वे महिलाएं जो बस यही जानना चाहती थीं कि आख़िर हमारे देश के लोग मारे गए तो उसका जवाब देने में सरकार को इतनी देर क्यों हो रही है। सरकार से सवाल करना, न संविधान के खिलाफ है और न देश के। लेकिन जैसे ही इन सवालों की आवाज़ औरतों के गले से निकली, सोशल मीडिया के गलियारों में उनके लिए भाषा बदल गई।
लेखन – मीरा देवी
पहलगाम हमले के बाद जिस तरह से महिलाओं को ट्रोल किया गया। उनको न जाने क्या क्या कहा गया। देशद्रोह और राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम जैसी गंभीर धाराओं के तहत मुकदमें लिखे गए। उनका चरित्र को उछाला गया, यही नहीं हिंदू-मुस्लिम किया गया। उन लोगों से पूछना चाहूंगी कि वह लोग अब क्या कहेंगे कर्नल सोफ़िया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह के बारे में। ये वही महिलाओं का हिस्सा हैं जो सरकार से सवाल कर रही थीं पहलगाम आतंकी हमले को लेकर। आज वही महिलाओं का हिस्सा खुद कार्यवाही की कमान संभाल रही हैं। आखिकार महिलाओं को कितना नीचा दिखाओगे, अपमानित करोगे, तुम्हारी कल्पना से भी आगे हैं महिलाएं।
आइए आज से एक हफ्ते पीछे चलते हैं। जब पहलगाम आतंकी हमले के बाद देश में आतंकियों के साथ-साथ सवाल पूछने वालों पर भी हमला शुरू हो गया था लेकिन सबसे ज़्यादा शिकार बनाई गईं महिलाएं। वे महिलाएं जो बस यही जानना चाहती थीं कि आख़िर हमारे देश के लोग मारे गए तो उसका जवाब देने में सरकार को इतनी देर क्यों हो रही है। सरकार से सवाल करना, न संविधान के खिलाफ है और न देश के। लेकिन जैसे ही इन सवालों की आवाज़ औरतों के गले से निकली, सोशल मीडिया के गलियारों में उनके लिए भाषा बदल गई। कहीं उन्हें गालियां दी गईं, कहीं उन्हें ‘पाकिस्तानी’ कहा गया, कहीं देशद्रोही, कहीं ‘बिकी हुई औरत’ और कहीं ‘खान मार्केट गैंग’ की एजेंट। ये शब्द उनके विचारों के लिए नहीं जबकि उनके महिला होने के कारण इस्तेमाल किए गए।
नेहा सिंह राठौर का उदाहरण लीजिए। एक लोक गायिका, जिनकी पहचान एक सवाल पूछने वाली कलाकार की है। उन्होंने पहलगाम हमले के बाद एक व्यंग्य गीत के ज़रिए यह पूछा कि जवाब कौन देगा? जवाब में क्या मिला? एफआईआर, गालियां, जातिगत ट्रोल और चरित्र पर सवाल। कोई कहता है, “बिक गई है” कोई कहता है “तुम्हारा मालिक कौन है?” और ये सवाल पूछने वाले अक्सर फेक आईडी वाले, राजनीतिक दलों की ट्रोल आर्मी से जुड़े होते हैं।
डॉ. मद्री काकोटी जो लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं और व्यंग्य लिखती हैं। उन्होंने जैसे ही सरकार की नीतियों पर व्यंग्य किया उन पर देशद्रोह की धाराएं थोप दी गईं। एक पढ़ी-लिखी महिला को सोशल मीडिया पर गाली देना, उसके चरित्र पर टिप्पणी करना आम हो गया।
हिमांशी नरवाल, जो पहलगाम आतंकी हमले में शहीद अफसर की पत्नी हैं। उन्होंने बस इतना कहा कि मुस्लिम और कश्मीरी लोगों को इस हमले के लिए सामूहिक रूप से दोषी न ठहराया जाए। फिर क्या था, ट्रोलिंग की आंधी चली, गालियों से लेकर “पाकिस्तानी एजेंट” तक का ठप्पा दे दिया गया।
ऐसे ही एक नाम है – शैला नेगी, जो उत्तराखंड में सामाजिक काम करती हैं। उन्होंने पहलगाम हमले को लेकर एकजुटता की अपील की और सांप्रदायिकता से बचने को कहा। पर उन्हें सोशल मीडिया पर “देशद्रोही” “मुस्लिमों की दलाल” और “जिहादी प्रेमी” जैसे शब्दों से ट्रोल किया गया।
इनके अलावा भी करीब 15 से ज्यादा महिलाएं, जिनमें छात्राएं, पत्रकार, एक्टिविस्ट और आम सोशल मीडिया यूज़र शामिल हैं उन्हें भी ट्रोलिंग का शिकार बनाया गया। खासतौर से मुस्लिम महिलाओं को तो दोहरी ट्रोलिंग झेलनी पड़ी – धर्म को लेकर और महिला होने को लेकर। उन्हें “बुर्का गैंग” “अंदर की एजेंट” “आईएसआई ब्राइड” जैसे अपमानजनक नामों से नवाजा गया।
अब सवाल ये उठता है कि पुरुष जब सवाल करता है तो उसे ‘देशप्रेमी आलोचक’ कहा जाता है लेकिन वही सवाल महिला करे तो वह ‘देशद्रोही’ क्यों बन जाती है? क्या सोचने की आज़ादी, सवाल करने का हक़ सिर्फ पुरुषों को है? अगर कोई महिला सवाल करे तो समाज उसे गालियों की बौछार करेगा। उसकी निजी जिंदगी खंगालेगा और उसे मानसिक रूप से तोड़ने की कोशिश करेगा?
