खबर लहरिया Blog सुप्रीम कोर्ट फैसला: एससी-एसएसटी आरक्षण में उप-वर्गीकरण व क्रीमी लेयर से क्या मिलेगा सामाजिक न्याय? | SC/ST Sub-Categorisation and Creamy layer

सुप्रीम कोर्ट फैसला: एससी-एसएसटी आरक्षण में उप-वर्गीकरण व क्रीमी लेयर से क्या मिलेगा सामाजिक न्याय? | SC/ST Sub-Categorisation and Creamy layer

सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया है: “उप-वर्गीकरण जरूरी है। वे (एससी) एक समरूप (एक समान) समूह नहीं हैं और सभी को एक साथ रखने से एससी समुदाय के कुछ उप-वर्गों को वंचित किया जा रहा है।”

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                                                                                                                                          सुप्रीम कोर्ट की तस्वीर ( फोटो साभार – सोशल मीडिया)

सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति में उपवर्गीकरण और क्रीमीलेयर को लेकर दिए गए निर्णय के विरोध में आज 21 अगस्त को ‘भारत बंद” किया गया है। ‘आरक्षण बचाओ संघर्ष समिति’ ने भारत बंद का फैसला लिया। उनकी मांग है कि सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले को वापस ले। 

भारत बंद का असर मुख्यतः बिहार, एमपी, झारखंड व राजस्थान इत्यादि राज्यों में देखने को मिला।दिल्ली में माहौल शांत है। वामपंथी दल, झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम), कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, बहुजन समाजवादी पार्टी ने भी भारत बंद के लिए अपना समर्थन दिया है। 

बसपा सुप्रीमो मायावती ने आज X पर लिखा, “बीएसपी का भारत बंद को समर्थन, क्योंकि भाजपा व कांग्रेस आदि पार्टियों के आरक्षण विरोधी षडयंत्र एवं इसे निष्प्रभावी बनाकर अन्ततः खत्म करने की मिलीभगत के कारण 1 अगस्त 2024 को SC/ST के उपवर्गीकरण व इनमें क्रीमीलेयर सम्बंधी मा. सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के विरुद्ध इनमें रोष व आक्रोश।”

केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान ने कहा कि,”आज भी दलित को घोड़ी पर नहीं बैठने देते, मंदिर में घुसने नहीं देते जब भेदभाव हो रहा है तो क्रीमी लेयर कैसे बना सकते हैं?”

इस बयान से जुड़े कई उदाहरण हैं। खबर लहरिया ने 7 जुलाई 2023 को एक रिपोर्ट पब्लिश की थी, जिसका टाइटल था, “दलित दूल्हे के घोड़ी चढ़ने पर किया पथराव, कई लोगों के खिलाफ मामला दर्ज़।” ऐसे ही कई और मामले व उदाहरण जहां समाज द्वारा जाति की वजह से हिंसा की गई है। 

सुप्रीम कोर्ट का एससी/एसएसटी आरक्षण को लेकर फैसला 

“भारत बंद” का आह्वान वीरवार, 1 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के जवाब में आया, जिसमें मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सात-न्यायाधीशों की पीठ ने 6:1 के साथ बहुमत में फैसला सुनाया कि राज्यों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति यानी एससी-एसटी में उपवर्ग बनाने का अधिकार होगा। एक न्यायधीश ने इस फैसले का विरोध किया था। 

अदालत ने कहा कि उप-वर्गीकरण के ज़रिये से सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में कोटा आवंटित करने के लिए एससी और एसटी के भीतर क्रीमी लेयर मानदंड का प्रावधान हो सकता है। यह भी कहा कि अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी वर्ग पर लागू क्रीमी लेयर के प्रावधान से यह अलग होना चाहिए। 

क्रीमी लेयर का अर्थ है, वह वर्ग जो आर्थिक व सामाजिक रूप से प्रगति कर चुका है। इस श्रेणी में आने वाले लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलता। 

बहुजन समाज पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास), राष्ट्रीय जनता दल और आज़ाद समाज पार्टी जैसे राजनीतिक दलों ने “क्रीमी लेयर” व उप-वर्गीकरण के फैसले पर सवाल उठाया और भारत बंद का समर्थन किया। 

द वायर की रिपोर्ट में कहा गया, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने एससी और एसटी (अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति) के लिए आरक्षण में क्रीमी लेयर की शुरूआत के बारे में अटकलों को संबोधित करने की मांग की है। साथ ही घोषणा की भी की है कि इस तरह के किसी भी बहिष्कार को लागू करने की कोई योजना नहीं है।

