खबर लहरिया Blog सुप्रीम कोर्ट ने “ज़मानत के लिए राखी बँधवाओ” यौन मामले में एमपी अदालत का फैसला किया खारिज़

सुप्रीम कोर्ट ने “ज़मानत के लिए राखी बँधवाओ” यौन मामले में एमपी अदालत का फैसला किया खारिज़

मध्यप्रदेश अदालत द्वारा यौन मामले में आरोपी को पीड़िता से राखी बंधवाकर आने के लिए कहा गया। जिसके बाद उसे ज़मानत मिल सकती थी। जिसके बाद 18 मार्च को  सुप्रीम कोर्ट द्वारा एमपी के इस फैसले को खारिज कर दिया गया।

साभार-गूगल

सुप्रीम कोर्ट द्वारा बुधवार 18 मार्च को मध्यप्रदेश कोर्ट द्वारा सुनाये गए फैसले को खारिज कर दिया गया है। जिसमें मध्य प्रदेश कोर्ट ने महिला से छेड़छाड़ के आरोपी को उससे राखी बंधवाकर आने को कहा था। जिसके बाद ही उसे अदालत से ज़मानत मिल सकती थी।

लैंगिक टिप्पणियां ना करे न्यायधीश – सुप्रीम कोर्ट

उच्चतम न्यायालय ने न्यायधीशों को लैंगिक टिप्पणियों का इस्तेमाल करने के लिए भी मना किया। अदालत ने कहा, जैसे “अच्छी महिलाएं कामुक होती हैं”,जो महिलाएं शराब और धूम्रपान करती हैं, वे यौन सबंधों के लिए लोगों को आमंत्रित करती हैं।” इन सब बातों का न्यायधीशों को उपयोग में नहीं लाना है।

खंडपीठ ने एमपी न्यायधीशों के फैसले कहा, गैर-क़ानूनी

ए.एम. खानविलकर और रविन्द्र भट की न्यायधीश पीठ ने न्यायधीशों के पीड़िता का आरोपी से विवाह के लिए मज़बूर करने के फैसले को रोका। इसके साथ ही यह भी कहा कि न्यायधीश पीड़िता और उसके आरोपी के बीच किसी भी प्रकार का समझौता ना करवाए।

खंडपीठ ने न्यायधीशों द्वारा दिए गए फैसले को गैर-क़ानूनी करार दिया। कहा कि वह आरोपी जो यौन उत्पीड़न के शक के घेरे में है। उन्हें सामुदायिक सेवा और पीड़िता से माफ़ी मांगने के आधार पर ज़मानत नहीं देनी चाहिए।

इसके साथ -साथ सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को पीड़िता के साथ संपर्क में आने से भी मना करने का फैसला सुनाया।

आरोपी की ज़मानत कॉपी पीड़िता को मिले

अदालत ने कहा कि अगर यौन अपराध के मामले में आरोपी को ज़मानत दी जाती है। ऐसे में पीड़िता को तुरंत सूचित किया जाना चाहिए। इसके साथ-साथ उसके पास 48 घंटे के अंदर ज़मानत अर्जी की एक कॉपी भी दी जानी चाहिए।

सुनाया 24 पन्नों का लिखित फैसला

न्यायमूर्ति रविंद्र भट ने इस मामले में 24 पन्नों का लिखित फैसला सुनाया। जिस मामले में मध्यप्रदेश सरकार ने आरोपी को पीड़िता के घर जाकर ज़मानत के लिए राखी बंधवाकर आने के लिए कहा था।

वह आगे लिखते हैं कि, “राखी का इस्तेमाल ज़मानत के लिए उपयोग करने का मतलब है, न्यायिक आदेश से छेड़छाड़ करने वाले को भाई के रूप में बदल लेना। “

“स्त्री समाज में खुद की तरह नहीं रह सकती”- हेनरिक इब्सेन

न्यायधीश रविंद्र भट कहते हैं कि निर्णय और आदेश आज 70 साल की गणतंत्रता के बाद भी “पैतृक द्वेष और गलत दृष्टिकोण” दर्शाते हैं। न्यायमूर्ति भट ने हेनरिक इब्सेन का हवाला देते हुए कहा,”आज के समय में महिला समाज में खुद की तरह नहीं रह सकती। जो की एक विशेष तौर पर पुरुष समाज है। जहां कानून भी पुरुषों के अनुसार ही बनाये गए हैं। इसके साथ ही ऐसी न्यायिक प्रणाली जो पुरुष के नज़रिये से महिलाओं के साथ न्याय करती है।”

कानून किसी अपराध को बढ़ावा नहीं देता – सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कानून किसी भी ऐसे अपराध को बढ़ावा नहीं देता जहां पीड़िता को बार-बार चोट पहुंचाई जाए। ” यहां तक की अदालत में इस तरह का कोई आदेश या बात पूरी न्यायिक व्यवस्था को पूरे देश में गलत प्रभाव के रूप दर्शा सकता है। जो सभी को निष्पक्ष न्याय का भरोसा देती है। विशेष तौर पर यौन हिंसा से पीड़ित लोगों के लिए- न्यायमूर्ति भट ने कहा।”

भाषा का ध्यान से हो इस्तेमाल

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायधीशों को यौन अपराध के मामले में तर्क और भाषा के उपयोग में एहतियात बरतनी चाहिए। अदालत कुछ रूढ़िवादी उदाहरणों के द्वारा इस बात को स्पष्ट करती है। जैसे-“महिला शारीरिक रूप से कमज़ोर होती हैं और उन्हें सुरक्षा की ज़रुरत है”,”पुरुष घर का मुखिया होता है”,”मातृत्व हर महिला का कर्तव्य और भूमिका है”,”रात में अकेले रहना और कुछ असामन्य वस्त्र पहनाना, उन पर होने वाले हमलों का उन्हें ज़िम्मेदार बनाता है”,”महिलायें भावुक होती हैं और अक्सर नाटक करती है या ज़्यादा प्रतिक्रिया देती है”,”यौन अपराध के मामले में अगर महिला के शरीर पर कोई चोट नहीं है तो इसका मतलब यह है कि यौन मामले में उसकी मंज़ूरी थी” आदि।

न्यायधीशों को मिली चेतावनी

न्यायमूर्ति रविंद्र भट ने कहा कि न्यायधीशों को रूढ़िवादी जालों में नहीं फंसना चाहिए। वह कहते हैं कि न्यायधीश की पहुँच सिर्फ पार्टियों तक ही सीमित नहीं होती। बल्कि अन्य वकीलों,न्यायधीशों,क़ानूनी शिक्षाविदों,वकालत पड़ने वाले छात्र और यकीनन बड़े पैमाने की जनता भी होती है। न्यायधीश ने चेतावनी देते हुए यह कहा।

महिलाओं पर होती हिंसा का ज़िम्मेदार किसी ना किसी तरह से समाज और यहां तक अदालत द्वारा भी उन्हें ही ठहराया जाता है। अगर कोई सबूत नहीं मिलता तो उसे ही झूठा बना दिया जाता है। कभी उसके कपड़े तो कभी उसकी आज़ादी को उसके साथ हुए अपराध का दोषी बना दिया जाता है। पर आरोपी को लेकर ना तो ये बयान दिए जाते हैं। ना ही ऐसा कुछ सुनाई देता है। हर अपराध के लिए महिला ही गलत क्यों है? ये समाज और आरोपी दोषी क्यों नहीं है? उन्हें क्यों बचाने की कोशिश की जाती है?