गांव शहरों में घोसला रखने की व्यवस्था कम हो गई है। यही कारण है कि अब गौरैया पूरी तरह विलुप्त होती जा रही है। फिलहाल शहरों के मुकाबले गांव और छोटे कस्बों में थोड़ा बहुत गौरैया देखने को मिल जाती हैं।
रिपोर्ट – अलीमा, लेखन – गीता
बचपन में जब हमारे घरों की छतें खपरैल और मिट्टी के घर होते थे। उस समय घास फूस और पेड़ पौधे भी खूब रहते थे जहां गौरैया के घोंसले बनाने के लिए बहुत जगह होती थी। तब गर्मियों के सीजन में गौरैया ही गौरैया दिखती थी। लोगों के आंगन में आनाज फ़ैला रहता था और मिट्टी के बड़े-बड़े बर्तन में पानी भी खुला रखा रहता था तो गौरैया खूब खाती थी और ठंडा पानी पीती थी। साथ में उनके आवाज से घरों की सुंदरता बढ़ती थी। बच्चे भी आंगन में उनके आगे-पीछे घूमते थे। जब वह एक साथ झुंड में आती थीं और बच्चों के कूदते ही पंख फैलाकर उड़ती थी तो बहुत ही अच्छा लगता था। अब आधुनिक जमाना है मकान, कोठी, बंगले, फ्लैट की बनावट ऐसी हो गई है जिसमें गौरैया के घोंसले के लिए कोई जगह ही नहीं बची है। थोड़े-बहुत रोशनदान की जगह होती भी है तो उस पर भी कांच और जाली लगी होती है। फिर अगर कहीं खुला भी है तो कबूतर कब्जा कर लेते हैं। वह गौरैया का खाने का हक और घोंसला बनाने की जगह आसानी से छीन लेते है। यही कारण है कि अब गौरैया नहीं दिखती है। पहले खेतों में मोटा अनाज भी उनके चुगने के लिए खूब होता था।
पहले के समय में खेतों में खूब दिखती थी गौरया
पहले तो ठंडी के समय भी उनकी आवाज खूब सुनाई देती थी। यहां तक कि किसानों को अपनी फसल बचाने के लिए उनको खेत से गला-गला आवाज निकाल करके भगाना पड़ता था। खेतों में बाजरा, धान, ज्वार और गेहूं आदि की फसले बोई होती थीं। तब किसान पक्षियों से बचाने के लिए पत्थर, टिन-कनस्तर और गुल्ला का इस्तेमाल करते थे। उस समय गौरैया तोते और अन्य पक्षी एक जगह से उड़कर दूसरी जगह चले जाते थे लेकिन भूखे नहीं रहते थे। आज आधुनिक युग का किसान दवा से पूरे खेत की बालियों पर कीटनाशक कैमिकल का छिड़काव भी कर देता है। पक्षी उन्हें खा भी नहीं सकते और कोई जीव खाएगा भी तो उसे नुकसान पहुँचने का डर रहता है। इसलिए खेतों में भी उनके खाना और पीने की व्यवस्था कम हो गई है। गांव शहरों में घोसला रखने की व्यवस्था कम हो गई है। यही कारण है कि अब गौरैया पूरी तरह विलुप्त होती जा रही है। फिलहाल शहरों के मुकाबले गांव और छोटे कस्बों में थोड़ा बहुत गौरैया देखने को मिल जाती हैं जैसे कि अगर मैं अपने घर की बात करूं तो मेरे घर के सामने एक बहुत बड़ा बबुल का पेड़ है जहां पर गौरैया अक्सर बैठी रहती हैं। उनके चू…चू…की आवाज की आवाज मुझे बहुत सुकून देती है। छत में कुछ भी डालो वह तुरंत आकर खाती है और फिर झुंड का झुंड उड़ जाती हैं। ये गैरैया हर जगह नहीं दिखाई देती, गांव तक या छोटे कस्बे तक ही सीमित रह गई हैं वह भी बहुत ही कम मात्रा में।
गौरैया बचाने में योगदान
यदि हमें गौरैया को बचाना है तो सिर्फ गर्मियों में कुछ समय के लिए दिखावे के तौर पर विभागों के आसपास पेड़ों में खाना-पानी और लकड़ी के घोंसले टांगने भर से वह वापस नहीं आएंगी उसके लिए और भी कई तरह के प्रयास करने होंगे। जैसे कि घरों बनावट ऐसी रखी जाए जिसमें गौरैया के घोंसले के लिए जगह हो। अगर ये संभव नहीं है तो दपती के डब्बे, लकड़ी के बक्से, टिन के डब्बे, नारियल के जूट को घोंसले का रूप देकर बरामदे में टांगें। सीढ़ियों और छज्जे के नीचे जगह बनाएं ताकि बिल्ली, कुत्ता, नेवला, सांप, छुछुंदर, गिलहरी और चूहा आदि से गौरैया सुरक्षित रहे। अपने आसपास रोज एक कटोरी या मिट्टी के एक छोटे से बर्तन में साफ पानी भरकर रखें जिससे पक्षी प्यासे नहीं रहें और आंगन छतों और बरामदे में उनके चुगने के लिए दाना भी डालें। तभी संभव हो सकता है कि विलुप्त होती गैरैया वापस आ सके।
इंसान हो या पक्षी सब के लिए गर्मी सह पाना मुश्किल
गर्मियों की तपती दोपहरी केवल इंसानों के लिए ही नहीं बल्कि बेजुबान पक्षियों के लिए भी चुनौतीपूर्ण होती है। जैसे-जैसे तापमान बढ़ता है वैसे-वैसे जल स्रोत सूखने लगते हैं और पेड़ों की छांव भी कम होती जाती है। इस बदलते पर्यावरण में कई पक्षियों की प्रजातियाँ धीरे-धीरे विलुप्त होने लगती हैं इसका एक बड़ा कारण है पानी की कमी।
पक्षियों को पानी की सख्त जरूरत होती है खासकर गर्मियों में लेकिन शहरों में तालाब, कुएँ और जल स्रोत घटते जा रहे हैं। ऐसे में हमारी थोड़ी सी कोशिश जो अप्रैल में ही 45-46 डिग्री तापमान पहुंच रहा है उन्हें जीवनदान दे सकती है। अगर हर कोई अपने घर की छत, बालकनी या आंगन में एक कटोरी में साफ पानी रख दे, तो न जाने कितनी प्यास बुझाई जा सकती हैं।
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