हेलो दोस्तो, मैं हूँ मीरा देवी खबर लहरिया की ब्यूरो चीफ, मेरे शो राजनीति, रस और राय में आप सबका एक फिर से बहुत बहुत स्वागत है।
15 अक्टूबर को दुनिया भर में अंतर्राष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस मनाया जाता है इसकी शुरूआत 2008 में हुई थी। पिछले साल मतलब 2018 में इसी दिन संयुक्त राष्ट्र (यूएन) महासचिव एंटोनियो गुतेरस ने ग्रामीण महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों की रक्षा की अपील की है। सभी देशों के लिए समृद्ध, न्यायसंगत और शांतिपूर्ण भविष्य बनाने के लिए गुतेरस ने ग्रामीण महिलाओं और लड़कियों के सशक्तीकरण को जरूरी बताया।
शिन्हुआ न्यूज एजेंसी के मुताबिक, यूएन प्रमुख ने सभी देशों से ग्रामीण महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों की रक्षा को सुनिश्चित करने के लिए जरूरी कदम उठाने का आग्रह किया है ताकि वे भी पूरी तरह से अपना जीवन मानवाधिकारों के तहत जी सकें। उन्होंने कहा,’महिलाओं पर होने वाली किसी भी प्रकार की हिंसा व भेदभाव को खत्म करने के लिए उन्हें गुणवत्ता, किफायती और सुलभ शिक्षा की जरूरत है। इसके लिए निवेश, कानूनी, नीतिगत सुधारों के साथ-साथ ग्रामीण महिलाओं को उनके जीवन को प्रभावित करने वाले निर्णयों में शामिल करने की आवश्यकता है।
भले ही एक दिन ही सही कम से कम एक दिन ऐसा है जिस दिन ग्रामीण महिलाओं के बारे में बात की जाती है। ग्रामीण महिलाओं की बातें 16 अक्टूबर के बाद भी होती रहेंगी पर 15 अक्टूबर को कुछ खास बात ही की जाएगी। हर बार दिन ग्रामीण महिलाओं के चहुमुखी विकास और शसक्तीकरण और उनकी जांगरूकता की बात होती। पर महिलाएं अभी भी इन सबके पर हर रोज हर समय अपने हक़ अधिकारों से वंचित रहती हैं। गैर बराबरी और असमानता की शिकार होती हैं। कुछ तो इन सबको जानते हुए भी चुनौतियां मानकर सहती जाती हैं और बहुत महिलाएं इनसे अनजान हैं। क्योंकि ग्रामीण इलाके में आज भी महिलाओं का बहुत बड़ा हिस्सा और अगर इसके अंदर अनुसूचित और अनुसूचित जनजाति की महिलाएं देखी जाएं तो शिक्षा और जागरूकता से बहुत बहुत दूर है।
महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा और अपराध उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक हैं, लेकिन एक छोटा ज्ञात तथ्य महिलाओं के भूमि स्वामित्व के संबंध में इसके खराब रिकॉर्ड हैं। सेंटर फॉर लैंड गवर्नेंस द्वारा बनाए गए एक इंडेक्स के अनुसार, उत्तर प्रदेश में सभी भूमि होल्डिंग्स में से केवल 6.1% महिलाओं के पास हैं। राष्ट्रीय औसत 12.9% है। बुंदेलखंड जैसी जगह में, जो परिवार में पुरुष सदस्यों द्वारा काम के लिए प्रवासन की उच्चतम दर का गवाह है, समस्या इस तथ्य के प्रकाश में अधिक महत्व प्राप्त करती है कि खेतों को महिलाओं द्वारा ध्यान रखा जाना बाकी है।
आज महिलाएं हर क्षेत्र में आने के लिए पूरी ईमानदारी से जद्दोजहद मेहनत कर रही हैं लेकिन समाज उनको पीछे धकेलने के लिए बहुतायत प्रयासरत है पर ये महिलाएं भी कम नहीं। अगर राजनीतिक क्षेत्र में देखा जाए तो पंचायत के चुनाव से ही शुरू होती है। मैंने दो दलित जाति की महिला प्रधानों से इस पर इंटरव्यू किया। जिन्होंने कड़ी चुनौतियों को पार करते हुए अपने पंचायत में आदर्श प्रधान के रूप में स्थापित किया। इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया कि दलित और महिला प्रधान होने के नाते जेंडर, जातिगत, छुआछूत और गैरबराबरी के भेदभाव जैसे तमाम चुनौतियों को पार करके दोबारा चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं।
एक तरफ हमारा देश विभिन्न क्षेत्रों में पूरी दुनिया में नित नए प्रतिमान गढ़ रहा है, वहीं देश की आधी आबादी समाज में समानता के लिए संघर्षरत है। गैर बराबरी की यह सोच, घर-परिवार समेत समाज के हर हिस्से में इस कदर बैठी हुई हैं कि तमाम कोशिशों के बावजूद महिलाएं, पुरुषों के समान स्थान और सम्मान नहीं हासिल कर पा रही हैं। ऐसे में महिलाओं के सशक्तिकरण की राह में सबसे प्रमुख बाधा के रूप में मौजूद लैंगिक असमानता को दूर करने के लिए बहुस्तरीय प्रयास जरूरी हैं।
इस दुनिया की पहली नारीवादी चिंतक सिमोन द बोउआर ने कहा था, ‘पहले औरत के पंखों को काट दिया जाता है और फिर उस पर इल्जाम लगाया जाता है कि उसे उड़ना नहीं आता।’ आज भी यह कथन उतना ही सत्य है, जितना पिछली सदी के मध्य में था। आज भी हमारे मस्तिष्क में स्त्री की छवि, दूसरों पर निर्भर एक अबला की बनी हुई है। मां के रूप में भले ही समाज में उसको पूजा जाता हो, लेकिन एक स्त्री के रूप में अधिकांशत: उसे मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। यह हमारे समाज की भयावह सच्चाई है। इसको बदलने में और कितने दिन लगेंगे? इसका जवाब है क्या आपके पास, नहीं न।
तो दोस्तो अगर आपके पास मेरे सवाल का जवाब है तो हमारे चैनल खबर लहरिया पेज पर जाकर कमेंट बॉक्स में लिख भेजिए। अभी के लिए मैं लेती हूँ विदा। अगली बार फिर आउंगी एक नए मुद्दे के साथ तब तक के लिए नमस्कार