बुंदेलखंड: ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था और कोरोना :कोरोना जैसी महामारी के चलते सरकार और जिला प्रशासन से ये सवाल पूंछना जरूरी है कि स्वास्थ्य विभाग ग्रामीण स्तर पर कितना तैयार है? उसकी खुद के कितने इंतज़ाम हैं? मैंने इस पर रिपार्टिंग की। सबसे पहले मैं बात करूंगी चित्रकूट धाम मंडल के मेडिकल कालेज बांदा की। यहां पर ही अगर देखा जाए तो गंभीर मरीज को बेहोश करने के लिए विशेषज्ञ एनेस्थीसिया चिकित्सक तक नहीं है। मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य के मुताबिक आईसीयू और वेंटीलेटर चालू करने के लिए फौरी तौर पर 4 असिस्टेंट प्रोफेसर, 4 एसोसियेट प्रोफेसर, 4 डाक्टर, ट्रेंड स्टाफ नर्स, एनेस्थीसिया एक्सपर्ट की कमी है। अगर ये स्थिति मेडिकल कालेज की है तो उप स्वास्थ्य केंद्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की बात करना ही बेकार है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र लुकतरा में तो डॉक्टर ही नहीं है। यह अस्पताल आयुष्मान भारत योजना से सम्बद्ध है इसलिए यहां पर आयुष्मान मित्र पद पर एक कम्पाउंडर है पर इसमें अगर सीएमओ की बात करें तो वह कम स्टॉप के साथ ही इस जंग को जीतना चाहते हैं। डीएम ने अपनी एक प्रेस वार्ता में ये जिम्मेदारी मीडिया पर थोप दी।
द वायर द्वारा लिखित 26 नवंबर 2019 को एक रिपोर्ट के अनुसार मंत्रालय द्वारा दिए गए डेटा के मुताबिक उत्तर प्रदेश में डॉक्टरों की अपेक्षित संख्या 3,621 है और प्रशासन द्वारा 4,509 डॉक्टर स्वीकृत किए गए हैं लेकिन इस समय राज्य में केवल 1,344 डॉक्टर काम कर रहे हैं यानी अपेक्षित आंकड़े से 2,277 कम और साथ ही 3,165 पद रिक्त हैं।
एक रिपोर्टिंग हमने महोबा जिले के कबरई के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र से की। यहां पर तो अस्पताल में ताला ही डाल दिया गया था कोरोना के डर के मारे और इस पर जब हो हल्ला हुआ तो खोल गया लेकिन जो सुविधाएं होनी चाहिए वह नहीं है। महोबा जिला अस्पताल में कुल छब्बीस डॉक्टरों में दस डॉक्टर ही हैं बाकी सोलह पद खाली पड़े हैं।
अगर ग्रामीण स्तर के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और उपकेंद्र को देखा जाए तो यहां पर मरीजों के आने की संख्या बहुत कम हो गई है। लोग कोरोना से भय के चलते अस्पताल जाने से कतराते हैं और ये भय दो तरह से है एक तो है कि कहीं वह कोरोना से संक्रमित न हो जाए और दूसरा कि उनको डॉक्टर कोरोना की बीमारी न बता दें। कुछ तो ऐसे भी हो रहा है सिर्फ ऐसे ही मरीज को अस्पताल में घुसने दिया जा रहा है जिनको कोरोना जैसे के लक्षण हैं। बाकियों का तो इलाज़ ही नहीं किया जा रहा। ग्रामीण स्तर पर ऐसे व्यक्तियों का इलाज टेम्प्रेचर मापने तक सीमित है और इस व्यवस्था को कहीं कहीं स्वास्थ्य विभाग की टीम घर घर जाकर कर रही है। ये व्यवस्था अच्छी है लेकिन इसको लगातार करते रहना स्वास्थ्य विभाग की टीम के ऊपर है क्योकि यह काम भी मनमानी तौर पर हो रहा है। इसको जांचना परखना शायद स्वास्थ्य विभाग जरूरी नहीं समझता। अगर आप ग्रामीण स्तर पर इस व्यवस्था को देखें तो शून्य है। अब इसकी जवाबदेही क्या स्वास्थ्य विभाग के पास है। हां हो भी सकती है पर वही गोल मोल जवाब कि ‘हां काम चल रहा है’ ‘हमारी टीम वहां भी जाएगी’ या मामले में जांच के बाद उचित कार्यवाही की जाएगी पर असल में होता कुछ नहीं है।
हमारा देश इटली, अमेरिका जैसे देशों से मेडिकल फैसलिटी से बहुत बहुत पीछे है लेकिन उन्होंने भी इस बीमारी से निपटने में हाथ खड़े कर दिए। क्या हमारा देश और हमारा शासन प्रशासन इससे निपटने के पूरी तरह से तैयार है? नहीं न, क्योंकि ये किसी से छिपा नहीं कि हमारे यहां की स्वास्थ्य सेवाएं खुद बीमार हैं और क्या बीमार व्यवस्था इलाज़ कर पायेगी? यहां के लोग, स्वास्थ्य विभाग यहां तक कि जिला प्रशासन भी ये समस्या जानते हुए भी ये मानने के लिए तैयार नहीं कि उनके यहां स्वास्थ्य व्यवस्था बीमार है। स्वास्थ्य चिकित्सा अधिकारी इस व्यवस्था में पर्दा डालते हुए कहते हैं कि सारे इंतज़ाम कर लिए गए हैं। जबकि अपनी रिपोर्टिंग के दौरान हमने पाया कि सरकारी अस्पतालों में ताले पड़ गए हैं। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर नहीं हैं, उचित व्यवस्थाएं नहीं है, स्वास्थ्य संसाधनों की कमी है तो फिर कोरोना महामारी लाचार और बीमार ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था से कैसे भागेगा?