चित्रकूट का पाठा क्षेत्र और वहां के कोल आदिवासी समुदाय का एकमात्र रोजगार जंगल से लकड़ी लाना और बेचकर घर खर्च का जुगाड़ जग जाहिर है। इस काम की सहायक जीवनदायिनी रेलगाड़ी वह भी पैसेंजर ट्रेन। कानपुर से इलाहाबाद (प्रयागराज) और झांसी से इलाहाबाद तक चलने वाली दो ट्रेन हैं। इन ट्रेनों में सवार होकर आदिवासी महिलाएं और लड़कियां हर रोज जंगल जाती, लकड़ी लाती और फिर शहर जाकर बेचती आ रही हैं। अब कोरोना महामारी के चलते इन ट्रेनों के बंद होने के साथ ही इनका रोजगार भी बंद हो गया।
किसी तरह से ट्रेन चलने तक दिन गुजारे। अब जब ट्रेन चलना शुरू हुई तो उनको दोबारा से अपने पुराने रोजगार की उम्मीद जागी। ट्रेन चलते देखकर चल पड़े अपने पुराने रोजगार पर। इस बार सारे नियम बदल चुके थे। ट्रेन पर बेगैर टिकट नहीं चढ़ सकते चाहे भले ही रोज क्यों न जाना पड़े। वह भी टिकट बड़े स्टेशनों में ही मिलेगी जो कि उनके यहां से लगभग दस से पंद्रह किलोमीटर दूर मानिकपुर जंक्शन है। वहां तक जाने के लिए किराया चाहिए फिर टिकट कराने के लिए पैसा चाहिए तो इतना पैसा कहां से लाएं।
टिकट भी बहुत महंगी हो गई है। इतना करने के बाद भी एक दिन में टिकट नहीं मिलता। अब जिसको रोज ट्रेन में सवार होना है उसको टिकट कैसे मिल पाएगी। सरकार ऑनलाइन सुविधा पर जोर दे रही है लेकिन इनके पास स्मार्टफोन भी होना चाहिए। खाने के लाले हैं तो स्मार्टफोन कहां से आएगा। भोंडी नाम की महिला का कहना कि उनके पास मोबाइल नहीं है तो कैसे ऑनलाइन करें फिर ऑनलाइन करना भी तो आना चाहिए।
कई दिन के बाद टिकट मील फिर ट्रेन में चढ़ने को मिले तो इस तरह में उनके लड़के बच्चे भूखो न मर जायेंगे? चाहे मारो या गाली दो चाहे लकड़ी छीन लो वह लोग तो जाएंगे ही। संगीता बताती है कि उनको मोदी सरकार से अपील है कि दोनों पैसेंजर चलाई जाएं ताकि उनके बच्चे भूखों न मरें। टिकट की सुविधा को साधारण बनाई जाए जैसे पहले थी। टेक्नोलॉजी का दौर इस समुदाय का निवाला छीन रहा है जबकि सरकार का जोर टेक्नोलॉजी के ऊपर है।