दीपों का त्यौहार दीपावली पर भले ही रंगीन, सतरंगी लाइटों से पूरा शहर रोशन होता हो पर मिटटी के दिये का अपना अलग महत्त्व है। जहाँ शहर रंगीन लाइटों और बल्बों से जगमग हो रहे हैं वहीँ गाँव में भी कुम्हारों ने दीया बनाने की तैयारी तेज कर दी है।
वाराणसी जिले में दीपावली पर्व की तैयारी जोरों से चल रही है, लेकिन महंगाई को देखते हुए काफी परिवर्तन भी देखने को मिल रहा है। दीपावली पर दीया सरसों के तेल में ही जलाया जाता है और आज के समय में सरसों के तेल की कीमत लगभग ढाई सौ रुपया लीटर है। बढ़ते सरसों के तेल के दाम को देखते हुए लोगों ने कुम्हारों से दीया की मांग कम कर दी है।
माना जाता है कि दीपावली के दिन अयोध्या के राजा श्री रामचंद्र अपने चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात लौटे थे। राजा राम के लौटने पर उनके राज्य में हर्ष की लहर दौड़ उठी थी और उनके स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीए जलाएं थे तब से आज तक यह दिन भारतीयों के लिए आस्था और रोशनी का त्यौहार बना हुआ है। कहते हैं न सत्य की सदा जीत होती है झूठ का नाश होता है इसी कहावत को दीवाली चरितार्थ करती है।
चमचमाती लाइटों ने लिया मिटटी के दीया का स्थान
दिव्या,चोलापुर ब्लॉक, गांव मुनारी की रहने वाली है। मिट्टी का बर्तन बनाना उनका पुस्तैनी धंधा है लेकिन वह इस दीपावली पर काफ़ी उदास हैं। उनका कहना है कि त्योहारों की रौनक काफी कम हो गई है। एक तो लोग दीया बनाने का ऑर्डर कम देने लगे हैं दूसरे उन्हें मिट्टी नहीं मिल पा रही है। वह उतना ही दीया बना रहे हैं जितना की गाँव में घूमकर बेंच सके। और जबसे मोमबत्ती और रंग-बिरंगी झालरों का चलन बढ़ा है तबसे कुम्हारों की रोजी-रोटी छिन गई है। उन्होंने 6000 की दो ट्राली मिटटी खरीदी है लेकिन उतनी की बिक्री हो पायेगी यह उन्हें भी नहीं पता है।
नहीं मिला दीया बनाने का ऑर्डर
कन्हैया लाल प्रजापति का कहना है कि जिस तरह से दिवाली का उत्सव होता था वह बहुत ही लगन से तैयारी करते थे लेकिन इस बार उन्हें कोई ऑर्डर नहीं मिला है। फिर भी महंगाई को देखते हुए कुछ दीया बनाया है। दीपावली ही एक ऐसा त्यौहार है जब कुम्हारों को रोजगार मिलता था लेकिन अब वह भी फीका हो गया है। मिटटी के दीया की जगह अब रंग-बिरंगी चमचमाती लाइटों ने ले लिया है। शहर तो छोड़ो गाँव के लोग भी उसी चकाचौध की तरफ भागने लगे हैं।
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बच्चों के खेलने के सामान भी छूटे
बच्चों को खेलने के लिए घरौंदा, जतोला, भुड़का, गुल्लक, घंटी आदि सामान बनाये जाते थे जिसको देखते ही बच्चे खुश हो जाते थे और उन्हें महीने भर पहले से ही खिलौनों का इन्तजार होता था। कुम्हार भी महीने भर पहले से तैयारी पूरी कर लेते थे। 10 दिन पहले ही गाँव में बेचने निकल पड़ते थे और बच्चों के चेहरे पर मुस्कुराहट बिखर जताई थी लेकिन आजकल लोग बच्चों के लिए यह भी नहीं लेते हैं। बच्चे मोबाईल के सामने मिटटी के बर्तनों को कुछ भी नहीं समझते।
ममता का कहना है कि ऐसी स्थिति आ गई कि 50 दीया बनाये जाते हैं तो 25 की ही बिक्री होगी। रोज कमाने रोज खाने वाले लोग हैं यही उम्मीद थी की दिवाली आ रही है थोड़ी बेरोजगारी कम होगी लेकिन ऐसी उम्मीद दिखती नजर नहीं आ रही है। दीपावली एक ही हफ्ते बची है अभी तक लोगों का ऑर्डर नहीं आया है। ऐसे में कुम्हारों की दिवाली कैसे रोशन होगी?
यही हाल अयोध्या के कुम्हारों का भी है। अयोध्या में बाहर से दिया मंगाये जाने से वहां के कुम्हारों की दिवाली फीकी पड़ी है। पहले कोरोना का कहर से लोग रोजी-रोटी के लिए तरस गये और अब दिवाली पर बाहर से दीया मगाए जाने से दोहरी मार झेल रहे हैं। हमने अयोध्या जिले की शिवरामपुर की सीता से बात किया और उनसे इस दिवाली पर स्थिति जानी।
दयनीय है अयोध्या कुम्हारों की स्थिति
सीता बताती हैं कि एक महीना से दीया बना रही हैं जो घर-घर ले जाकर बेचेंगी। उन्हें काफी दुःख होती है की अयोध्या में भव्य दीपोत्सव के लिए दीया बाहर से मंगाया जाता है। अगर अयोध्या के कुम्हारों से इन दीयों की मांग की जाती तो आज वह बेरोजगार न होते, लेकिन यहाँ की सरकार लोगों को रोड पर लाने को मजबूर कर रही है। सब कहते थे मंदिर बनने दीजिए अयोध्या के लोगों की किस्मत चमक जायेगी लेकिन यहाँ लोगों के सामने अंधेरा नजर आ रहा है।कहने को तो अयोध्या विश्व विख्यात है लेकिन यहाँ के कुम्हारों की स्थिति बहुत दयनीय है। सीता ने सरकार से गुजारिश की है कि अयोध्या के कुम्हारों को रोजगार दे ताकि उनकी दिवाली भी रोशन हो सके।
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