खबर लहरिया Blog दिल्ली के निजामुद्दीन दरगाह पर पीले फूलों व संगीत से मना सूफ़ी बसंत/ बंसत पंचमी

दिल्ली के निजामुद्दीन दरगाह पर पीले फूलों व संगीत से मना सूफ़ी बसंत/ बंसत पंचमी

सूफ़ी बसंत मनाने का इतिहास 13वीं शताब्दी से जुड़ा हुआ है। पिछले लगभग 700 सालों से सूफी संत हजरत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह पर हर साल बसंत पंचमी मनाई जाती है।

सूफ़ी बसंत, बसंत के आगमन के साथ निजामुद्दीन औलिया की दरगाह को पीले फूलों की चादर व गीत-संगीत से सराबोर कर देता है। इसमें सिर्फ दरगाह ही नहीं बल्कि लोगों की पोशाकें भी पीली होती हैं जो उन्हें इस सूफी बसंत की रुहांगी में अपने साथ एक कर देती है। बता दें कि यह यह सूफी संत निज़ामुद्दीन औलिया का अंतिम विश्राम स्थल है।

दिल्ली के निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर सूफ़ी बसंत का आगमन हर किसी के चहरे पर आ रही मुस्कानों के साथ देखा जा सकता है। दरगाह के परिसर में कव्वाली के संग सरसों व गेंदे के पीले फूलों की बौछार लोगों के रूह को छूने का काम करती है। कानों में जाता मधुरमय गीत, मग्न होते लोग इस पूरे समा को आनंदमय बना देते हैं।

इस साल 14 फरवरी,2024 को मनाया गया सूफ़ी बसंत, बसंत पंचमी से जुड़ा हुआ है जिसे हिन्दुओं का त्यौहार बताया गया है। इसमें सरस्वती माता की पूजा की जाती है व पतंग उड़ाया जाता है।

यह त्यौहार प्रेम-मिलवर्तन का है, किसी एक से नहीं बल्कि सबसे जुड़ा हुआ है। यह दरगाह में इस दिन होने वाली भीड़ और लोगों में उत्साह को देखकर बताया जा सकता है।

सूफ़ी बसंत का इतिहास

सूफ़ी बसंत मनाने की शुरुआत को लेकर भी बेहद मार्मिक कहानी जुड़ी हुई है। सूफी बसंत का वार्षिक आयोजन इस्लामिक कैलेंडर के पांचवें महीने जुमादा-अल-अव्वल के तीसरे दिन पड़ता है।

बताया जाता है कि इसका इतिहास 13वीं शताब्दी से जुड़ा हुआ है। पिछले लगभग 700 सालों से सूफी संत हजरत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह पर हर साल बसंत पंचमी मनाई जाती है। यह परंपरा तब शुरू हुई जब हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने अपने सबसे प्रिय भतीजे हज़रत तकीउद्दीन नूह को खो दिया। बीमारी के चलते उनकी मौत हो गई थी। उसके बाद उन्होंने मुस्कुराना बंद कर दिया था। दुःख उनके समीप आकर बैठ चुका था।

अमीर खुसरो, हजरत निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्य ने जब अपने गुरु को उदास देखा तो उनका भी दिल टूट गया। बसंत पंचमी के दिन अमीर खुसरो ने महिलाओं के एक समूह को पीले कपड़े पहने, गीत गाते हुए, सरसों, टेसू, गेंदे के फूल लेकर कालका मंदिर के पास त्यौहार मनाते हुए देखा। उन्होंने महिलाओं से पूछा कि वह क्या कर रही हैं। फिर इसके बाद वह पीली पोशाक पहन, सरसों और टेसू के फूल लिए अपने गुरु से मिलने गए। वहां उन्होंने “फूल रही सरसों सकल बन” गाया, जिसका शाब्दिक अर्थ है “खेतों में हर जगह सरसों के फूल खिल रहे हैं”।

खुसरो को मुस्कुराता-गाता देखकर सूफ़ी संत भी मुस्कुरा दिए और उनसे लिपटे दुःख ने आखिर उन्हें छोड़ ही दिया। इसके बाद से ही यह प्रेम का त्यौहार मनाया जाने लगा।

यह लोगों को ही नहीं, धर्मों को भी जोड़ता है।

सूफी बसंत की तस्वीरें

 

 

 

 

तस्वीरें – संध्या 

 

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