खबर लहरिया Blog नए आपराधिक कानून में नहीं है पुरुष,ट्रांस व जानवरों के साथ होने वाली यौनिक हिंसा के लिए कानून व न्याय

नए आपराधिक कानून में नहीं है पुरुष,ट्रांस व जानवरों के साथ होने वाली यौनिक हिंसा के लिए कानून व न्याय

आज 1 जुलाई 2024 से भारत में आईपीसी (1980) की जगह भारतीय न्याय संहिता (2023) लागू हो गई  है. नये कानून में कहीं भी पुरुषों,ट्रांसमेन व जानवरों के साथ होने वाली यौन हिंसाओं को लेकर कोई दंड या कानून नहीं है जिसके बारे में आईपीसी की धारा 377 बात करती थी.

No law and justice in the new criminal law for sexual violence against men, trans people and animals.

फोटो साभार – सोशल मीडिया

अब देश में ऐसा कोई भी कानून नहीं है जो पुरुषों,ट्रांस व्यक्तियों व जानवरों के साथ होने वाली यौन हिंसाओं को अपराध मानते हुए उसके खिलाफ काम करेगा. ऐसा इसलिए क्योंकि आज 1 जुलाई 2024 से भारत में आईपीसी (1980) की जगह भारतीय न्याय संहिता (2023) लागू हो गया है. नये कानून में कहीं भी पुरुषों,ट्रांसमेन व जानवरों के साथ होने वाली यौन हिंसाओं को लेकर कोई दंड या कानून नहीं है जिसके बारे में आईपीसी की धारा 377 बात करती थी.

आईपीसी का हटना एक जेंडर के प्रति संवेदनशीलता व अन्य जेंडर्स के प्रति असंवेदनशीलता और एक बड़े गैप को दर्शाता है. द हिन्दू की रिपोर्ट में सीनियर वकील आनंद ग्रोवर बताते हैं कि

“भारत में बलात्कार कानून लिंग-तटस्थ (Gender-Neutral) नहीं हैं। आईपीसी की धारा 376 केवल महिलाओं के खिलाफ बलात्कार से संबंधित है और बीएनएस में धारा 377 को शामिल न करने से, 1 जुलाई के बाद पुरुषों और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों का बलात्कार गैर-अपराध बन जाएगा.”

बता दें, आईपीसी के हटने से पहले देश में धारा 377 के तहत पुरुषों, ट्रांसमेन व जानवरों के साथ होने वाली यौन हिंसाओं के लिए दंडनीय अपराध निश्चित किये गए थे. इस धारा के अंतर्गत अगर कोई ट्रांसजेंडर व्यक्ति किसी भी तरह की यौनिक हिंसा का सामना करते हैं तो अपराधी को 10 साल या आजीवन कारावास की सज़ा हो सकती है. वहीं ट्रांसजेंडर एक्ट में यह सज़ा सिर्फ दो साल की है.

द न्यूज़ मिनट की रिपोर्ट के अनुसार, वकील और अधिकार कार्यकर्ता अरविंद नारायण ने कहा कि नए विधेयक में धारा 377 को बरकरार रखने की जरूरत नहीं है, बल्कि पुरुषों और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के खिलाफ यौन अपराधों को अपराध मानने के लिए बलात्कार पर कानूनों के हिस्से के रूप में एक नया प्रावधान पेश किया जाना चाहिए।

बता दें, आज तीन नए आपराधिक कानून लागू हुए हैं. भारतीय न्याय संहिता (Bharatiya Nyaya Sanhita), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita), और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Bharatiya Sakshya Adhiniyam) जो 1860 के भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), 1973 की आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और 1872 के भारतीय साक्ष्य अधिनियम की जगह लेंगे जो आज 1 जुलाई 2024, सोमवार से प्रभावी हैं.

सभी बिलों को दिसंबर 2023 में वापस ले लिया गया था और नवंबर 2023 में संसदीय स्थायी समिति द्वारा की गई कुछ सिफारिशों को शामिल करने के लिए संसद में फिर से पेश किया गया था। 20 और 21 दिसंबर 2023 को, संशोधित बिल क्रमशः संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित किए गए थे व इसके साथ ही 25 दिसंबर 2023 को इसे राष्ट्रपति द्वारा सहमति मिली थी.

377 का हटना क्यों गलत है व न्यायालय इस पर क्या कहता है?

Change.org की जून 2024 की रिपोर्ट बताती है कि 2019 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से घोषणा की कि, “जहां तक ​​धारा 377 वयस्कों द्वारा निजी तौर पर (18 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्ति जो सहमति देने में सक्षम हैं) सहमति से किए गए यौन संबंधों को अपराध मानती है, यह संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 का उल्लंघन है।”

हालांकि, अपने निष्कर्ष में उन्होंने यह साफ़ किया कि ऐसी सहमति स्वतंत्र सहमति होनी चाहिए, जो प्रकृति में पूरी तरह से स्वैच्छिक है, और किसी भी दबाव या दबाव से रहित है. इसलिए भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के प्रावधान वयस्कों के खिलाफ गैर-सहमति वाले यौन कृत्यों, नाबालिगों के खिलाफ शारीरिक संभोग के सभी कृत्यों और पशु सम्भोग (पशुओं के साथ यौन संबंध/bestiality) के कृत्यों को नियंत्रित करना ज़ारी रखेंगे।

