हम उन सर्वाइवर महिलाओं की कहानियों के बारे में बात करेंगे जो ग्रामीण क्षेत्रों से आती हैं, जिन्होंने अपने जीवन के दौरान अलग-अलग रूपों में, हिंसाओं का सामना किया है, उसे जीया है जिनका संघर्ष आज भी ज़ारी है, जिनकी कहानी आज भी उनके जीवन की उम्मीद है।
सर्वाइवर्स (Survivors),वे महिलाएं हैं जिनकी कहानियां पैतृक समाज द्वारा की जाने वाली हिंसाओं से लड़कर, सर्वाइव करके बाहर आई हैं। महिलाओं का जीवन तो हमेशा से ही कठिन रहा। पैतृकता से मिली ताकत ने हिंसाओं के ज़रिये महिलाओं के शरीर,दिल-दिमाग पर अपना दाग छोड़ना शुरू कर दिया। हिंसा ने कई रूपों में उन्हें जकड़ा,बांधा पर ये महिलाएं लड़ी, इंसाफ के लिए, अधिकारों के लिए,सुरक्षा के लिए, अपने लिए। उन्होंने हर उस दाग को पकड़ा जिसे समाज काला कहकर देखने से नकार देता।
किसी ने कहा,’महिलाओं का पूरा जीवन ही संघर्ष है,लड़ाई है।’ यह कभी खत्म नहीं होती, साथ रहती है इंतहां लेना नहीं छोड़ती।
हर साल इस दौरान 25 नवंबर से 10 दिसंबर तक एक कैंपेन चलाया जाता है जिसका नाम है, “16 Days Of Activism या 16 दिवसीय अभियान।” इस साल इस कैंपेन की थीम है, “Accelerating actions to end gender-based violence & femicide: leaving no one behind”. The sub-theme for this year is: “Safe access for women to clean water: a basic human right” या “लिंग-आधारित हिंसा और स्त्री-हत्या को समाप्त करने के लिए कार्यों में तेजी लाना: किसी को भी पीछे न छोड़ना”। वहीं कैंपेन का एक उप-विषय भी है:”महिलाओं के लिए साफ पानी तक सुरक्षित पहुंच: एक बुनियादी मानव अधिकार”।
विषय जीबीवीएफ (जेंडर आधारित हिंसा व फेमिसाइड) से लड़ने के लिए समाज व बहुआयामी दृष्टिकोण सुनिश्चित करने के महत्व पर बात करता है। वहीं उप-विषय दक्षिण अफ्रीका में महिलाओं की पानी और स्वच्छता तक सुरक्षित पहुंच में आने वाली बाधाओं को दूर करने की कोशिश से जुड़ा हुआ है।
इस लेख में हम उन सर्वाइवर महिलाओं की कहानियों के बारे में बात करेंगे जो ग्रामीण क्षेत्रों से आती हैं, जिन्होंने अपने जीवन के दौरान अलग-अलग रूपों में, हिंसाओं का सामना किया है, उसे जीया है जिनका संघर्ष आज भी ज़ारी है, जिनकी कहानी आज भी उनके जीवन की उम्मीद है।
यौनिकता हिम्मत नहीं तोड़ती
हाल ही में हमारी मुलाक़ात भंवरी देवी से हुई। इस नाम से कई लोग परिचित होंगे। भंवरी देवी की पूरी ज़िंदगी बाल विवाह के खिलाफ लड़ाई रही है। इस दौरान उनके साथ यौनिक हिंसा भी हुई लेकिन वे उनकी लड़ाई को, उन्हें छू तक नहीं पाए। आरोपियों को लगा कि शरीर पर चढ़े लबादे को उनके अनुसार अगर वो तितर-बितर कर देंगे तो उनकी हिम्मत टूट जायेगी। वो कभी नहीं टूटी। वह यौनिक हिंसा हो या मानसिक प्रताड़ना जो समाज उनके साथ करता रहा, करता आ रहा है, उन्होंने अपने जीवन के हर उस पल को सर्वाइव किया। सिर्फ खुद के लिए नहीं, सबके अधिकारों के लिए लड़ी और आज भी लड़ती रही हैं।
घरेलू हिंसा से अधिकारों की लड़ाई तक
