नई शिक्षा नीति की अहम बातें
- कम से कम पांचवी कक्षा तक और संभव हो तो आठवीं और उसके आगे भी स्थानीय भाषा या मातृभाषा में पढ़ाई कराई जाएगी। मतलब कि हिंदी और अंग्रेजी जैसे विषय भाषा के पाठ्यक्रम के तौर पर तो होंगे लेकिन बाकी पाठ्यक्रम स्थानीय भाषा या मातृभाषा में होंगे।
- देश में अभी तक 10+2 (एक भाग में कक्षा 1 से 10 तक और दूसरे भाग में 11 से 12 तक) के आधार पर चलने वाली पद्धति में बदलाव किया जाएगा। अब 5+3+3+4 के हिसाब से पाठ्यक्रम होगा। यानी प्राइमरी से दूसरी कक्षा तक एक हिस्सा, फिर तीसरी से पांचवी तक दूसरा हिस्सा, छठी से आठवीं तक तीसरा हिस्सा और 9वीं से 12वीं तक आखिरी हिस्सा होगा।
- नई शिक्षा नीति में बोर्ड परीक्षाओं को तो बरकरार रखा गया है लेकिन इन्हें ज्ञान आधारित बनाया जाएगा और उसमें रटकर याद करने की आदतों को कम से कम किया जाएगा।
- अब स्कूली शिक्षा के दौरान बच्चे अपना रिपोर्ट कार्ड तैयार करने में भी भूमिका निभाएगें। अब तक रिपोर्ट कार्ड केवल अध्यापक बनाते आये हैं लेकिन नई शिक्षा नीति में तीन हिस्से होंगे। पहला बच्चा अपने बारे में स्वयं मूल्यांकन करेगा, दूसरा उसके सहपाठियों से होगा और तीसरा अध्यापक के जरिए।
- इतना ही नहीं, अब कक्षा छठीं से ही छात्रों को कोचिंग भी पढ़ाई जाएगी, जो कि स्कूली शिक्षा पूरी करने तक उनके कौशल विकास (स्किल डेवलपमेंट) में मदद करेगी।
- अंडर ग्रेजुएट कोर्स को अब 3 की बजाए 4 साल का कर दिया गया है हालांकि छात्र अभी भी 3 साल बाद डिग्री हासिल कर पाएंगे लेकिन 4 साल का कोर्स करने पर सिर्फ एक साल में पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल कर पाएंगे।
- तीन साल की डिग्री उन छात्रों के लिए, जिन्हें हायर एजुकेशन नहीं करना है। हायर एजुकेशन करने वाले छात्रों को चार साल की डिग्री करनी होगी। इतना ही नहीं, ग्रेजुएशन के तीनों साल को सार्थक बनाने का भी कदम उठाया गया है।
- इसके तहत एक साल बाद सर्टिफिकेट, दो साल बाद डिप्लोमा और तीन साल बाद डिग्री हासिल हो जाएगी। इसके साथ ही एम फिल को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया है जबकि एमए के बाद छात्र सीधे पीएचडी कर पाएंगे।
- नई शिक्षा नीति में प्राइवेट यूनिवर्सिटी और गवर्नमेंट यूनिवर्सिटी के नियम अब एक होंगे। अब किसी भी डीम्ड यूनिवर्सिटी और सरकारी यूनिवर्सिटी के नियम अलग अलग नहीं होंगे।
- नई शिक्षा नीति स्कूलों और एचईएस दोनों में बहुभाषावाद को बढ़ावा देती है। राष्ट्रीय पाली संस्थान, फारसी और प्राकृत व भारतीय अनुवाद संस्थान और व्याख्या की स्थापना की जाएगी।
भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व वाली केंद्र सरकार का चुनावी एजेंडा था नई शिक्षा नीति लाने का। अभी तक इसको लेकर खूब चर्चाएं हैं। राज्य सरकारें और शिक्षा विशेषज्ञ लोग जहां समर्थन कर रहे हैं तो वहां इसका विरोध भी। जैसे कि नई शिक्षा नीति का अध्ययन करने और उसको लेकर विचार साझा करने के लिए पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा गठित छह-सदस्यीय समिति के एक सदस्य ने कहा कि सभी राज्यों पर उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखे बिना एक शिक्षा प्रणाली लागू करना व्यावहारिक विचार नहीं है।
उन्होंने कहा, ”हमने रिपोर्ट लगभग तैयार कर ली है जिसे कुछ दिनों में सरकार को सौंपा जाएगा। मेरा विचार है कि 130 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में आप राज्यों की जरूरतों और आर्थिक स्थिति का विचार किये बिना सभी राज्यों पर एक समान शिक्षा नीति नहीं लागू कर सकते। जो मणिपुर में लागू हो सकता है, हो सकता है कि उसका बंगाल में कोई मतलब नहीं हो।”
संस्थाओं और शिक्षा विशेषज्ञ की राय और विचार
शिक्षा विशेषज्ञ मालिनी घोष कहती हैं कि उनके लिए एक अहम टिप्पणी यह है कि जब देश कोरोना महामारी से त्रस्त है, जब संसद बन्द है तो सिर्फ कैबिनेट के बल पर गोपनीयता के साथ इस नीति को क्यों पारित किया जा रहा है? ये सही है कि आम लोगों से ऑनलाइन सुझाव मांगे गए थे और ऑनलाइन में बहुत कम वह लोग जुड़ पाए जिनको सही में जुड़ना चाहिए था। बाल शिक्षा अधिकार कानून 2009 को इस नीति के अंदर बड़े ही सुनियोजित तरीके से बाहर रखा गया। इस कानून को सविंधान में मौलिक अधिकार के रूप में दर्ज किया गया है। बाल शिक्षा अधिकार कानून 2009 एक मौलिक अधिकार है जिसके आधार पर हम शिक्षा का हक कानूनी रूप से मांग सकते हैं। मतलब कि एक तरफ मना भी नहीं किया गया और दूसरी तरफ इसका जिक्र भी नहीं किया गया। न ही इसको प्राथमिकता दी गई जबकि कहीं कहीं पर इसका विरोध भी किया गया है। जैसे कि आंगनबाड़ी शिक्षा को ढांचे में लाया तो गया लेकिन बाल शिक्षा अधिकार कानून से नहीं जोड़ा गया जबकि विशेषज्ञों की यह मांग थी कि बाल शिक्षा अधिकार कानून को विस्तार करते हुए 6-14 साल तक की जगह 3-18 साल तक किया जाए।
इस नीति के अंदर सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर पढ़ाई करने के लिए जोर दिया गया है न कि संविधान पर आधारित। जबकि संविधान बराबरी का हक देता है और अगर हम सांस्कृतिक मूल्यों और रिवाजों के आधार पर पढ़ाई की बात करें तो सामाजिक, आर्थिक और जेंडर के नजरिए से सांस्कृतिक पाठ्यक्रम लड़कियों और हासिए में रहने वाले लोगों खासकर अनुसूचित जाति के खिलाफ हैं। जहां इनकी उम्मीदें शिक्षा के जरिये बहुत बढ़ गई थीं। जैसे कि शादी ही नहीं उसको पढ़ना भी है और पढ़ कर उनको आगे खुद का कैरियर भी बनाना है। सरकार की भी एक तरह की जिम्मेदारी बन गई थी कि बाल शिक्षा अधिकार कानून के अंदर वह बच्चों को ज्यादा से ज्यादा स्कूल में लाएं। जो कि अब इन सभी बिंदुओं में असर पड़ेगा।