खबर लहरिया कोरोना वायरस कोरोना काल में राजनीति, देखिये राजनीति रस राय

कोरोना काल में राजनीति, देखिये राजनीति रस राय

कोरोना काल में राजनीति, देखिये राजनीति रस राय

कोरोनावायरस के फैलने से दुनिया मानो रुक सी गई है पर इस दौर में भी जो नहीं रुकी वो थी राजनीति. कोविड 19 पर राजनीति, कोविड19 के बहाने राजनीति, कोरोना काल में राजनीति। इसमें कहीं कोई संकट नहीं आया बल्कि इस बीमारी ने नेताओं को एक और मुद्दा थमा दिया। अगर आप सोच रहे थे कि इस कोरोना काल आपदा में व्यक्तिगत नफा नुकसान और पार्टी से ऊपर उठ कर हमारे नेता सोचेंगे, विचार करेंगे और उनके आचरण में ये बदलाव दिखेगा तो ये हमारी गलत फहमी थी। सहयोग की उम्मीद बेमानी और प्रतिस्पर्धा हावी थी। सोचने की बात है कि घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या?

मैं बात करना चाहती हूं कोविद 19 महामारी के समय आई विपदा की। कहते हैं विपदा जाति धर्म अमीर गरीब छोटा बड़ा नहीं देखती और उसका सामना सब करते हैं लेकिन अगर आपके हाथ में राजनीतिक बागडोर है तो बड़ी से बड़ी आपदा आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। क्योकि राजनीति करके लोगों को जैसा चाहें वैसा मोड़ सकते हैं। इस दौरान जम कर राजनीति हुई। सबसे पहले तो तबलीगी जमात से फैले मामलों के बाद, खुल कर देश में हिंदू मुस्लिम की राजनीति हुई। कोरोना के शुरूआती दौर में जमात के नाम पर राजनीतिक नफे नुकसान देखे गए।

फिर देश की विकास की रीढ़ मज़दूर वर्ग। भूख प्यास असहन होने पर पैदल ही चल पड़ा अपने घर को। इनका दुःख, पीड़ा, दर्द, तड़पन असहनीय थी। भूखे प्यासे खून के आंसू रोते रहे। यहां पर जिम्मेदारी ये बनती है कि पक्ष और विपक्षी राजनीतिक पार्टियां मिलकर इस विपदा का हल निकालें। एक साथ एकजुट होकर प्रभावित हुए लोगों को छति होने से बचा लें। पर ये घमंडी पार्टियां ऐसा क्यों करेंगी, ऐसा करने से एक दूसरे का एहसान जो हो जाएगी, पदमियां घट जाएंगी। पहले तो एक दूसरे को तोड़ती और नीचा दिखाती नज़र आईं हैं और अगर कभी ये हिम्मत भी की हैं तो वह तमाशा बनकर रह गया है जैसे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी ने बस भेजीं। खूब हंगामा और तमाशा हुआ और पर अंत में खाली बसें बेबस चलते लोगों के आंखों के सामने से वापस हो गईं। कितना पीड़ादायक रहा होगा वह पल।

साथ ही राज्यों ने रेलगाड़ियों को चलाने की मांग की। मजदूरों से किराया न लेने की बात की गई। वहीं पर कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने ऐलान किया कि कांग्रेस पार्टी मज़दूरों का पूरा किराया रेलवे विभाग को भुगतान करेगी। लेकिन हमने अपनी रिपोर्टिंग से पाया कि मजदूरों को खुद किराया देना पड़ा। अगर मध्यप्रदेश की बात की जाए तो वहां कांग्रेस और बीजेपी के बीच सरकार बनाने को लेकर ठानी रही। न बीमारी का ख्याल और न ही लोगों का। सहायता सामग्री तो नेताओं के लिए हमेशा प्रचार का अच्छा ज़रिया रही है और इस समय जब इतने दिहाड़ी मज़दूर बेरोजगार हो गए हैं तब केंद्र हो या राज्य सभी को उनमें वोट दिखने लगे। खाने के पैकेट बांटें तो उसमें भी अपना चेहरा और पार्टी का नाम जोड़ दिया।

कुल मिलाकर कोविड19 ने राजनीतिक रस्साकशी कम नहीं की बल्कि इस दौर में जमकर राजनीति हुई। इसमें उतनी ही नकारत्मकता और प्रतिद्वंदिता थी जैसे आम दिनों में होती है। फर्क ये था कि न जलसे थे, न जुलूस, न विरोध प्रदर्शन। लॉकडाउन के दौर में सोशल मीडिया की सहायता से आक्रामक राजनीति जारी रही और नेता नीति अनीति का भेद भूल वैसी राजनीति में जुटे रहे जिससे जनता के मन में राजनीति और नेताओं के प्रति घृणा का भाव ही पैदा किया है।

राजनीति का स्तर और कितना नीचे गिरेगा? क्या राजनीति का दूसरा नाम निर्दयता, घृणिता, चापलूस, चालबाज़, स्वार्थी, भितरघाती, भेदभाव नहीं होना चाहिए। इससे ज्यादा घातक शब्द पहले से ही इस्तेमाल किये जा रहे हैं लेकिन कोई असर नहीं पड़ता क्योंकि राजनीति शब्द के मायने बदल गए। राजनीति शब्द हर नागरिक का हक़ और मौलिक अधिकार प्रदान करने का एक शास्त्र है आज के दौर में पूरा का पूरा बदल दिया गया। इन्हीं सवालों और विचारों के साथ मैं लेती हूँ विदा, अगली बाद फिर आउंगी एक नए मुद्दे के साथ, तब तक के लिए नमस्कार।