यह कहानी बाँदा जिले के फतेहगंज में रहने वाली सुमन की है। आज से 15 साल पहले नरैनी ब्लॉक के लहुरेटा गांव में छिती नाम के व्यक्ति के साथ उनकी शादी हुई थी। शादी के बाद सुमन के तीन बच्चे हुए।
घर वालों के कहने पर उसका पति छिती आए दिन उसके साथ मारपीट करता। उसके साथ गाली-गलौच करता। परिवार के साथ-साथ अन्य व्यक्ति भी उसके साथ मारपीट करते।
हिंसा की शिकायत सुमन ने नरैनी कोतवाली में भी की लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। जैसे की अमूमन मामलों में नहीं होती। महिलाएं थाने के चक्कर लगा-लगाकर थक जाती हैं और रिपोर्ट तक नहीं लिखी जाती।
पुलिस से भी मदद न मिलने के बाद व आये दिन होने वाली हिंसा की वजह से सुमन अपने मायके रहने लगी। वह लगभग 7 सालों से अपने मायके में रह रही हैं। जब कभी वह अपने ससुराल जाती तो उन्हें मार-पीटकर वापस भेज दिया जाता। सुमन को हमेशा यह उम्मीद रहती कि शायद उसका पति आकर उसे वापस अपने साथ ले जाएगा।
वहीं सुमन के लिए माँ-बाप के साथ रहना भी आसान नहीं था। मायके की आर्थिक स्थिति सही नहीं थी। खराब स्थिति में परिवार ने मकान बेच दिया। इसके बाद वह खेत में झोपड़ी बनाकर रहने लगे।
कुछ समय बाद लॉकडाउन लग गया। उसे पता चला कि उसके पति ने दूसरी शादी कर ली है। वह फिर ससुराल गयी लेकिन फिर उसे मार-पीटकर भगा दिया गया। बताया, पति अपना स्थायी मकान बेचकर किसी दूसरी जगह रहने लगा। इन सब चीज़ों से परेशान होकर सुमन ने 2021 में बाँदा न्यायालय में पति के खिलाफ अदालत में मुकदमा दायर किया। उसने मांग की कि पति द्वारा उसे मेंटेनेंस (रख- रखाव) का खर्चा दिया जाए।
सुमन ने वकील तो कर लिया लेकिन उसके पास वकील को देने के लिए पैसे नहीं थे। पूरे पैसे न देने की वजह से वकील ने अदालत में केस ही नहीं डाला। जब सुमन को यह बात पता चली तब उसने दूसरे वकील को अपने केस की फ़ाइल सौंपी लेकिन सवाल वही पैसों का रहा।
सुमन इस समय किराये का घर लेकर रह रही है। वह कपड़े प्रेस करने का काम करती हैं और उससे जो पैसे आते हैं उससे घर खर्च चलाती हैं। प्रेस की कमाई से बच्चों को पालना मुश्किल है। बच्चों के भविष्य की चिंता सताती है। अदालत में अपने केस दायर करने को लेकर सुमन बस यह चाहती हैं कि ससुराल में उसके बच्चों को उनका हक़ दिया जाए। उसके दहेज़ के सामान को उसे वापस दिया जाए और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का खर्चा उसका पति उठाये।
सुमन के मन में अभी भी यही सवाल है कि वह यह मुकदमा लड़ भी पाएगी या नहीं? वह वकील की फीस कैसे देगी? उसे न्याय मिलेगा या नहीं? उसके बच्चों के भविष्य का क्या होगा? यह सुमन के सर्वाइवल की कहानी है, जहां उसने खुद को बल्कि अपने बच्चों को भी उस हिंसा से बचाया जो वह झेल रही थी। इस दौरान, जो उसका हक़ और अधिकार था, उसने उसके लिए लड़ना छोड़ा।
दहेज व उत्पीड़न हिंसा : अदालत व कार्यवाही
