खबर लहरिया ताजा खबरें योजना, आय, साधन : सब सुविधाओं से लड़ते यूपी के आदिवासी लोग

योजना, आय, साधन : सब सुविधाओं से लड़ते यूपी के आदिवासी लोग

बुंदेलखंड के मानिकपुर ब्लॉक में रहने वाले हज़ारों आदिवासी परिवारों से उनका एकमात्र आय का साधन भी उनसे छिन गया है। जब से प्रधानमंत्री द्वारा लॉकडाउन की घोषणा की गयी तब से ही उनके लिए परेशानियां बढ़ती गयी। लॉकडाउन से पहले मानिकपुर ब्लॉक के आदिवासी जंगलो से लकड़ियां काटकर उन्हें ट्रेन के ज़रिए चित्रकूट, बांदा आदि शहरों में बेचकर आते थे। जिससे की वह परिवार के लिए थोड़ा बहुत आटाचावल जुटा पाते थे।

फिलहाल लॉकडाउन तो खुल गया है लेकिन मानिकपुर ब्लॉक में आने वाले सभी गांवों के लिए वह ट्रेने नहीं चली जो वहां रहने वाले हजारों आदिवासियों को घर मे चूल्हा जलाने के लिए ईंधन देती थी। लोगों से उनका स्थानीय रोज़गार भी छिन चुका है।

जिला चित्रकूट की रामपुरिया गांव की संगीता कहती हैं कि सुबह छह बजे उठकर वह जंगल मे लकड़ियां काटने निकल जाती थीं। उन्हें जंगल मे किसी भी तरह के जानवर, सांप या बिच्छु आदि की चिंता नहीं रहती। उनका ध्यान सिर्फ लकड़ियों के काटने पर होता था। कि अगर लकड़ी नहीं काटी तो पेट की भूख शांत कैसे होगी। परिवार और अपने बच्चों को वह खिलाएंगी। अपने परिवार की पेट की भूख के सामने वह किसी भी तरह का खतरा उठाने के लिए तैयार है।

जिन परिवारों में दस लोग हैं उनके लिए सरकार द्वारा दिया गया राशन आधा महीना भी नहीं चलता। कोटे से उन्हें राशन के रूप में सिर्फ एक किलो गेंहूँ, चावल, चना आदि मिलता है।

इतना राशन तो एक व्यक्ति के लिए भी पर्याप्त नहीं, तो एक पूरा परिवार इतने से राशन में पूरा महीना कैसे गुज़ारा कर पाएगा

चित्रकूट जिले के ऊंचाडीह गांव की निराशा देवी का कहना है कि सरकार की किसी भी योजना का उन्हें कोई फ़ायदा नहीं हुआ है। उनके परिवार में छह लोग है। उनके पास राशन कार्ड भी नहीं है। वह बताती हैं कि लॉकडाउन के समय वह नमकचावल खाकर गुज़ारा करते थे। कभीकभी तो उनके पास खाने के लिए वह भी नहीं होता था। बच्चे जब खाने के लिए मंगते तो वह उन्हें डांट देती। आखिर वह ऐसी स्थिति में और क्या ही करे। जब गांव के प्रधान से राशन कार्ड और आदि समस्याओं को हल करने के लिए कहा जाता है तो वह भी अपने हाथ पीछे कर लेता है। 

सरकारी योजना केविवाह अनुदान योजनाके तहत आदिवासियों को शादी के दौरान 20,000 रुपये देने का नियम है। लेकिन सरकार की यह सहायता भी इन गांवो के लोगों से दूर है। अन्य लोगों से कर्ज़ा लेकर ही वह शादी करवा पाते हैं। 

इंडियन एक्सप्रेस की 16 जून की रिपोर्ट में यूपी के अतिरिक्त मुख्यमंत्री अवनीश कुमार अवस्थी यह दावा करते हैं कि प्रधानमंत्री कि मनरेगा योजना के अंतर्गत 57.13 लाख लोगों को रोज़गार मिला है। वहीं मध्यप्रदेश में 23.95 लाख लोगों को भी योजना का फायदा हुआ है। वहीं प्रिंट की 14 जुलाई 2020 की रिपोर्ट का कहना है कि सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा एक ट्रैकर की शुरुआत की गयी थी, यह पता लगाने के लिए की योजना से कितने लोगों को फायदा मिल रहा है। जिसमें यह बताया गया कि जिन लोगों ने अप्रैल में रोज़गार के लिए फॉर्म भरा था उन्हें अभी तक रोज़गार नहीं मिला है। जिसमें 22 प्रतिशत लोग शामिल हैं। जिनकी संख्या लगभग 1.7 करोड़ है।

चित्रकूट जिले के ऊंचाडीह गांव की प्रधान उर्मिला से जब मनरेगा से मिलने वाले पैसों के बारे पूछा जाता है, तो वह कहती हैं कि लोगो के बैंक खाते गलत होने की वजह से उन तक पैसे नहीं पहुंचते।

चित्रकूट के ही श्रम प्रवर्तन अधिकारी दुष्यंत कुमार  से जब आदिवासियों को मिलने वाले लाभों के बारे में पूछा गया तो वह कहते हैं कि वह श्रमिक जो सक्रिय और पंजीकृत थे, उन्हें कोविड-19 के दौरान दो किस्तों में पैसे दिए गए थे।किस्तें 1,000 रुपए की थीं। लेकिन आदिवासियों के लिए कोई अलग से योजना नहीं है। 

ऊंचाडीह की प्रधान की बात की जाए या फिर श्रम प्रवर्तन अधिकारी की, दोनों ही यह बात छुपाते दिखाई दिए कि योजनाओं के बाद भी आदिवासियों तक सुविधा पहुंचाने में वह नाकामयाब रहे हैं।

एक तरफ यूपी सरकार और मुख्यमंत्री यह दावा करते हैं कि लॉकडाउन के दौरान मनरेगा के तहत हर व्यक्ति को रोज़गार मिला है। लेकिन आदिवासी गांव के लोगों से बात करके यह बात साफ़ हो गयी कि सरकार की बातें सिर्फ ऊपरी हैं। लॉकडाउन के बाद भी लोगों के पास कोई साधन नहीं है। रोज़गार है और ही सरकार की किसी भी योजनाओं का फायदा उन्हें मिला है। ऐसे में सवाल तो गांव के प्रधान से लेकर प्रशासन और सरकार तक जाता है कि सरकार आखिर किन लोगों का डाटा हमें दिखा रही हैजिन्हें रोज़गार मिला है? एक तरफ़ लोगों के पास अपनी भूख तक शांत करने तक के पैसे नहीं है और अधिकारी दावा करते हैं कि उनके खातों में पैसे डाले गए हैं। सरकार की योजनाएं उनकी बातों की तरह ही खोखली है। सरकार के पास इतने बेरोज़गार लोगों के होने का क्या कोई जवाब है? या ये छोटे गांव सरकार को नज़र ही नहीं आते।