खबर लहरिया की रिपोर्ट में बताया गया कि कई बच्चों की मौत कुपोषण से हो जाती है क्योंकि उन्हें सरकारी योजना के तहत पोषाहार की सुविधा नहीं मिलती। यहां की गर्भवती महिलाओं में खून की कमी की वजह से कमज़ोरी रहती है, इसलिए जन्म के समय से ही ये बच्चे कुपोषण से ग्रस्त रहते हैं।
‘देश की जनता को बिना काम किये मुफ़्त में राशन और पैसे दिए जा रहे हैं’
वह देश जहां आज भी ग़रीबी, कुपोषण और बेघर होने की वजह से हर साल लाखों-करोड़ों लोगों की मौत हो जाती है, समाज के आखिर से आने वाला तबक़ा जो अपनी जातीय पहचान की वजह से हमेशा भेदभाव का सामना करता है और प्रताड़ित होता है, वहां मुफ्त राशन व योजनाओं का लाभ लेने पर उन्हें ‘परजीवी’ कहा जा रहा है जिस तक अमूमन उनकी पहुंच भी नहीं होती। उन्हें दूसरों पर अपने जीवन के लिए निर्भर रहने वाला जीव कहा जा रहा है।
यह बयान न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और अगस्तिन जॉर्ज मसीह की पीठ ने दिया है, जहां वह चुनाव के दौरान पार्टियों द्वारा मुफ़्त राशन और पैसे दिए जाने को लेकर टिप्पणी दे रहे हैं। न्यायधीश का सवाल है कि, “क्या हम उन्हें देश के विकास में योगदान देने के लिए मुख्यधारा समाज का हिस्सा बनने की अनुमति देने के बजाय, एक परजीवी वर्ग नहीं बना रहे हैं?”
उन्होंने कहा, लोगों को मुफ़्त में चीज़ें मिल रही हैं इसलिए वह काम नहीं कर रहे, लेकिन मेरा सवाल है किन्हें? और अगर मिल रहीं हैं तो क्या देश का नागरिक होने के नाते वो उन्हें न लें, जिसकी उन्हें ज़रूरत है?
एक व्यक्ति के अधिकार का देश में ‘मुफ़्त’ कहकर हंसी उड़ाई जा रही है। वह अधिकार जो उसे सुरक्षित जीवन के लिए आश्रय, भोजन और शरीर को ढकने के लिए कपड़ा देने का दावा करता है। जो भारत देश का नागरिक होने के नाते उसका जन्मसिद्ध अधिकार भी है और हक़ भी। वह हक़, जिसे राजनैतिक पार्टियां चुनाव के दौरान अपनी सत्ता लाने के लिए इस्तेमाल करती हैं। इस बीच ये पार्टियां कथित मुफ़्त राशन, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा और योजनाओं को रख कहती हैं कि यह लोगों की सहूलियत है। वह चीज़ें जो उन्हें मिलनी ही चाहिए थी। चुनाव में आज भी यह मुद्दे रखना आज तक देश में रही सभी पार्टियों की सबसे बड़ी असफ़लता को दर्शाता है कि वह लोगों को उनके अधिकारों के तहत मिलने वाली मूलभूत चीज़ें नहीं दे पाईं। यहां उन्हें थोड़ी-बहुत जो कुछ मूलभूत सुविधा मिल रही है तो उन्हें ‘परजीवी वर्ग’ करके संबोधित किया जा रहा है।
सम्मानीय न्यायधीश लोगों को समाज की मुख्यधारा में लाने की अनुमति देने की बात करते हैं लेकिन समाज की मुख्यधारा क्या है? क्या ये देश की वो 1.7 मिलियन से अधिक आबादी है जो साल 2011 की जनगणना में बेघर बताई गई है और उन्हें इस मुख्यधारा में लाने की बात की जा रही है?
यह आंकड़े आज 2025 के परिदृश्य में कम या ज़्यादा हो सकते हैं लेकिन लोगों का बेघर होना वर्तमान का सच है। जहां न्यायधीश योजनाओं के नाम पर लोगों को परजीवी कह रहे हैं, वो लोग आखिर बेघर क्यों है? उन्हें तो किसी न किसी पर आश्रित होकर बेहतर ज़िन्दगी जीनी चाहिए थी क्योंकि वो सरकार की कथित मुफ़्त योजनाओं पर आश्रित हैं!