आज 1 जुलाई 2024 को प्रभावी हुई नई भारतीय न्याय संहिता 2023 आईपीसी 377 के इन प्रावधानों को हटा देती है। रिपोर्ट के अनुसार, यह आईपीसी 377 पर विकसित न्यायशास्त्र को गलत तरीके से पढ़ती व समझती है और भारत में एक विलक्षण प्रकार के लैंगिक भेदभाव को मानती है। यह गृह मामलों की स्थायी समिति (Standing Committee on Home Affairs) की 246वीं रिपोर्ट की सिफारिश को नजरअंदाज करती है जिसमें कहा गया है कि भारतीय न्याय संहिता 2023 में पुरुषों, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों और गैर-मनुष्यों (जानवरों) के खिलाफ गैर-सहमति वाले यौन अपराधों के लिए कोई प्रावधान नहीं है।

रिपोर्ट लिखती है कि भारत सरकार, यौन हिंसा के रूप में एकमात्र महिलाओं (जन्म के समय निर्धारित) को देखती है और पुरुषों व ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को भूल जाती है, जिन्हें घरों, शैक्षिक परिसरों, कार्यालयों, सड़कों, जेलों, संघर्ष क्षेत्रों इत्यादि जगहों पर यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है. इसमें अंतरजातीय स्थिति, जातीयता, धर्म, चिकित्सा निर्भरता और विकलांगता से जुड़ी हिंसाएं भी शामिल है.

धारा 377 हटने से होने वाले परिणाम

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2020 और 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, आईपीसी 377 के तहत लगभग 826 और 955 मामले दर्ज किए गए हैं।

आज नई संहिता कानून लागू होने से पहले द हिन्दू ने 23 जून को एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें 14 जून को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के चिलुआताल इलाके में चार लोगों द्वारा 23 वर्षीय व्यक्ति के साथ सामूहिक बलात्कार करने का मामला सामने आया था. इसमें पुलिस ने एफआईआर लिखते हुए चारों आरोपियों के खिलाफ धारा 377 के तहत मामला दर्ज किया था जो किसी पुरुष, ट्रांसजेंडर व्यक्ति या जानवर के साथ होने वाले बलात्कार से संबंधित है. इसके साथ ही जबरन वसूली, चोरी, आपराधिक धमकी, गंभीर चोट पहुंचाने और आपराधिक साजिश से संबंधित धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया। नई संहिता में धारा 377 की अनुपस्थिति में ऐसे मामलों के भविष्य पर अब बहस शुरू हो गई।

द हिंदू से बात करते हुए, वकील करुणा नंदी ने बताया कि नवतेज जौहर बनाम भारत संघ (Navtej Johar vs the Union of India) के ऐतिहासिक सुप्रीम कोर्ट के फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को “पढ़ा” था, न कि “हटा दिया” था, जिसका अर्थ था है कि समान लिंग के लोगों और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के बीच सहमति से किया गया यौन संबंध दंडनीय नहीं है. इस धारा को बरकरार रखा गया क्योंकि यह एकमात्र प्रावधान था जो पुरुषों, ट्रांसपर्सन और जानवरों के साथ होने बलात्कार के मामलों के बारे में बात करता है.

यह भी कहा इस धारा के हटने से अब पुरुषों और ट्रांसपर्सन के साथ होने वाली हिंसाओं के लिए उन्हें कानूनी सुरक्षा नहीं मिलेगी.

इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट के वकील यशस्वी एस.के. चॉकसी ने कहा कि हालांकि ट्रांसजेंडर बिल की धारा 18 यौन शोषण से संबंधित है. वहीं अपराध के लिए जेल की अवधि छह महीने से दो साल तक है, जबकि धारा 377 लागू होने पर जेल की अवधि 10 साल से लेकर आजीवन कारावास तक है। उन्होंने यह भी कहा कि नई संहिता में धारा 377 या कोई विकल्प शामिल न होने से ऐसे मामलों से ग्रसित व्यक्ति पुलिस की दया पर निर्भर हो जाते हैं।

रिपोर्ट में सीनियर वकील आनंद ग्रोवर ने कहा कि इससे जानवर बहुत कमजोर स्थिति में आ जायेंगे। उन्होंने कहा, “जानवरों के पास पहले से ही कोई एजेंसी नहीं है और वे कहीं अधिक असुरक्षित होंगे क्योंकि उनके साथ बलात्कार करने वाले बच जाएंगे।”

नये कानून को लाने को लेकर जहां यह कहा गया था कि यह भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली को नियंत्रित करेगा, दंडात्मक अपराधों को परिभाषित करेगा, जांच और सबूत इकट्ठा करने के लिए प्रक्रियाएं निर्धारित करेगा, और अदालती सुनवाई प्रक्रियाओं को नियंत्रित करेगा, यह सब यहां एकतरफा दिखाई देते हैं. जैसा कि हमने पूरे आर्टिकल में बात की कि किस तरह से धारा 377 का हटना लैंगिक व यौनिक हिंसा के प्रति भेदभाव को दर्शाता है व इससे ग्रसित लोगों को कानूनी सुरक्षा व न्याय से दूर कर देता है. ऐसे में सरकार को नई संहिता में यह देखने की ज़रूरत है कि उसमें हर लिंग व किसी भी तरह से शोषित व्यक्ति शामिल हो रहे हैं या नहीं व उन्हें संविधान के अनुसार कानूनी सुरक्षा का अधिकार मिल रहा है या नहीं.

 

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