खबर लहरिया Blog आंगन में पड़ी पिताजी की कुर्सी जिसे अब कोई नहीं पूछता!

आंगन में पड़ी पिताजी की कुर्सी जिसे अब कोई नहीं पूछता!

मिट्टी के आंगन में पड़ी चार पैरों वाली कुर्सी की लकड़ियां बूढ़ी हो चुकी हैं। इतनी की शायद यही वजह है उसके बारे में न पूछे जाने की। शायद उसे यूहीं अकेले देखने की आदत हो गयी है, आँखों को। शायद इसलिए भी क्योंकि अब उसमें वो जान नहीं बची जो किसी के जीवन का मार्मिक चित्रण कर पाए।

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                                                                                      आंगन में पड़ी पिताजी की कुर्सी ( तस्वीर – संध्या/ खबर लहरिया)

घर के बाहर आंगन में न जाने कब से वो चार पैरों वाली लकड़ी की कुर्सी यूंही पड़ी हुई है। कुर्सी पर बिछा हुआ गद्दा अब फट चुका है। पर उस पर अभी भी बैठा जा सकता है। वह अभी पूरी तरह से मिटा नहीं है। वो अभी-भी सुकुन की यादों से भरा हुआ है, अगर तुम उसे देखो, उससे बात करो तो!

अब उसकी कहानी कोई नहीं कहता। जिसकी छुअन का इस कुर्सी को एहसास था शायद अब वो नहीं है इसलिए अब उससे कोई नहीं बोलता ।

मिट्टी के आंगन में पड़ी चार पैरों वाली कुर्सी की लकड़ियां बूढ़ी हो चुकी हैं। इतनी की शायद यही वजह है उसके बारे में न पूछे जाने की। शायद उसे यूहीं अकेले देखने की आदत हो गयी है, आँखों को। शायद इसलिए भी क्योंकि अब उसमें वो जान नहीं बची जो किसी के जीवन का मार्मिक चित्रण कर पाए।

सब शायद है।

इस कुर्सी को देखकर मेरे अंदर बहुत उत्सुकता थी। घर के आंगन में कई चीज़ें पड़ी हुई थीं जो शायद समय के साथ इस कुर्सी की ही तरह कहीं भविष्य में ओझल हो जाती पर मेरी नज़रें एकटक उस कुर्सी को देखती रही जो बूढ़ी हो चुकी थी, जिसे अब कोई नहीं पूछता।

दिल में कोताहल करते सवालों को शांत करने के लिए आखिर मैंने घर के एक व्यक्ति से पूछ ही लिया कि आखिर इस कुर्सी की क्या कहानी है? यह यहां ऐसे क्यों पड़ी हुई है?

वह कहते, ये मेरे पिताजी की कुर्सी है। वह बैठा करते थे इस पर। कुर्सी की उम्र बताते हुए कहा, 40 साल पुरानी होगी कुर्सी। पर अब पुरानी हो गयी है इसलिए घर के आंगन में है। अब इस पर बैठ तो नहीं सकते पर हाँ, कुर्सी पिताजी की है।

मेरे सवालों के जवाब तो मुझे मिल गए लेकिन मुझे इस कुर्सी से मोह सा हो गया था। मैं किसी और की जुड़ी यादों को उस कुर्सी में तलाश कर पढ़ने की कोशिश कर रही थी, वही जिसे अब कोई पूछता नहीं है। जो मिट्टी के आंगन में बस अब यूहीं छोड़ दी गई है।

शायद, कुछ समय बाद वह बूढ़ी लकड़ियां अपने पैरों को ज़मीन पर और न टिका पाए और मिट्टी में मिल जाए लेकिन वो कुर्सी जो उस व्यक्ति के पिता की थी, वह अकेली थी यादों के साथ क्योंकि यादों में मौजूद लोगों ने अब उसे देखकर भी भुला दिया था।

वो बस यूंही एक बीते हुए पल की सज्जा की तरह घर के बाहर आंगन में छोड़ दी गई थी।

वो मिट्टी का आंगन, वो लकड़ी की चार पैरों वाली बूढ़ी कुर्सी और उस पर बिछा हुआ गद्दा जो उधड़ चुका था, हमारे घर, हमारे जीवन का हिस्सा है। तुम चाहो तो देख लो, तुम चाहो तो पूछ लो और अगर देख सको तो, अगर पूछ सको तो।

वो कुर्सी जिसे अब कोई नहीं पूछता, वो आंगन जिसने अब कुर्सी को ओझल कर दिया है, शायद !!

 

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