क्रीमी लेयर व उप-वर्गीकरण पर सवाल 

सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया है: “उप-वर्गीकरण जरूरी है। वे (एससी) एक समरूप (एक समान) समूह नहीं हैं और सभी को एक साथ रखने से एससी समुदाय के कुछ उप-वर्गों को वंचित किया जा रहा है।”

कोर्ट द्वारा समुदाय में समरूपता न होने की बात कहना अपने आप में ही एक सवाल है क्योंकि आज भी उनकी जाति की वजह से उनके साथ सबसे ज़्यादा हिंसाएं होती हैं,पहुंच के कम अवसर मिलते हैं, छुआछूत का सामना करना पड़ता है, समाज ने उन्हें हाशिये पर रखा है, भेदभाव किया जाता है व समाज में आज भी उन्हें समानता का दर्ज़ा प्राप्त नहीं है। यह सब चीज़ें तो आज भी है तो यहां समरूपता न होने की बात किस डाटा के आधार पर की जा रही है?

सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित समुदायों के बीच मतभेद के बारे में बात की और कहा कि उनका सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े होने से इसके बारे में जाना जा सकता है। लेकिन यह समझने के लिए किसी भी प्रकार का डाटा उपलब्ध नहीं है। न यह बताने के लिए कि अनुसूचित जाति व जनजातियों में कौन-सा समूह सबसे ज़्यादा ग्रसित है जिनके बारे में फैसले में कहा गया। 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 में किसी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में जातियों, नस्लों या जनजातियों को “अनुसूचित जाति” के रूप में नामित करने की राष्ट्रपति की शक्ति के बारे में बात की गई है। हालांकि, इस अनुच्छेद में “अस्पृश्यता” की कोई स्पष्ट चर्चा नहीं है। रिपोर्ट व समाजशास्त्रीय जांच के अनुसार,एससी या दलित समुदाय ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित समुदाय हैं जो समाज में “अस्पृश्यता” के अधीन रहे हैं। अस्पृश्यता का अर्थ है किसी समुदाय के स्पर्श या उनके शरीर के निकटता को उनके जाति स्थान के कारण अपवित्र समझना है। 

डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने ‘द अनटचेबल्स: हू आर दे एंड व्हाई दे बिकम अनटचेबल्स (The Untouchables: Who Were They and Why They Became Untouchables) में लिखा है कि भारत में जाति व्यवस्था एक “अनोखी” सामाजिक घटना है जो पूरे समुदाय को उसकी जातिगत स्थिति के कारण अपवित्र कर देती है। उन्होंने तर्क देते हुए कहा कि गैर-हिंदू समाज में, व्यवसाय या “अशुद्ध” संगति के आधार पर अपवित्रता के कारण बहिष्कार ने केवल व्यक्ति को अछूत बना दिया है; हालाँकि, जब हम इसे हिन्दू समाज के अंदर देखते हैं तो यह पूरे समुदाय को पूरी तरह से “स्थायी अलगाव” की ओर ले गया है (डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर लेखन और भाषण, 7(2):286)।

अस्पृश्यता, जिसे छुआछूत भी कहा जाता है वह आज के कहे जाने वाले विकसित युग में भी है जहां एक व्यक्ति की जाति उसके सामजिक जीवन पर सबसे ज़्यादा प्रभाव डालती है। जिसके बारे में बाबा साहेब ने भी बताया। दलित समुदाय के साथ उनकी जाति की वजह से होने वाली हिंसाओं की खबरें हम रोज़ पढ़ते और देखते है। हालांकि, इसका कोई डाटा नहीं है कि दलित समुदाय में भी कौन-सी ऐसी उपजातियां हैं जो सबसे ज़्यादा संवेदनशील हैं या ग्रसित हैं। यह बात तो स्पष्ट है कि एससी/एसटी समुदायों के साथ बढ़ती हिंसाएं इस बात का सबूत है कि यह पूरा समुदाय किस तरह से समाज में बस हिंसा के लिए हाशिये पर लाकर रख दिया गया है।

रिपोर्ट में कहा गया कि “क्रीमी लेयर” का जो बुनियादी विचार है वह खुद में ही कहीं न कहीं खुद को अमान्य साबित करता है, इस आधार पर कि आरक्षण होने के बावजूद भी एससी/एसटी समुदाय के साथ छुआछूत किया जाता है। 

