2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 5-14 वर्ष की उम्र के बीच बाल श्रमिकों की कुल संख्या 10.1 मिलियन होने का अनुमान है जोकि व्यापक रूप से स्वास्थ्य व शिक्षा के बुनियादी मानवाधिकरों का उल्लंघन करता है।
रेलवे व बस स्टेशनों आदि सार्वजनिक जगहों पर आपको कूड़ा बीनते हुए बच्चे दिख जाएंगे। यह काम करना उनकी मज़बूरी है क्योंकि वह गरीब है। आर्थिक रूप से भी और सामाजिक रूप से भी। सामाजिक रूप से इसलिए क्योंकि गरीबी भी एक सामाजिक स्थिति है। इन्हें ‘रैगपिकर्स’ के नाम से संबोधित किया जाता है। ‘रैगपिकर्स’ यानी जो सड़क से कूड़ा उठाकर, उसे बेचकर अपनी जीविका चलाते हैं। पुरुष, महिलाएं, बुज़ुर्ग, युवा व बच्चे सभी यह काम कर रहे हैं।
हमारा देश जो विकासशील देश है, जहां बच्चों व युवाओं को देश का भविष्य कह उनके लिए सरकार द्वारा नई योजनाएं चला रही हैं लेकिन देश के कई सार्वजनिक स्थानों पर कूड़ा उठाने का काम कर रहे बच्चों के लिए कुछ नहीं है। बच्चों द्वारा किये जा रहे इस काम को ‘बाल श्रम यानी बाल मज़दूरी’ में नहीं गिना जाता।
शायद सरकार व लोग उन्हें कूड़ा उठाते देखने के आदि हो चुके हैं। शायद इसलिए जो यह कहते हैं कि वह देश व उसके भविष्य के लिए काम कर रहे हैं। उन्हें यह नहीं लगता है कि जो बच्चे कूड़ा बीन रहे हैं, वह देश का भविष्य हैं। उनका भविष्य शायद उम्र भर रेलवे स्टेशनों व सार्वजनिक जगहों पर पड़ी गंदगी को उठाना है।
The Bastion की फरवरी 2020 में प्रकाशित रिपोर्ट कहती है कि भारत में अनुमानित तौर पर 1.5 मिलियन से 4 मिलियन रैगपिकर्स हैं। अकेले दिल्ली 80,000 से 1,00,000 रैगपिकर्स का घर है।
अब इन बड़े-बड़े आंकड़ों की वजह को रोज़गार में कमी कहा जाए या सरकार की अनदेखी, इसकी कई वजहें हो सकती हैं।
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भारत में 10.1 मिलियन बाल श्रमिकों का अनुमान – रिपोर्ट
2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 5-14 वर्ष की उम्र के बीच बाल श्रमिकों की कुल संख्या 10.1 मिलियन होने का अनुमान है जोकि व्यापक रूप से स्वास्थ्य व शिक्षा के बुनियादी मानवाधिकरों का उल्लंघन करता है। आखिर बच्चे स्कूल जाने की बजाय कबाड़ क्यों उठा रहे हैं?
भारत ने बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम 1986 (Child Labour (Prohibition & Regulation) Act) सहित बाल श्रम पर कई संवैधानिक सुरक्षा और कानून पारित किए हैं। देखा जाए तो 14 साल से कम उम्र के कई बच्चे कूड़ा बीनने और मैला ढोने के काम में शामिल हैं। बाल श्रम अधिनियम होने के बावजूद भी बाल मज़दूरों के आंकड़े काफी ज़्यादा हैं।
सरकार ने असंगठित श्रमिकों के कल्याण के लिए असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम, 2008 (Unorganised Workers’ Social Security) भी बनाया है, जिसके तहत कूड़ा बीनने वाले शामिल हैं। हालांकि, एक सवाल यह भी है कि क्या ये सही में कूड़ा बीनने वाले बच्चों के लिए सही मायने में लागू होता है नहीं?
अंततः, सवाल वही है कि अधिनियम होने के बावजूद भी बाल श्रम के आंकड़े क्यों बढ़ रहे हैं?
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