सोना, चित्रकूट जिले के कोरही गांव की रहने वाली हैं। सोना तकरीबन 2 सालों से अपने ससुराल वालों के खिलाफ दहेज़ और उत्पीड़न के मामले को लेकर लड़ रही हैं। उसने ससुराल वालों पर आरोप लगाया कि उसके सासुराल वालों ने उसे व उसके बच्चों को सिर्फ इस वजह से घर से बाहर निकाल दिया क्योंकि वह उन्हें उनकी लालच के अनुसार दहेज़ नहीं दे पायी।
पिछले दो सालों से महिला के ससुराल वालों के खिलाफ बाँदा जिले की अदालत में मुकदमा भी चल रहा है।
सोना ने खबर लहरिया को बताया कि 9 साल पहले उसकी शादी डिघवट गांव में रहने वाले विजय कुमार से हुई थी। शादी में महिला के पिता ने दहेज भी दिया था लेकिन इसके बावजूद भी ससुराल वालों द्वारा 1 लाख तक की मोटरसाइकिल की मांग की जाती।
सोना कहती, पिता गरीब हैं वह इतनी महंगी मोटरसाइकिल नहीं दे पाएंगे। ससुराल वाले हमेशा इसी बात पर ताना मारते। गाली-गलौच के साथ मारपीट भी करते। महिला का कहना है कि अगर ससुराल वालों द्वारा उसे अच्छे से रखा जाएगा तभी वह वहां रहेगी। वह न्याय चाहती है।
खबर लहरिया ने सोना के पति विजय कुमार से भी बात की। विजय अपनी पत्नी के सारे आरोपों को नकारते हुए कहता है कि उसके द्वारा कभी दहेज़ की मांग नहीं की गई है। बल्कि उसकी पत्नी के मायके वाले चाहते हैं कि वह अपनी पत्नी के मायके में रहकर उसका ध्यान रखे। वह पत्नी के घर नहीं रहना चाहता। उसने जब पत्नी को ससुराल में रहने के लिए कहा तो पत्नी ने ससुराल में रहने से मना कर दिया। आगे कहा, उसकी पत्नी खुद ही बच्चे को लेकर मायके चली गयी।
सुमन हो या फिर सोना, ये तो सिर्फ एक नाम है जिन्होंने आगे बढ़कर लड़ने का फैसला किया। बेशक़ उनकी बातों, उनके आरोपों को गलत ठहराया गया पर उन्होंने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने हिंसा के खिलाफ लड़ने का फैसला किया, जो उनका अधिकार है, जो उनके बच्चों का अधिकार है।
भंवरी देवी, सुमन हो या सोना, उनकी यह लड़ाई यही दर्शाती है कि महिलायें आगे आकर हिंसा के खिलाफ़ व अपने अधिकारों के लिए लड़ तो रहीं हैं पर उन्हें कानून का पूर्ण साथ नहीं मिल रहा तो कभी उनकी आर्थिक स्थिति उनका साथ नहीं देती तो कभी क़ानूनी कार्यवाही के बीच बढ़ता अंतराल और उस बीच आती अड़चनें उन्हें तोड़ने की कोशिश करती रहती है। लेकिन इन सब मुश्किलों के बाद भी वह लड़ना नहीं छोड़ती। वह लड़ती हैं हार और जीत के लिए नहीं बल्कि इसलिए क्योंकि क्योंकि सुरक्षित जीवन, हिंसा-मुक्त जीवन उनका अधिकार है जिसके लिए उन्हें रोज़ सामाजिक परिवेश में लड़ना पड़ता है।
हर साल महिलाओं के साथ होने वाली हिंसाओं को लेकर आवाज़ उठाने और लोगों को एकजुट करने में 16 दिवसीय अभियान महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसका प्रयास रहता है कि हर समुदाय, क्षेत्र इत्यादि से जुड़ी महिलाओं की आवाज़ को देश में व्यापक रूप में फैले व साथ ही यह जागरूकता फैलाने का भी काम करता है।
यदि आप हमको सपोर्ट करना चाहते है तो हमारी ग्रामीण नारीवादी स्वतंत्र पत्रकारिता का समर्थन करें और हमारे प्रोडक्ट KL हटके का सब्सक्रिप्शन लें’