आरक्षण ने एक हद तक इस समुदाय के लिए शैक्षिक और रोजगार के अवसर सुनिश्चित तो किये हैं लेकिन इन तक समुदाय की पहुँच अस्पृश्यता व पहुंच के कम अवसर होने की वजह से बेहद कम हो जाते हैं। 

इसलिए एक हद तक यह तर्क दिया जा सकता है कि एससी/एसटी समुदायों के अंदर एक समय के बाद गतिशीलता में अंतर हो सकता है या देखा जा सकता है। इसमें इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इन समुदायों के साथ आज भी उनकी जाति की वजह से हिंसा व छुआछूत की जाती है, जोकि एक समुदाय के रूप में उनका यह सजातीय अनुभव है। वह सजातीयता जिसके न होने की बात अदालत ने अपने फैसले में की। 

इसके साथ ही यह बात जानना और समझना ज़रूरी है कि क्या उप-जाति समूहों के अंदर गतिशीलता के कारण आंतरिक मतभेदों की वजह से छुआछूत की प्रथा हुई है। जब हम थोराट और जोशी (Thorat and Joshi 2020) का अध्ययन देखते हैं तो उससे पता चलता है कि एससी और एसटी समुदायों के भीतर भी, क्रमशः 15 प्रतिशत और 22 प्रतिशत लोगों द्वारा अस्पृश्यता का अभ्यास किया जाता है। हालांकि, इसे समरूपता का नाम देने के लिए स्थायी डाटा की ज़रूरत है। 

कई लोगों ने यह भी तर्क दिया कि उप-वर्गीकरण अपरिहार्य (जो होना ही है) है, क्योंकि कुछ उपजातियां बेहतर स्थिति में पहुंच गई हैं और वह कहीं न कहीं अन्य उपजातियों को आगे बढ़ने से रोक रही हैं। रिपोर्ट में कहा गया कि सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि क्या जाति-आधारित आरक्षण विभेदक गतिशीलता की समस्या के समाधान के लिए पेश किया गया था या इसलिए किया गया था ताकि उन समुदायों को भी पर्याप्त प्रतिनिधित्व व सामाजिक न्याय मिले।  

एंटी-कास्ट स्कॉलर व कार्यकर्ता सूरज येंगड़े ने कहा,“यह अम्बेडकरवादी मूल्यों का विनाश है। अंबेडकर ने सभी अनुसूचित जातियों के लिए लड़ाई लड़ी है , व्यक्तिगत जातियों के लिए नहीं। अब उप-वर्गीकरण के साथ, प्रत्येक उप-जाति खुद को पूर्ण के एक भाग के बजाय एक अलग पूर्ण के रूप में पहचानना शुरू कर देगी।” आगे कहा, “ ब्राह्मणवादी एजेंडा अनुसूचित जातियों को जातियों का एक संघ बनने से अलग करना है।”

कहा, सुप्रीम कोर्ट के फैसले में विस्तृत डाटा की अनुपस्थिति से सवाल उठता है कि आखिर एससी/एसटी समूहों को विभाजित करने का क्या मतलब है।

आगे कहा ,“अदालत ने प्रकाशित कार्यों को देखा है लेकिन उनके पास इस बारे में विस्तृत डाटा नहीं है कि आगे खंडित (उप-जातियों में बांटने) करने का क्या मतलब है। जब हम विभाजित होते हैं, तो हम बहुत बारीक समूह बनाते हैं जो बहुत दयनीय और असुरक्षित होते हैं। इसमें हम अनिवार्य रूप से दलितों की सूक्ष्म जातियों को उनके ही अस्तित्व में अलग-थलग कर देते हैं।”

उप-वर्गीकरण को लेकर स्थायी डाटा नहीं 

फ्रंटलाइन मैगज़ीन की रिपोर्ट ने लिखा, फैसले पर सवाल उठाने की एक वजह यह भी है कि उसमें किसी भी तरह का सबूत या डाटा पेश नहीं किया गया है। उप-जाति समूहों के भीतर रोजगार के आंकड़ों के साथ-साथ जाति-आधारित जनगणना, उपवर्गीकरण के लिए एक आवश्यक शर्त है। इसके बिना उपवर्गीकरण का प्रावधान करना एक असफल प्रयास होगा।

इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि कुछ अध्ययनों ने स्पष्ट रूप से वाल्मिकी, डोम, मुशहर, मडिगा और मातंग जैसे अन्य समुदायों पर ऊपर की ओर गतिशील उपजाति समूहों के प्रभुत्व को दिखाया गया है, लेकिन यह मूल्यांकन करना महत्वपूर्ण है कि क्या उपवर्गीकरण से सच में ऐसे समुदायों को फायदा पहुंचेगा? कहीं अलग हो जाने से वह और दयनीय न हो जाए? हिंसा के केंद्र में न आ जाए?