कई रिपोर्ट्स के अनुसार, प्राकृतिक आपका को छोड़कर बेघर होने की सबसे बड़ी वजह है – सरकार द्वारा उनके घरों को तोड़ना, योजनाओं का लाभ न मिलना, जातीय भेदभाव, कभी खुद की ज़मीन न होना इत्यादि।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, देश की राजधानी दिल्ली में विभिन्न भूमि-स्वामी एजेंसियों ने पिछले पांच सालों में 30,853 आवास स्थानों को तोड़ा है, जिनमें आधे से ज़्यादा साल 2023 में तोड़े गए थे – यह आंकड़े राज्यसभा में प्रस्तुत किये गए थे।
हाउसिंग और लैंड राइट्स नेटवर्क द्वारा जब 27 अगस्त 2024 से 31 अगस्त 2024 तक बेघर लोगों की गिनती की गई तो पता चला कि राजधानी दिल्ली में लगभग तीन लाख लोग ऐसे हैं, जिनमें परिवार, महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग शामिल हैं और वह खुले में बिना आश्रय के रहने को मजबूर हैं।
खुले में रहने की वजह से उन्हें अन्य लोगों के मुकाबले अत्यधिक गर्मी, सर्दी और बरसात का सामना करना पड़ता है। यह लोग बेघर होने के साथ समाज के आखिरी तबके से आने वाले लोग भी होते हैं जो सामाजिक हिंसा का भी सामना कर रहे होते हैं।
बिज़नेस स्टैण्डर्ड की जनवरी 2025 की रिपोर्ट के अनुसार, एक गैर-सरकारी संगठन सेंटर फॉर होलिस्टिक डेवलपमेंट द्वारा दावा किया गया कि दिल्ली में 15 नवंबर 2024 से 10 जनवरी 2025 के बीच कम से कम 474 बेघर लोगों की ‘अत्यधिक सर्दी’ की वजह से मौत हुई है।
वहीं हीटवेव से 17 राज्यों में 733 मौतें और 40 हज़ार से अधिक हीटस्ट्रोक के मामले रिकॉर्ड हुए। केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने बताया कि 360 मौतें हीटस्ट्रोक से हुई थी।
अगर इन लोगों को पीएम आवास योजना जो शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को आवास देने का दावा करती है, मिली होती तो ये लोग अत्यधिक सर्दी और गर्मी की वजह से अपनी जान नहीं गंवाते। सुविधाएं वहीं हैं, जहां पहुंच है। वह पहुंच जहां उनकी जाति और पहचान उन्हें समाज में आगे बढ़ने से नहीं रोकती।
अपने बयान में सम्मानीय न्यायधीश ने आगे कहा कि लोगों को मुफ़्त राशन मिल रहा है इसलिए वह काम नहीं कर रहे। वहीं देश ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 127 देशों में से 105वें स्थान पर है, जहां भारत को ‘भूख की गंभीर स्थिति’ में रखते हुए 27.3 का स्कोर दिया गया है।
खबर लहरिया की प्रयागराज जिले से अगस्त 2023 में की गई रिपोर्ट में बताया गया कि कई बच्चों की मौत कुपोषण से हो जाती है क्योंकि उन्हें सरकारी योजना के तहत पोषाहार की सुविधा नहीं मिलती। यहां की गर्भवती महिलाओं में खून की कमी की वजह से कमज़ोरी रहती है, इसलिए जन्म के समय से ही ये बच्चे कुपोषण से ग्रस्त रहते हैं।
साल 2018 में भारत सरकार द्वारा राष्ट्रिय पोषण मिशन/पोषण योजना की शुरुआत की गई थी, जिसका मकसद कुपोषण से लड़ना था, वो लड़ाई जो ग्रामीण क्षेत्रों और पिछड़ी जातियों तक पहुंची ही नहीं।
खबर लहरिया ने अपनी रिपोर्ट में पाया कि राशन व कुपोषण की समस्या अनुसूचित जातियों से आने वाले लोगों के लिए और भी गंभीर हो जाती है, क्योंकि समाज में जातिगत भेदभाव की वजह से उन्हें सुविधाओं से वंचित कर दिया जाता है।
टीकमगढ़ जिले के अनगढ़ा आदिवासी बस्ती के लोगों की भी यही शिकायत रही कि आंगनबाड़ी द्वारा न तो उन्हें पोषाहार दिया जाता और न ही कोई जानकारी। उनकी आय जंगल की लकड़ियों को बेचने पर ही निर्भर है और जब सरकारी सुविधा भी उन्हें नहीं मिलती तो उनके लिए चुनौती भरण-पोषण के साथ अपने बच्चे के स्वस्थ सेहत को लेकर भी रहती है, जिससे वह हमेशा जूझते नज़र आते हैं।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की 13.7 प्रतिशत जनसंख्या कुपोषण का सामना कर रही है। 35.5 प्रतिशत पांच साल से कम उम्र के बच्चों की लंबाई सामान्य से कम है। 18.7 प्रतिशत पांच साल से कम उम्र के बच्चों का वज़न सामान्य से कम है, वहीं 2.9 प्रतिशत बच्चों की पांच साल की उम्र होने से पहले ही उनकी मौत हो जाती है।
मुफ्त राशन, आवास और योजनाओं की पहुंच और लाभ मिलने वाली बातें सिर्फ समाज के उस घेरे पर कुछ हद तक सही बैठती हैं, जो जानकार है। जिसके पास जानकारी तक पहुंच है और समाज में आर्थिक रूप तौर पर कुछ हद तक सुदृढ़ हैं।
यह बातें पिछड़ी जनजातियों, जातिगत हिंसा से ग्रसित लोगों, गरीब वर्ग, दूर–दराज़ के इलाकों में रहने वाले जैसे इत्यादि लोगों के लिए नहीं है। क्योंकि ये लोग सिर्फ मेहनत करते हैं, मज़दूरी की तलाश करते हैं और कई बार अपने अधिकारों और हक़ की भी, जिसे पार्टियां ‘मुफ़्त’ कहकर बेचती हैं और न्यायधीश इसे पाने वाले लोगों को ‘परजीवी’ वर्ग कहकर उनके दैनिक संघर्ष को नज़रअंदाज़ करते हैं। क्योंकि सुविधाओं को देने के ढिंढोरे पीटे जाते हैं और असफ़लताओं को सुला दिया जाता है, एक भीतरी गांव की तरह जहां उसे देखने भी नहीं जाया जा सकता है, क्योंकि वहां जाने की सड़क ही नहीं है।
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