किसानों के धरना स्थल तक का रास्ता सवालों से भरा था। जाते समय दिल में सौ ख्याल गोते खा रहे थे। पर जब दिल्ली के टिकड़ी बॉर्डर पहुंचे तो आँखों ने टीवी पर दौड़ती तस्वीरों से कुछ अलग ही देखा। हमें नहीं पता था कि प्रदर्शन स्थल का रास्ता किस ओर से जाता है। हमारे सामने टिकड़ी बॉर्डर का मेट्रो स्टेशन था। वहां कुछ पुलिस बल भी तैनात थे। हमने उन्हीं से पूछ लिया कि किसानों के प्रोटेस्ट का रास्ता किस ओर से जाता है।
हमने अपने कदम आगे बढ़ाये। हमारे सामने लोगों की हलचल से भरी जगह थी। कोई अपने काम पर जा रहा था तो कोई प्रदर्शन स्थल पर। रास्ते में अपनी पत्तियों को खोया हुआ पेड़ दिखा। नीचे सिर्फ गंदगी फैली हुई थी। पर उस पेड़ पर दो रंग के पक्षी बैठे हुए यह बता रहे थे कि बेशक उस पेड़ की पत्तियां झड़ गयी हैं। उसके बावजूद भी वह मज़बूती से खड़ा है, उन पक्षियों की थकान मिटाने की जगह बना हुआ है जो आसमान की उड़ान भरते-भरते थक गए हैं। ठीक उन किसानों की तरह जिनकी उम्र तो बीत गयी है लेकिन उनके अंदर के जज़्बे और मज़बूती ने आंदोलन को पकड़ कर रखा हुआ है।
चलते-चलते हम गलियों में जा पहुंचे। एक घर की दीवार पर पंजाबी और हिंदी भाषा में “किसानों के लिए धरने पर जाने का रास्ता” लिखा हुआ बोर्ड लटका हुआ था। जिससे हम समझ गए कि हमें अब किस ओर जाना है।
धरने स्थल की शुरुआत किसान मंच से शुरू हो रही थी। बड़ा-सा मंच, ज़मीन पर आसमान की तरह लम्बी नीले रंग की दरी बिछी हुई थी। उसके सामने किसानों का मोहल्ला बसा हुआ। ट्रैक्टर्स जिन्हें आमतौर पर सामान भरने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। अब वह घर बन चुके थे।
मंच से जैसे ही कुछ दूर आगे बढ़े तो हमारी मुलाक़ात एक बुज़ुर्ग किसान से हुई। हमें देखते ही उन्होंने पूछा कि ‘बेटा,कहाँ से आये हो?’ हमने भी बताया कि हम उनसे ही मिलने आये हैं। वो कहते हैं फिर तो पहले “तुम्हें ( हम लोग) हमारे साथ पहले चाय पीनी होगी।’ वह हमें अपने साथ टेंट में ले गए। जहां अन्य किसान भी मौजूद थे। हमारे हाथों में चाय पकड़ाते हुए वह हमसे कहते हैं कि ‘हमारी बात तुम पीएम तक पहुंचाओगे ना?’
यहां से हम देखते हैं कि सामने उन्होंने पानी गर्म करने की मशीन और कपड़े धोने की मशीन भी लगा रखी थी। किसानों ने अपनी सुविधा के अनुसार हर एक चीज़ को उनके अनुकूल ढाल लिया था। हर जगह चहल-पहल और लोगों में अलग-सा जज़्बा महसूस हो रहा था। रास्तों से किसानों के ट्रैक्टर्स गुज़र रहे थे। युवा से लेकर बुज़ुर्ग व्यक्ति की आँखों में चमक थी। किसी में उनके घर से दूर रहने की हताशा नहीं थी।
हम लोग किसानों के एक टेंट में घुसे। अंदर घुसते ही हमें अपने घर सा महसूस हुआ। ट्रैक्टर में बेडरूम की तरह सोने का बिस्तर लगा हुआ था। रसोई का सामान और पंखा सब चीज़ें लगी हुई थी। वहां हमारी मुलाक़ात तीन महिला किसानों से हुई। उन सबकी उम्र 85 साल के आस-पास थी। उनका बस यही कहना था कि वह अपने हक़ के लिए आईं हैं और उसे लेकर ही जाएंगी। तीन महीने से धूप, बारिश और हवा के बीच रहती इन महिलाओं ने यह साफ़ कर दिया कि हिम्मत किसे कहते हैं। शरीर तो नाम के लिए कमज़ोर है और उनके इरादे उन्हें डटे रहने का जज़्बा देते रहते हैं।
सबका चेहरा खिल-खिलाता और हँसता हुआ नज़र आ रहा था।लेकिन उन पर शिकन भी साफ़ नज़र आ रही थी। हमें किसी से भी बात करने के लिए जद्दोजेहद करने की ज़रुरत नहीं पड़ी। उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ था और हम बस उन्हें सुनना चाहते थें। हमने टिकड़ी बॉर्डर पर अपनी सुबह और दोपहर बिताई। आँखों ने इस बार कुछ अलग-अलग रंगो की तस्वीरों यादों में बटोर ली थी। जो आँखे टीवी के सीमित पहुँच की वजह से देख नहीं पा रही थी। बहुत-सी कहानियां,किस्से अब मेरे अंदर भर गए थे। जिसमें से कुछ कह दिया और कुछ बाकी है। बस आखिरी में यही कहना चाहती हूँ कि “आँखों के पन्नों को खाली करके शब्द भरने पर, वाक्यों के अर्थ से पहले से बदलते नज़र आते हैं।” आप भी आँखों की सीमा से हटाकर आगे ज़रूर देखना।