों की मांग अब घटती जा रही है।
रिपोर्ट – नाजनी, लेखन – रचना
रक्षा बंधन बस एक दिन दूर है। बाजार रंग-बिरंगी चमचमाती राखियों से सजी हुई है लेकिन बांदा के खुटला मोहल्ले में एक खामोशी पसरी हुई है। यह वही मोहल्ला है जहां कभी रक्षा बंधन से दो महीने पहले ही रौनक शुरू हो जाती थी। यहां की मुस्लिम महिलाएं शबीना, रज़िया, सफीना, नफीसा और कई महिलाएं अपने हाथों से रखियां बनाती थीं। उनमें मेहनत भी थीं, इज्जत भी थी और सबसे बड़ी बात हिंदू – मुस्लिम भाईचारे की मिशाल भी थीं। मुस्लिम महिलाएं अपने हुनर से उन धागों को राखी में बदल देती थीं। मोहब्बत और मजहबी भाईचारे की एक मजबूत डोर बुनी जाती थी। पर आज ये परंपरा मशीनों, फैंसी राखियों और समाज में बढ़ते धार्मिक तनाव की वजह से खत्म होती जा रही है।
राखी की तैयारी और मोहल्ले में चहल-पहल
उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के खुटला जिले में रक्षा बंधन में राखी बनाने के तैयारियों में महिलाएं जुट जाती थीं। मुस्लिम महिलाएं अपने – अपने घरों में आंगन में बैठ कर हाथों से सुंदर-सुंदर रखियां बनाती थीं। गलियों में जगह-जगह महिलाएं राखियों का सामान लेकर बैठतीं, एक दूसरे बात करतीं, हंसी ठिठोली होती और राखी बनाते-बनाते पूरा मोहल्ला जैसे त्योहार में डूब जाता। मोहल्ले की शबीना कहती है कि “वो दिन कुछ और ही थे रखी बनाने के काम में इतनी व्यस्त रहती थी कि मिलने का वक्त नहीं मिलता था। आज दिनभर दरवाजे पर बैठे-बैठे गप्पे मारते हैं। कभी-कभी अकेले बैठे समय काटना मुश्किल हो जाता है।”
मशीनों ने ले ली हाथों से बनी राखियों की जगह
अब दुनिया बदलती जा रही है। अब बाज़ारों में मशीनों से बनी चमकीली, फैंसी और प्लास्टिक से सजी राखियों ने जगह ले ली है। व्यापारी अब फैक्ट्री से बनीं रखियां खरीदकर कर लाते हैं। इससे हाथ से बनी राखियों की मांग अब घटती जा रही है। मुन्नी बाई कहती है कि “25 साल से राखी बना रही थी। इसी पैसे से बच्चों की किताबें, राशन और छोटी-मोटी चीजें खरीद लेती थी। लेकिन अब ये काम खत्म हो गया है। फैक्ट्री की राखियों से मुकाबला करना नामुमकिन हो गया है।” अगर देखा जाए तो मशीनों ने भी लोगों का काम छिन लिया है। बेरोजगारी का एक कारण बढ़ती मशीनीकरण भी है। जहां दस लोगों के काम को वो अकेला कर लेता है वो चाहे बड़े कारख़ाने हो या फिर छोटी मजदूरी।
नफीसा बताती है कि एक समय था जब एक ग्रुज (दर्जन) 25 पैसे में बिकता था। धीरे-धीरे रेट बढ़ते गए लेकिन जैसे ही तीन रुपए हुए हमारा काम ठप हो गया। महिलाएं 50-50 ग्रुज तक रोज बनाती थीं। कुछ तो उससे भी ज़्यादा और अब बस यादें रह गईं हैं।
खत्म हो रहा भाईचारा
इस समय देश में चल रही हिंदू-मुस्लिम के मुद्दों और लड़ाई ने लोगों के मन में डर पैदा कर दिया है।
रज़िया बताती हैं अब जो थोड़ी बहुत राखी बन भी रही है उस पर बोलने से भी डर लगता है लोग कहेंगे कि मुस्लिम हैं और हिंदुओं के त्योहार से रोजगार चला रही हैं कहीं जो थोड़ा बहुत काम बचा है वो भी न चला जाए। मुस्लिम महिलाएं जो कभी रक्षाबंधन के त्योहार को भी अपनी रोज़ी-रोटी और भाईचारे से जोड़ती थीं, अब चुपचाप बैठने को मजबूर हैं। शबीना कहती हैं “राखी सिर्फ धागा नहीं था। वो हमारे और इस समाज के बीच का रिश्ता था। अब सब खत्म हो रहा है। ना काम बचा है ना वो अपनापन।”
धागे से टूटते रिश्ते और रोजगार
रक्षाबंधन कभी सिर्फ हिंदू त्योहार नहीं था इस मोहल्ले में। यहां मुस्लिम महिलाएं राखी बनाती थीं और हिंदू भाई-बहन उन्हें बांधते थे। ये त्योहार एकता और साझी संस्कृति की मिसाल बन गया था लेकिन आज मशीनों और बदलते सामाजिक माहौल ने इस परंपरा को तोड़ दिया है।
अब खुटला की गलियों में न वो रौनक है न वो हंसी-ठिठोली। राखी बनाना जो कभी गर्व और रोजगार का कारण था अब बीती कहानी बनता जा रहा है। धार्मिक तनाव ने इन महिलाओं के हौंसले को डरा दिया है। एक तरफ़ मशीनों ने इनका काम छीन लिया तो दूसरी ओर समाज के डर ने इनके मुंह पर ताले लगा दिए।
नफीसा बतातीं हैं उन्होंने 25 साल राखी बनाने का काम किया खुद भी बनातीं थी और महिलाओं को भी रोजगार देती थीं महिलाएं पूरे दिन राखी बनाने में लगी रहती। वे रक्षा बंधन से पहले ही बार बार पूछतीं कब आ रहीं हैं राखी? राखी बनाने के लिए महिलाएं सुबह से उठकर घर के काम करतीं बच्चों को स्कूल भेजतीं फिर बैठ जाती राखी बनाने। अपने आप को लक्ष्य लेकर की ग्रुज बनाकर ही उठेंती। जिनकी खुद की दुकान है बजार में बस वही नाम मात्र के लिए बना रहीं हैं राखी। पहले इस मोहल्ले में इतनी रौनक होती थी इस समय सब अपने अपने दरवाजे गलियों, सूपों में राखी का मटेरियल लेकर बैठ जातीं थीं एक दूसरे से बातें करते बातों बातों में कॉम्पटीशन (प्रतियोगिता) भी कौन कितनी राखी कितने समय में बनाएगा।
उम्मीद बाकी है…
हालांकि खुटला की महिलाएं आज भी चाहती हैं कि वो दौर फिर लौटे जब हाथों से बनी राखियां सिर्फ बाजार में नहीं दिलों में भी जगह बनाती थीं। जब एक धागा रोजगार का भी जरिया था और रिश्तों की डोर भी। सिर्फ रोजगार ही नहीं बल्कि वो आपसी एकता और सांप्रदायिक भाईचारा भी धीरे धीरे बदलते माहौल में कम होता जा रहा है।
वे चाहती हैं कि समाज फिर से वही भाईचारा दिखाए जब यह नहीं देखा जाता था कि राखी कौन बना रहा है और कौन राखी बांध रहा है।
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