असल में यह ट्रोलिंग सिर्फ विचारों से असहमति नहीं है। यह एक संगठित मानसिकता है जो चाहती है कि महिलाएं चुप रहें। वे सरकार से सवाल न पूछें, न समाज से। वे सिर झुकाकर रहें और अगर बोलें भी तो वही जो सत्ता को पसंद आए। यह मानसिकता पितृसत्ता से पनपती है जहां मर्द सत्ता में है और मर्द सत्ता के सवालों से भी बचाना चाहता है। जब महिला सवाल करती है तो वह उस सत्ता को चुनौती देती है यही बात इस समाज को हज़म नहीं होती है।
सोशल मीडिया ट्रोलिंग अब एक हथियार बन गया है खासकर महिलाओं को डराने, चुप कराने और नीचा दिखाने का। गालियों से लेकर रेप की धमकियों तक, सब कुछ खुलेआम चलता है। यह सब अक्सर उन्हीं राजनीतिक समूहों के इशारे पर होता है जो खुद को राष्ट्रप्रेमी और राष्ट्रवादी कहते हैं। ये लोग खुद को देशभक्त मानते हैं पर एक महिला के सवाल पूछते ही उसे “गद्दार” करार देते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि एक सोच है जो मानती है कि देशभक्ति और मर्दानगी की ठेकादारी सिर्फ मर्दों के पास है। जबकि देशभक्ति का मतलब है सरकार से सवाल करना, जवाब मांगना और जब ज़रूरत पड़े तब विरोध करना, ताकि सरकार मनमौजी न कर सके।
हैरानी की बात यह है कि कुछ ऐसी महिलाएं भी इस ट्रोलिंग का शिकार बनीं जो कभी सत्ता के साथ खड़ी थीं लेकिन जब उन्होंने स्वतंत्र होकर सवाल किया तो उन्हें भी बख्शा नहीं गया। यानी कि अगर आप महिला हैं और बोल रही हैं तो आपकी निष्ठा, आपका चरित्र, आपका धर्म, सब शक के दायरे में आ जाएगा। ऐसे में महिलाओं से यही सवाल करना जायज़ है – आखिर तुम्हें कितनी बार अपमानित किया जाएगा? कितनी बार नीचा दिखाया जाएगा? फिर वही महिलाएं जो कल सरकार से सवाल कर रही थीं। आज वही महिलाएं अपने स्तर पर मदद पहुंचा रही हैं। सामाजिक कार्यकर्ता बनकर लोगों की आवाज़ बन रही हैं।
दरअसल ये ट्रोलिंग सिर्फ एक राजनीतिक औजार नहीं है, ये एक सामाजिक बीमारी है जिसमें महिला की स्वतंत्रता, सोच और हिम्मत से डरने की आदत बन गई है। जो महिलाएं अपनी जगह, अपनी बात और अपने हक़ के लिए खड़ी होती हैं उन्हें डराने के लिए अब सोशल मीडिया को जेल बना दिया गया है। इस जेल की सलाखें वे लोग बनाते हैं जो खुद बदलाव से डरते हैं।
अब आज की महिला, तुम्हारी कल्पना से आगे निकल चुकी है। वह अब सिर्फ सवाल नहीं पूछ रही जबकि वह जवाब भी गढ़ रही है और अगुवाई (नेतृत्व) भी संभाल रही है। तुम्हारे ट्रोल, तुम्हारी गालियां, तुम्हारे जजमेंट अब उसे नहीं रोक सकते। वह सोशल मीडिया की लड़ाई भी लड़ रही है और ज़मीन पर भी। आज जब देश जल रहा है तब वही महिलाएं जो कभी ट्रोल हुईं अब लोगों को राहत दे रही हैं। सवाल पूछने से लेकर समाधान खोजने तक, वो हर भूमिका में हैं।
अब वक्त है कि समाज खुद से सवाल करे कि क्या हम ऐसी ही लोकतांत्रिक बहस और बराबरी चाहते हैं जिसमें महिला को बस तब तक सुना जाए जब तक वह ‘हां में हां’ कहे? या हम एक ऐसा भारत चाहते हैं जहां महिला भी उसी हक़ से सवाल पूछे जैसा एक मर्द पूछता है? जवाब अगर सच में लोकतंत्र है तो फिर ट्रोलिंग का ये रिवाज बंद करना ही होगा।
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