रिपोर्ट में कहा गया कि इस सन्दर्भ में “रोस्टर प्रणाली” पर चर्चा करना ज़रूरी है। शैक्षिक क्षेत्र में एससी/एसटी समुदायों के बीच अधिक पिछड़ी उपजातियों की अनुपस्थिति में, “क्रीमी लेयर” प्रावधान केवल यह सुनिश्चित करेगा कि ऐसी सीटों को एनएफएस ( (उपयुक्त नहीं पाया गया) घोषित किया जाए और अंततः सामान्य श्रेणी (जनरल कैटेगरी) में परिवर्तित कर दिया जाए। इस प्रकार,उप-वर्गीकरण का उद्देश्य पूरा नहीं होगा क्योंकि कौन-सी जातियों को उपजातियां कहा गया है और उनका क्या प्रतिशत है इसका कोई डाटा नहीं है। यह बस मौखिक रूप में कहा जा रहा है। इससे यह संविधान के अनुच्छेद 335 की भावना के खिलाफ होगा जो एससी/एसटी समुदायों के प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की बात करता है क्योंकि इसमें कहीं भी स्थायिता नहीं है। 

“क्रीमी-लेयर” प्रावधान बिल्कुल अनावश्यक है क्योंकि जाति-आधारित आरक्षण गरीबी उन्मूलन के बारे में नहीं है; बल्कि, यह सामाजिक समानता और न्याय की दिशा में एक कदम के रूप में है। यहां तक ​​कि ओबीसी के अंदर “क्रीमी लेयर” पर चर्चा को भी इसी तरह से फिर से देखने की जरूरत है। जाति के कारण उत्पीड़न वर्ण और जाति जैसी संरचनाओं से आता है जिसने शूद्रों, अति-शूद्रों और आदिवासियों को संसाधन के लाभ से बाहर रखा गया है। 

यह भी समझना ज़रूरी है कि आर्थिक गतिशीलता अपने आप में सामाजिक समावेशिता सुनिश्चित नहीं करती। उदाहरण के लिए, जब बाबू जगजीवन राम केंद्रीय मंत्रिमंडल का हिस्सा थे, तो उन्होंने वाराणसी के संपूर्णानंदजी मंदिर का दौरा किया। उनकी यात्रा के बाद, मंदिर को गंगाजल से “शुद्ध” किया गया थी। इसी तरह, 2014 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के दौरे के बाद बिहार के मधुबनी में मंदिर का शुद्धिकरण किया गया था। 2017 में, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा अपना बंगला खाली करने के बाद, वहां एक शुद्धिकरण समारोह किया गया था।

यह उदाहरण जोकि सार्वजनिक तौर पर दार्शनिक है यह बताने के लिए काफी है कि आर्थिक रूप से गतिशीलता या सत्ता के बाद भी जाति के नाम पर होने वाले भेदभाव में कमी नहीं आई है।

यहां ये सवाल पूछे जाने की ज़रूरत है कई क्या सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उप-जातियों को सच में पहचान व संसाधन  मिलेंगे? क्या इससे समुदाय में विभाजन नहीं होगा और हिंसा नहीं बढ़ेगी? यह सामाजिक प्रक्रिया है जहां बहुल समुदाय अपने से छोटे व कम ताकत रखने वाले समुदाय को, उनसे जुड़ी समस्याओं को छिपा देता है और बाहर नहीं आने देता। यह प्रक्रिया किसी भी समुदाय में नहीं बदलती। 

यह भी बात रखी गई कि इससे एससी/एसटी समुदाय के अंदर अधिक वंचित वर्गों का सामाजिक विभाजन बढ़ सकता है। कोई बिहार के महादलितों के मामले पर चर्चा कर सकता है, जहाँ अंततः दलितों की अधिकांश उपजातियाँ महादलित बन गईं है। 

इसलिए, राष्ट्रीय स्तर पर पर्याप्त डाटा के बिना कोई भी उपवर्गीकरण केवल उस पिटारे की तरह होगा जिसमें से बहुत चीज़ें निकल सकती हैं लेकिन उसे कहां-कैसे रखा है या इस्तेमाल करना है, कहा नहीं जा सकता। सामाजिक न्याय को किसे पिटारे के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता जिसका कोई स्थायी डाटा नहीं है। 

 

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