जिला चित्रकूट। पुरैना के पत्ते (कमल का पत्ता), बुंदेलखंड की संस्कृति का हिस्सा हैं। यह पत्ते कई चीज़ों में काम आते हैं। जब पुरैन के पत्ते तालाब में पानी के अंदर रहते हैं, तो तालाब हरा-भरा होता है। तालाब की सुंदरता बढ़ती है। पुरैन के पत्तों से कमल का फूल खिलता है, जिससे तालाब बहुत ही सुहाना लगता है। लोग फूलों को तोड़कर गजरा बनाते हैं, मंदिरों में चढ़ाते हैं। जब इससे कमलगट्टा निकलता है, तो लोग इसे खाते भी हैं और इसका मखाना भी बनते हैं। जब तालाब सूख जाता है, तो जड़े निकलती है, जिसकी सब्जी भी बहुत स्वादिष्ट बनती है और लोग उसे खोद कर बाजार में महंगे दामों में बचते हैं। इतना ही नहीं इन पत्तों में लोग खाना भी खाते हैं, जिससे खाने का स्वाद भी अलग होता है।
लेकिन आज के बदलते दौर में आमतौर पर इन पत्तों कि जगह प्लास्टिक और फाइबर ने ले ली है जिससे खाने का स्वाद भी फीका पड़ गया है और प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है।
पुरैन के पत्तों के इस्तेमाल पर क्या कहते हैं गांव के बुजुर्ग
रामनगर कस्बे के बुजुर्ग हीरालाल उम्र (60)साल बताते हैं कि कस्बे का कुआंर गो तालाब लगभग बीस बीघे का है, जिसमें पुरैन के पत्ते फैले हैं। इन पत्तों को दो दशक पहले तक लोग विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों के दौरान दोने और पत्तल के रुप में इस्तेमाल करते थे। लोग इन पत्तों से बने दोने-पत्तल से अपने रिश्तेदारों और शादी-विवाह में बरातों को खाना खिलाते थे, लेकिन अब पुरैन के पत्ते का महत्व समाप्त हो गया है। यही नहीं लोगों की बेरूखी से पुरैन के पत्तों पर संकट भी खड़ा हो गया।
धीरे-धीरे बड़े हिस्से में फैले यह तालाब जिसमें पुरैन के पत्ते होते हैं, वह भी अब अतिक्रमण के शिकार होने लगे हैं। जब पुरैन के पत्ते के दोना-पत्तल से लोग शादी विवाह में रिश्तेदारों को खाना खिलाते थे और इस पत्ते से बने पत्तल का इस्तेमाल करते थे, तो वह पत्ते खाने के बाद एक तरफ फेंक दिए जाते थे जहां हरे भरे पत्ते देख जानवर भी उन पत्तों को खा लेते थे। जब वह पत्ते सूख जाते थे, तो उनको खेतों में डाल दिया जाता था उससे अच्छी खाद भी बन जाती थी, तो खेतों की पैदावार भी अच्छी होती थी। बदलते दौरऔर आधुनिकता ने इन पत्तों का महत्व खत्म कर दिया है।
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सरकार ही नहीं रोक पा रही प्लास्टिक का उपयोग
गांव के अंकुल उम्र (25) कहते हैं कि एक तरफ सरकार प्लास्टिक पर रोक लगा रही है, जो अच्छी बात है। दूसरी तरफ प्लास्टिक और फाइबर के दोना-पत्तल बनाने वाली फैक्ट्रियां बंद नहीं हो रही है, जिसके चलते पुरैन का पत्ता विलुप्त हो रहा है और प्रदूषण भी फैल रहा है।
गांव के लोगों का रोजगार भी बंद हो गया
लोगों ने बताया कि पहले गांव के गरीब लोग तालाबों से पुरैन का पत्ता तोड़ कर लाते थे। अपने घरों में उससे दोना-पत्तल बनाते थे और जब भी किसी के घर में गांव में शादी विवाह का कार्यक्रम होता था या कोई खत्म हो जाता था, तो उनके यहां वह लोग उन पत्तल और दोनों को देते थे। उसके बदले में उन लोगों को किसानों से अनाज,पैसा हर चीज मिलती थी, जिससे उन गरीब परिवारों का भी पेट चलता था। जब से प्लास्टिक और फाइबर आ गया तब से उन गरीब लोगों का रोजगार भी बंद हो गया। प्लास्टिक और फाइबर के दोना-पत्तल में खाना खाने से ना तो वह स्वाद मिलता है और ना ही उनका इस्तेमाल खाद और किसी अन्य चीजों के लिए हो पाता है जिससे की पर्यावरण भी सुरक्षित रहे। प्लास्टिक और फाइबर के दोना पत्तलों से जमीन और भी आ उपजाऊ हो जाती है, क्योंकि प्लास्टिक कभी गलती नहीं है और जानवर खाते हैं, तो उनको भी हानिकारक होती है, लेकिन क्या करें जब पुरीनी चीजें रहे ही नहीं गई हैं।
पहले इन्हीं दोना पत्तलों में बैठकर पंगत में मजे से खाते थे लोग
रानी उम्र (20) साल का कहना है कि वैसे तो पत्तल और दोने बीते जमाने की चीजें मानी जाती है। इसके बावजूद धार्मिक और सामाजिक मामले में इसकी जरुरत रहती है। ग्रामीण इलाकों में तो हर कार्यक्रम में इसका उपयोग होता था। पत्तल बनाने वाले लोग अक्सर ग्रामीण क्षेत्र से ही होते थे, लेकिन अब न पत्तल का इस्तेमाल होता है ना पत्तल बनाने वाले लोग हैं।
अब लोग पुरैन के पत्तों की जो जड़ होती है उसको थोड़ा महत्व देते हैं, क्योंकि उसकी सब्ज़ी बनती है और कमलगट्टा का मखाना बनता है। इसके अलावा पत्ते का कोई महत्व नहीं दिया जाता। अब वो मज़ा नहीं रहा, जो पहले था। अब बफर सिस्टम में लोग खाना खाते हैं। उसमें ना पुरैन के पत्तल जैसा खाने का स्वाद मिलता है और ना ही पेट भरता है।
एक समय था कि यह बुंदेलखंड का कल्चर था। इसे रौनक बढ़ती थी। जब प्लास्टिक में बैन लगाने के लिए सरकार वादे करती है और पता है कि प्लास्टिक हानिकारक है। चाहें जानवरों के लिए हो, इंसानों के लिए हो या पर्यावरण की सुरक्षा के लिए तो फिर क्यों इस पर बैन नहीं लगता जिससे वही पुराना कल्चर वापस आ सके।
रिपोर्टिंग – सहोदरा, लेखन – गीता, संपादन – संध्या
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